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औपचारिक हिंदी और प्रैक्टिकल हिंदी में ज़मीन आसमान का फर्क क्यों?

कुछ महीने पहले टेलीविजन पर एक विज्ञापन आया। इस विज्ञापन में रेलवे स्टेशन पर बैठे कुलियों के समूह में से एक सदस्य ‘स्मार्टफोन’ पर ताज़ा खबरें पढ़कर अपने साथियों को सुना रहा था। उससे थोड़ी दूर बैठे ‘व्हाइट कॉलर’ जॉब वाले सज्जन विचलित थे कि कहीं वह हिंदी भाषी व्यक्ति उनके अख़बार को तो नहीं पढ़ रहा है! यह विज्ञापन कुलियों के समूह को हिंदी भाषी के रूप में प्रस्तुत करता है और दर्शाता है कि सूचना प्रौद्योगिकी* के बाज़ार ने ‘हिंदी’ की ज़रूरत को स्वीकार कर लिया है।

इसे ध्यान में रखते हुए सरल उपकरणों और प्रौद्योगिकी को सामने लाया जा रहा है, जो हिंदी भाषा द्वारा संचालित* किए जा सकते हैं। यह विज्ञापन एक उदाहरण मात्र है। इसके द्वारा हिंदी की नई चाल-ढाल को समझा जा सकता है। समाचार पोर्टल और सोशल मीडिया पर हिंदी की बढ़ता प्रसार इसी का प्रमाण है। सत्याग्रह, फर्स्टपोस्ट और यूथ की आवाज़ आदि, हिंदी भाषा में वे सारी सूचनाएं, विश्लेषण* और व्याख्या प्रस्तुत कर रहे हैं, जिनके लिए कुछ सालों पहले तक अंग्रेजी का ज्ञान ज़रूरी माना जाता था।

ऊपर बताए गए उदाहरण में आम लोगों वाली हिंदी के तकनीक के साथ कदमताल को देख सकते हैं। अब एक दूसरा उदाहरण देखिए। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग(UGC)* द्वारा अप्रैल माह में शोध पत्रों* के प्रकाशन के लिए जिन पत्रिकाओं की जो पहली सूची जारी की गई, उनमें से एक भी हिंदी माध्यम में नहीं थे। हालांकि दूसरी और तीसरी सूची में हिंदी की कुछ पत्रिकाओं को स्थान मिला। इसी के समानांतर एक अन्य खबर है कि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) को विशेषज्ञों की समिति ने सुझाव दिया कि हिंदी की पुस्तकों में भाषायी शुद्धता को ध्यान में रखते हुए संस्कृतनिष्ठ शब्दों को रखा जाए।

ये उदाहरण औपचारिक* और अकादमिक* जगत में हिंदी के व्यवहार की समस्या को उभारते हैं। ये उदाहरण प्रमाण हैं कि संपर्क भाषा के रूप में हिंदी पूरे भारत में स्थापित है। हिंदी की चिंताजनक स्थिति केवल औपचारिक प्रयोग वाली जगहों पर है। चाहे वह न्यायालय हो, विश्वविद्यालय हो, बैंक हो या कोई और सरकारी महकमे। जहां बौद्धिक वर्ग के हाथ में हिंदी के कल्याण का ज़िम्मा है, वहां अधिक साज-श्रृंगार के चक्कर में हिंदी अपनी नैसर्गिक* सुदंरता को खो रही है। हिंदी की विकास यात्रा को देखें तो आप पाएगें कि हिंदी को सुसज्जित मार्ग और सुविधाओं के बदले ठेठ देशी अंदाज़ ही भाता है। तभी तो इस भाषा का विकास राज-काज से नहीं हुआ बल्कि समाज की संवाद की ज़रूरतों ने हिंदवी से हिंदी तक का रास्ता तैयार किया।

हिंदी भाषा के प्रयोग के स्वरूपों पर विचार करिए। पहला, लोगों में प्रयोग की हिंदी। इस तरह की हिंदी स्थानीय बोलियों से पर्याप्त शब्द लेती है। रोज़मर्रा के बोलचाल और व्यवहार में इस्तेमाल होती है। इसमें अर्थ संप्रेषण* पर ध्यान दिया जाता है। शुद्धता, उच्चारण और व्याकरण की कसौटियां द्वितीयक होती हैं।

