केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी विकास दर गिरकर 5.7% रह गयी है जो कि पिछले वित्त वर्ष की इसी तिमाही में 7.9% थी। ध्यान रहे कि ये आंकड़े जीएसटी लागू होने से पहले के हैं। अर्थव्यवस्था पर जीएसटी के प्रभाव का आंकलन अभी शेष है।
नोटबन्दी लागू होने के तकरीबन दस महीने बाद आरबीआई की स्वीकारोक्ति आती है कि 99% चलन से बाहर हो चुके नोट रिज़र्व बैंक तक पहुंच चुके हैं। बैंकिंग क्षेत्र से होने के नाते ये कह सकता हूं कि रिज़र्व बैंक करेंसी चेस्ट से मिले आंकड़ों के आधार पर पहले ही ये जानकारी दे सकता था। लेकिन आरबीआई ने ऐसा क्यों नहीं किया? क्या आरबीआई को करेंसी चेस्ट पर भरोसा भी नहीं?
सरकार शुरुआत से ही नोटबन्दी के लक्ष्य में बार-बार बदलाव करती रही है। सरकार ने कभी काले धन तो कभी नकली नोट को लक्ष्य बताया, फिर आतंकवाद भी निशाने पर आया और बाद में कैशलेस का आईडिया भी आ गया। लक्ष्य तो इनमें से एक ना हासिल हुआ। हैरान करने वाली बात तो रिज़र्व बैंक की स्वीकारोक्ति के बाद केंद्रीय मंत्रियों की प्रतिक्रिया है। क्या सरकार को नोटबन्दी और जीएसटी की वजह से सुस्त होती अर्थव्यवस्था के किसी गंभीर संकट में फंसने का डर है? क्या सरकार को आशंका है कि आने वाले वक्त में जीडीपी विकास दर और नीचे जा सकती है? अरुण जेटली, रवि शंकर प्रसाद और पीयूष गोयल नोटबन्दी की विफलता का बचाव भी उतनी ही प्रत्यक्ष विफलता के साथ करते दिखते हैं।
बैंकों के लिए सबसे बड़ी चिंता तो एनपीए की है। बैंकों को कहीं न कहीं उम्मीद ये भी थी कि नोटबन्दी के बहाने पैसा खातों में आयेगा तो एनपीए कम होगा। ऐसा तो कुछ भी हुआ नहीं। बल्कि नोटबन्दी से उल्टे औद्योगिक उत्पादन, रोज़गार और मांग को जो ठेस पहुंची है उससे समस्या बढ़ी ही है। एक तो एनपीए और फिर इस कमज़ोर अर्थव्यवस्था ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की स्थिति और भी दयनीय कर दी है।
नोटबन्दी हो या जीएसटी भारतीय अर्थव्यवस्था को इतने बड़े बदलावों को स्वीकार करने में वक्त तो लगेगा। लेकिन इस दौरान अर्थव्यवस्था में जो गिरावट आ रही है उसके दुष्परिणाम जनता को भुगतने पड़ रहे हैं। बेरोज़गारी पहले ही कोई छोटी समस्या नहीं थी, नोटबन्दी ने तो उस आग में ऊपर से घी डालने का ही काम किया है। जब सरकार जीएसटी लागू करने ही वाली थी तो फिर नोटबन्दी लागू करके जनता को कतारों में क्यों खड़ा किया?
लेकिन महत्वपूर्ण प्रश्न तो कुछ और ही है। बात उन कदमों की जो सरकार ने असल में उठाए ही नहीं। अब सरकार ने नोटबन्दी तो लगा दी लेकिन असल में नोटबन्दी में खड़ा हुआ आम आदमी, किसान, मज़दूर, नौकरी पेशा लोग और गृहणियां। क्या सारा काला धन इन्हीं के पास था? और फिर मोदी जी 15 अगस्त को लाल किले से इसी धन के बैंकिंग चैनल में वापस आने पर अपनी पीठ थपथपाते हैं। जो ज़्यादातर काला धन था बेनामी जमीन जायदाद की शक्ल में उनको तो किसी ने लाइन में नहीं लगाया।
आज सार्वजनिक क्षेत्र के तमाम बैंक भी जिस एनपीए के बोझ तले कराह रहे हैं उसमें से सबसे ज़्यादा हिस्सेदारी अमीर उद्योगपतियों की ही है। रिज़र्व बैंक ने जो टॉप के डिफाल्टर की सूची निकाली है उसमें भूषण स्टील, भूषण पावर, एस्सार स्टील, आलोक इंडस्ट्रीज ऐसे ही बड़े नाम शामिल हैं।
अगर सरकार ने बेनामी जमीन-जायदाद के खिलाफ कार्रवाई की होती तो वास्तव में सकारात्मक परिणाम मिलते और जनता की दुर्गति भी होने से बच जाती। खैर जनता ने तो सब सह ही लिया, लेकिन अब भी सवाल है कि असली दोषियों का नंबर कब आएगा? मोदी सरकार ने तीन वर्ष के कार्यकाल में शेखी बघारने के लिए कदम तो कई उठाये लेकिन सरकार कई आधारभूत बदलावों से जाने क्यों बचती रही। इनमें सबसे जरूरी है विसल ब्लोवर प्रोटेक्शन बिल। अगर सरकार ये कानून ला पाती तो वास्तव में सरकार के पास एक फौज होती उन ईमानदार कर्मचारियों की जो सरकार को भ्रष्टाचार और काले धन से लड़ने में मददगार होते।
बात करें रिज़र्व बैंक द्वारा सालाना मुनाफे में से सरकार को दिए जाने वाले डिविडेंड की तो पिछले वित्तीय वर्ष के मुकाबले वर्ष 2016-17 में डिविडेंड आधे से भी कम रह गया। डिविडेंड में सीधे 35 हज़ार करोड़ रुपये की कमी आई है।
सरकार ने अपनी ज़िद में 35 हज़ार करोड़ रुपये बर्बाद कर दिए या यूं कहें कि सरकार ने जनता के 35 हज़ार करोड़ रुपये का जुआ खेल लिया।
सौरभ, Youth Ki Awaaz Hindi सितंबर-अक्टूबर, 2017 ट्रेनिंग प्रोग्राम का हिस्सा हैं।