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आदिवासियों के प्रति हमारी संवेदनहीनता को बखूबी दिखाती है फिल्म न्यूटन

न्यूटन एक ईमानदार सरकारी मुलाज़िम की कहानी है जिसकी इलेक्शन ड्यूटी दण्डकारण्य के जंगलों में लगती है। न्यूटन की टीम में एक स्थानीय आदिवासी लड़की है मलको, वो पढ़ी-लिखी है और उसे स्थानीय भाषा और संस्कृति की अच्छी समझ है। फिल्म में मलको और न्यूटन के बीच हुए संवाद और खासकर मलको द्वारा न्यूटन को कही गई बातों में वास्तविकता और गंभीर सन्देश निहित है। एक वाकये में मलको न्यूटन से कहती है, “आप यहां से कुछ घंटों की दूरी पर रहते हैं, लेकिन आपको यहां के बारे में कुछ नहीं पता।” ये वाक्य उन सभी लोगों की हकीकत है जो सिनेमाहॉल में आदिवासियों द्वारा बोली जाने वाली गोंडी भाषा सुनकर हंस रहे थे।

न्यूटन फिल्म की शूटिंग छत्तीसगढ़ के दल्ली-राजहरा में हुई है; ये भिलाई (जहां के एक सिनेमाहॉल में मैंने ये फिल्म देखी) से कुछ 90 कि.मी. की दूरी पर है। दल्ली-राजहरा में लौह अयस्क (आयरन ओर) की खदानें हैं, जो स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (SAIL) द्वारा संचालित हैं। यहां के आयरन ओर की आपूर्ति से ही भिलाई इस्पात संयंत्र (भिलाई स्टील प्लांट) में स्टील बनाया जाता है। यहां ये सम्बन्ध स्थापित करना इसलिए भी ज़रूरी है, क्यूंकि इस संबंध का ज़िक्र अप्रत्यक्ष रूप से मलको के संवाद में मिलता है जिसे छत्तीसगढ़ निवासी होने के कारण मैं महसूस कर सकता था।

अपने व्यक्तिगत अनुभवों में मैंने पाया है कि छत्तीसगढ़ की शहरी जनता में यहां की आदिवासी संस्कृतियों और भाषाओं को लेकर अनभिज्ञता तो आम है ही, साथ ही संवेदनहीनता की भी कोई कमी नहीं है। शहरी आमजन की चेतना में बस्तर (जो छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों में बसे कुछ बड़े शहरों से कुछ ही घंटे की दूरी पर है) की कल्पना सिर्फ चित्रकोट और तीरथगढ़ जैसे पर्यटन स्थल, महुआ और सल्फी जैसी शराब और देसी मुर्गी तक ही सीमित है। ज्ञात हो कि वर्ष 2000 में इस राज्य का निर्माण आदिवासी बहुल राज्य और आदिवासीयों के विकास और कल्याण के लिए हुआ था।

अपने निर्माण के सत्रह वर्ष बाद राज्य में ‘विकास’ इस तेज़ गति से हुआ है कि राजधानी रायपुर में इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम, इंटरनेशनल हॉकी स्टेडियम से लेकर स्मार्ट सिटी सब आ गए। रायपुर, बिलासपुर और दुर्ग-भिलाई की तस्वीर कुछ बदल गई, लेकिन कुछ नहीं बदला तो वो है छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की बदहाल ज़िन्दगी। मुफ्त में लैपटॉप बांटने वाली सरकार आदिवासियों के विकास के लिए मुफ्त शिक्षा और इलाज की सुविधाएं मुहैय्या कराने में नाकाम रही है। विकास का ये मॉडल निश्चित तौर पर आदिवासी कल्याण का मॉडल नहीं है जो राज्य निर्माण के दौरान संकल्पित किया गया था और प्रचारित किया गया था।

न्यूटन की ईमानदारी से चुनाव कराने की प्रतिबद्धता देखकर मलको एक वाकये में कहती है, “कोई भी बड़ा काम एक दिन में नहीं होता, जंगल बनने में सालों लग जाते हैं।” वाकई एक दिन के चुनाव से लोकतंत्र का जश्न नहीं मनाया जा सकता। लोकतंत्र भागीदारी से बनता और सुदृढ़ होता है। जंगलों में जाकर एक दिन वोट ले आने से हज़ारों सालों से अपने रीती-रिवाज़ों के मुताबिक जी रहे आदिवासियों को उनके नागरिक और संवैधानिक अधिकारों के बारे में जागरूक नहीं कराया जा सकता और ना ही उन्हें इस तरह मुख्यधारा से जोड़ा सकता है। आदिवासी क्षेत्रों में लोकतंत्र का विकेंद्रीकरण (decentralisation) करना ज़रूरी है, इसे localised यानि स्थानीय बनाने की आवश्यकता है। संक्षेप में ऐसी शासन व्यवस्था जो आदिवासियों की, आदिवासियों के लिए और आदिवासियों के द्वारा हो।

दक्षिण छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग, प्राचीन नाम- दण्डकारण्य, यहां के मूलनिवासी- हज़ारों सालों से जंगलों में रहने वाले आदिवासी। आदिवासी, भारत गणराज्य के उतने ही जायज़ नागरिक हैं जितना रायपुर, भोपाल, दिल्ली या देश के किसी अन्य शहर, कसबे या गांव में रहने वाले लोग। जो नाजायज़ है वह है राज्य और समाज का इनके प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार। फिल्म में पंकज त्रिपाठी ने पैरा मिलिट्री फोर्स के असिस्टेंट कमांडेंट की भूमिका निभाई है। उनके किरदार के माध्यम से इस फिल्म में जंगलों में सरकार द्वारा लॉ एंड आर्डर नियंत्रण के नाम पर तैनात किए गए हज़ारों की संख्या में जवानों का आदिवासियों के प्रति व्यवहार दर्शाया गया है। आदिवासियों को कैंप में ले जाने के लिए उनके गांव जला देना, आदिवासी बच्चों से पूछताछ और जवानों द्वारा स्थानीय महिलाओं का यौन शोषण, बस्तर के जंगलों में रोज़ाना घटती हकीकत है।

विडम्बना यह है कि दण्डकारण्य आज देश और वैश्विक स्तर पर अपनी प्राकृतिक और सांस्कृतिक सम्पन्नता और धरोहर के लिए कम बल्कि ‘कॉनफ्लिक्ट ज़ोन’ कहलाने की वजह से ज़्यादा मशहूर है। प्रश्न उठता रहा है कि पूंजीपतियों और राज्य की ज़्यादतियों के विरुद्ध हथियार बंद विद्रोह छेड़े माओवादी गुरिल्ला और लोकतंत्र का दावा पेश करने वाली सरकारों के बीच छिड़े संघर्ष में पिसते आदिवासियों की दास्तान कौन सुनाएगा?

फिल्म न्यूटन, दण्डकारण्य की वास्तविकता दिखाने का और वहां के आदिवासियों की कहानी को शहर तक लाने का प्रयास करती है और काफी हद तक सफल भी होती है। सभी कलाकारों ने अपने किरदारों को जीवंत कर दिया है। अगर आप बस्तर के हालातों से वाकिफ हैं तो हो सकता आपको लगे आप फिक्शन नहीं, डाक्यूमेंट्री देख रहे हैं। प्यार- मोहब्बत, रोमांस की रटी-रटाई कहानियों के बीच हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में न्यूटन एक साहसी और ज़रूरी कदम है। टीम न्यूटन का दिल से शुक्रिया।

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