दूसरी, हिंदी सरकारी कामकाज की भाषा है। स्वतंत्रता के बाद इस तरह की हिंदी के प्रयोग पर सबसे ज़्यादा जोर दिया गया। राजभाषा विभाग इस प्रयास की ही उपज है। हिंदी पखवाड़ा और हिंदी दिवस इसके वार्षिक कर्मकांड हैं। यह हिंदी स्वाभाविक नहीं है। अनुवाद पर आधारित होने के कारण यह कृत्रिम और जटिल है और केवल फाइलों तक सीमित है।

तीसरी हिंदी, औपचारिक शिक्षा की हिंदी है। हिंदी साहित्य के अलावा विज्ञान, मानविकी और गणित जैसे विषयों में यह अनुवाद पर ही टिकी है। इन विषयों में जिस तरह के शब्दों का इस्तेमाल होता है, उस पर ध्यान देगें तो आप पाएंगें कि अकादमिक जगत द्वारा प्रयोग की जाने वाली हिंदी अपने मुहावरे और शब्दावली का सृजन नहीं कर पायी है। इस सीमा का प्रभाव केवल लिखित रूप तक सीमित नहीं है बल्कि शिक्षण जैसे संवादपरक कार्यों में भी दिखता है।

कई बार कक्षाओं में ऐसा पाया गया है कि जिन विषयों को लेकर शिक्षक स्वयं अस्पष्ट रहते हैं उन्हें अधकचरी अंग्रेजी में बड़बड़ाने लगते हैं। इससे वो खुद को विषय का ज्ञाता बताकर श्रेष्ठ और योग्य जताने की कोशिश करते हैं। जबकि विषय का वास्तविक ज्ञान भाषा के बंधन को पार कर संप्रेषण यानि कि कम्युनिकेशन में सरलता लाता है। अपने यहां उल्टा माना जाता है। हिंदी में लिखी और बोली गयी सामग्री को कमतर आंका जाता है, उस पर भी यदि यह सरल हो तो इसका मूल्य और भी कम हो जाता है। हम एक ऐसी मानसिकता से ग्रस्त हैं जो भाषा की कठिनता को श्रेष्ठता की कसौटी मानता है। इस कसौटी के कारण अकादमिक और कार्यलयी कामकाज की गुणवत्ता का आंकलन भाषा की कठिनाई से किया जाने लगता है। यह प्रवृत्ति हिंदी को उसके लोगों से दूर करती है और यह किताबी और कृत्रिम भाषा बनकर रह जाती है।

विडंबना देखिए रोज़मर्रा के व्यवहार में हिंदी धारावाहिक, हिंदी फिल्में और हिंदी गाने सुनने वाला समुदाय कैसे औपचारिक व्यवहार में या तो अंग्रेज़ीदां हो जाता है या कार्यालयी हिंदी का प्रवक्ता। मेरे एक सहकर्मी स्वयं खाटी भोजपुरी माटी में बड़े हुए हैं लेकिन अपने बेटी का एडमिशन ऐसे विद्यालय में कराया है जहां का ड्राइवर भी अंग्रेज़ी में बात करे। भाषायी वर्चस्व की धारणा उन पर हावी है। वे मानने को तैयार ही नहीं है कि भाषा एक अर्जित दक्षता है। इसके प्रभाव में हिंदी के प्रयोग को हीनता का ठप्पा मानते हैं।

इन जैसे हिंदी पट्टी के लोगों के कारण हिंदी कमज़ोर हुई है। कई बार कहा जाता है कि हिंदी की लड़ाई अंग्रेज़ी से है। जबकि वास्तव में हिंदी की लड़ाई ऐसे कुलीन हिंदीभाषियों से हैं जो अपनी श्रेष्ठता और ‘खास’ होने को दर्शाने के लिए अंग्रेज़ी का व्यवहार करते हैं। इसी तरह अन्य भारतीय भाषाओं से हिंदी का कोई संघर्ष नहीं है। वास्तविकता है कि हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषी लोग अंग्रेज़ी के रास्ते कुलीनता का चोला ओढ़ने को उतावले हैं। इस व्यग्रता में वे केवल अपनी भाषा को ही नहीं छोड़ रहे हैं, बल्कि लोगों की विरासत की उपेक्षा भी कर रहे हैं। इन परिस्थितियों में भाषा का शब्दकोश जो लोगों से समृद्ध होना चाहिए वह अनुवाद से समृद्ध हो रहा है। अनुवाद के बाद रही सही कसर मानकीकरण* और संस्कृतनिष्ठ* बनाने की प्रवृत्ति पूरी कर रही है। इससे असहमति नहीं कि भाषा का एक मानक स्वरूप होना चाहिए। असहमति है कि मानकीकरण की प्रक्रिया भाषा को कठिन क्यों बनाए?

