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इस हिंदी दिवस, हिंदी किताबों को ‘कूल’ बनाने की मेरी छोटी सी कोशिश

14 सितंबर को हिंदी दिवस होता है, ये GK का ज्ञान मैं इसलिए दे रहा हूं क्योंकि हिंदुस्तान में हिंदी दिवस किस दिन होता है ये बात जानने या न जानने से हम सब की जिंदगी में कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला।

हिंदी दिवस है, एक दम कुछ इंटेलेक्चुअल टाइप के लोगों को आज बड़ी चिंता होने लगेगी कि हिंदी की हालत आज बड़ी ही खराब है। कई लोग तो आंसू की नदिया बहा देंगे हिंदी की दयनीय स्थिति पर, कुछ तो ऐसे भी मिलेंगे जिन्होंने हिंदी की खराब स्थिति पर PhD कर रखी होगी।

देखिये, हिंदी की किताब पढ़ने के साथ दिक्कत ये है कि पूरी किताब पढ़के भी नयी वोकैब्यूलरी तो सीखते नहीं जो हमलोग MBA के एंट्रेंस में, या कहीं बोलने में काम आए। स्टाईल नहीं है न हिंदी में और वैसे भी हिंदी की किताब लेकर फ्लाइट में या ट्रेन में जाओ तो बड़ा ही ‘down market’ लगता है। वहीं अगर हाथ में अंग्रेज़ी की कोई भी किताब होती जो भले हम पढ़ते नहीं बस ट्रेन में लेकर जाते या कॉलेज में हाथ में दबाये रहते तो बड़ा ही कॉन्फिडेंट सा फील होता है।

अपने आस पास जरा नज़र घुमा के देखिये, अंग्रेजी की किताबें तो हर जगह मिलती हैं, पाइरेटेड वर्जन भी होती हैं, हम लोग मोलभाव करके फुटपाथ से भी ले लेते हैं। फुटपाथ वाली दुकान पर आप हिंदी की किताब पूछोगे तो दुकानदार ऊपर से नीचे तक आपको ऐसे देखेगा जैसे आपने किताब की दुकान पर कॉन्डोम मांग लिया हो। हां हिंदी के नाम अगर उसके पास कुछ मिले तो शायद आपको “मस्तराम” जैसा कुछ टिका दे, उसकी डिमांड रहती ही है।

देखिये इतना तो आप समझ ही गए होंगे कि हिंदी में किताबों की स्थिति बड़ी गड़बड़ है, तो सवाल ये उठता है कि इसका ज़िम्मेदार आखिर है कौन?

किसी हिंदी के लेखक से कभी गलती से मत पूछ लीजिएगा ये सवाल, वो तुरंत अपनी आंखें लाल करके बोलेगा- “पूरा सिस्टम खराब है, पब्लिशर ज़िम्मेदार है, सरकार ज़िम्मेदार है, कैपिटलिज़्म ज़िम्मेदार है। ऊपर से नीचे तक सब भ्रष्ट हैं!”

चलिये आपको एक राज़ की बात बता देता हूं। हिंदी की इक्सट्रीमली बैड सिचुएशन के लिए बहुत हद तक हिंदी के लेखक ही ज़िम्मेदार हैं।

हिंदी का लेखक अपने पाठक से इतनी दूरी बना कर रखता है जितनी कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच है। अपनी ही लिखी हुई चीज़ को प्रचार करने को हिंदी का लेखक इतना बुरा मानता है जैसे वो किताब का नहीं सिगरेट या बीड़ी का प्रचार कर रहा हो। अब भइया, जब पता ही नहीं चलेगा कि कोई नयी किताब आई है तो उसका बिकना और पढ़े जाना तो बहुत दूर की कौड़ी है।

हिंदी के बहुत से बड़े लेखक सोते-जागते खाते-पीते इंटेलेक्चुअल जैसा बिहेव करते हैं। वही इंटेलेक्चुअल जो पब्लिक में न ज़ोर से हंसता है न बोलता है बस सोचता रहता है, कभी-कभी बस थोड़ा मुस्कुरा देता है और समय-समय पर चिंता व्यक्त करता रहता है, नारी से लेकर दलित तक सारे विमर्श करता रहता है। दिक्कत एक ही है कि हिंदी का लेखक पूरी दुनिया में हिंदी के पाठक के अलावा सबके लिए लिखता है। कभी-कभी तो इतना कॉम्पलेक्स लिख देता है कि उसको समझने के लिए दूसरे उसके जैसे ही इंटेलेक्चुअल को बुलाना पड़े।

अब देखिये ये हिंदी का रोना-धोना तो लगा रहेगा। मैंने ये सोचा है कि जो भी मेरी हिंदी की सबसे फेवरेट किताबें हैं, महीने में एक किताब मैं अपने किसी जानने वाले को ज़रूर गिफ्ट करूंगा, और दूसरा काम ये कि जहां भी किताबें मिलती हैं उस दुकानदार से हिंदी की किताब रखने के लिए कहूंगा।

आप में से ज़्यादा से ज़्यादा लोग अगर अपने-अपने शहरों में दुकानदार से हिंदी किताब रखने के लिए कहें तो शायद कुछ हवा का रुख बदले। मुझे मालूम है मेरे ये करने से कोई दुनिया नहीं बदलने वाली लेकिन इस बार कोशिश करने का मन है। बहुत हुआ हिंदी के लिए रोना धोना, क्या पता आप में से कुछ लोग ऐसा करें तो हिंदुस्तान में हिंदी भी थोड़ी ‘cool’ हो जाए।

यह हैं मेरी कुछ पसंदीदा किताबें, जो मैं न जाने कितनी गिफ्ट कर चुका हूं और आगे भी करने वाला हूं

चित्रलेखा- भगवती चरण वर्मा
गुनाहों का देवता- धर्मवीर भारती
सिनेमा और संस्कृति- राही मासूम रज़ा
क्या भूलूँ क्या याद करूँ- हरिवंश राय बच्चन
ट-टा प्रोफ़ेसर- मनोहर शाम जोशी
मृत्युंजय- शिवाजी सावंत

ये तो रही मेरी लिस्ट, आप कौन सी किताब गिफ्ट करने वालें हैं?

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