लोक व्यवहार की हिंदी और औपचारिक हिंदी की तुलना कीजिए। पहली जहां सामासिक (2 या 2 से ज़्यादा शब्दों को मिलाकर एक शब्द बनाने वाली) है। अर्थ के लिए किसी अन्य बोली या भाषा से शब्दों को बेहिचक चुनती है, वहीं दूसरी धारा शब्दजाल से विद्वता का आवरण ओढ़ना चाहती है। इसका अंतर आप बच्चे की भाषा और विद्यालय की भाषा में देख सकते हैं। बच्चे के रोज़मर्रा की शब्दावली के लिए विद्यालय के पास एक ‘वैज्ञानिक’ शब्दावली होती है। बच्चे से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने रोज़मर्रा की शब्दावली को छोड़कर इस नयी टकसाली शब्दावली का प्रयोग सीखे। यही स्थिति कार्यस्थलों पर भी होती है, जिसका इरादा नौकरशाही को पोषित करना होता है। इसके कारण सरकारी कामकाज, आमजन की समझ से परे हो जाता है।

हिंदी पर संकट के बादल केवल औपचारिक व्यवहार जगत में दिखेगें। लोक व्यवहार में हिंदी स्वाभाविक गति से स्थापित है। हिंदी, हिंदुस्तान की रूह है, जैसे-जैसे हिंदुस्तान ने नए रंग ढंग को अपनाया हिंदी भी अपनी चाल-ढाल बदलती रही है। यह हताश या कमज़ोर जनों की भाषा नहीं है, बल्कि लोक आनंद की भाषा है। जिस तरह से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भक्तिकाल को प्रतिक्रियात्मक ना मानकर भारतीय लोक की स्वाभाविक उपज मानते हैं, वैसे ही हिंदी को अंग्रेज़ी की प्रतिक्रिया में देखना, हिंदी के व्यवहार और व्यापार से लोगों को बाहर कर देता है।

हिंदी को लोगों से मिलने वाली शक्ति का प्रमाण है कि प्रौद्योगिकीय और प्रबंधन में शिक्षित-दीक्षित युवा अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए हिंदी का सहारा ले रहे हैं।

सेज जैसे प्रकाशक हिंदी में प्रकाशन कार्य करने में रूचि दिखा रहे हैं। किंडल जैसे उपकरण पर हिंदी की किताबों की उपलब्धता बढ़ रही है। केवल छोटे कस्बाई जीवन की कहानी और कविता तक हिंदी को सीमित मानने वालों की आंखें वे ब्लॉग खोल रहे हैं, जहां देश-विदेश में रहने वाले हिंदी भाषी अपनी संवेदनाओं को हिंदी में व्यक्त कर रहे हैं। हिंदी की उपेक्षा अपने जड़ों की उपेक्षा करना है। हमें यह मानना होगा कि हिंदी दिवस कार्यालयी हिंदी की स्मृति में मनाया जाने वाला पर्व है और इसका लोगों की हिंदी से कोई वास्ता नहीं है। लोक हिंदी पर कोई संकट नहीं नज़र आता। संकट तो वहीं है जहां लोग नीले सियार की तरह अंग्रेज़ी के नीलत्व को छोड़ने को तैयार नहीं है।


1- सूचना प्रौद्योगिकी – Information Technology  2- संचालित – Operated  3- विश्लेषण – Analysis  4- शोध पत्रों – research papers

5- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग – University Grants Commission

6- राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद – National Council Of Educational Research And Training

7- औपचारिक – Formal  8- अकादमिक – Academic  9- नैसर्गिक – Natural  10- संप्रेषण – Communication

11- मानकीकरण – Standardization  12- संस्कृतनिष्ठ – Sanskritized

 

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