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बच्चों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी है कि स्कूल अपने कर्मचारियों के मेंटल हेल्थ का रिकॉर्ड रखे

प्रद्युम्न और उसके अभिभावकों का चेहरा याद आते ही एक अजीब सी सिहरन और बेचैनी घर कर जाती है। मन में एक घृणा का भाव पैदा होता है। बार-बार यही सवाल उठता है कि नौनिहालों को किसके हवाले छोड़ निश्चिंत हुआ जाए। देश के कोने-कोने से आने वाली बच्चों के साथ यौन-हिंसा की खबरें, हर मां-बाप को डरा देती हैं। इन सभी घटनाओं के पात्रों का नाम भले बदल जाए लेकिन आप पाएगें कि उनका जेंडर पुरूष ही होता है। ये घटनाएं मानसिक दिवालिएपन और मनोविकृतियों की ओर बढ़ रहे पुरूषों का प्रमाण हैं। इन्हें क्षेत्र, धर्म, जाति, आय आदि पैमानों के सापेक्ष मत समझिएगा। न ही पढ़े-लिखे लोगों को क्लीन चिट दीजिएगा।

इन्हें एक ही तरह से परिभाषित किया जा सकता है, और वो है ‘पुरूषत्व’ की मनोविकृति। जिस समाज में सेक्शुएलिटी के संवेग में पुरूष की आक्रामकता और पहल को पहचाना जाता है, जहां ऐसे मुद्दों पर प्रतिरोध के बजाय चुप रहने को बेहतर समझता है, वहां ऐसे हैवानों के पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है। यह भी उल्लेखनीय है कि पितृसत्ता उन सभी आवाज़ों को दबाने की कोशिश करती है, जो उनके अनुकूल नहीं होते। आमतौर पर केवल स्त्री समुदाय पर सत्ता की इच्छा और उनके दमन को ही हम पितृसत्ता का लक्ष्य और प्रभाव मानते हैं। लेकिन यह घटना बताती है कि बच्चे भी ऐसे दमित समुदाय का भाग बन चुके हैं।

एक तरफ आपको बच्चों में ईश्वर के दर्शन होते हैं और उसके भोलेपन को आप दुनिया की सबसे बड़ी संपत्ति मानते हैं, वहीं दूसरी तरफ आप मान लेते हैं कि वे आपकी सेक्शुअल एक्टिविटीज़ को असामान्य व्यवहार नहीं समझते तो आप उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं। गोद में उठाना, घुमाना, टहलाना, चुंबन आदि बच्चों के प्रति प्यार जताने के तरीके माने जाते हैं। इसी कारण प्रारंभ में बच्चे इस व्यवहार को असामान्य की कैटेगरी में नहीं रखते हैं। अभिभावक स्वयं इसे पारिवारिक घनिष्ठता और बच्चे से लगाव का प्रमाण मानते हैं। उनका यह विश्वास परिवार के सदस्यों और नज़दीकियों को यौन हिंसा का अवसर देता है।

एक रिपोर्ट के हवाले से कहूं तो 69% बच्चे परिवार के सदस्यों या नज़दीकी रिश्तेदारों द्वारा यौन शोषण का शिकार होते हैं। ऐसी घटनाएं 5 से 11 वर्ष के बच्चों के साथ ज़्यादा घटित होती हैं। उम्र की इसी अवधि के दौरान बच्चे घर से बाहर अपनी सक्रियता बढ़ाते हैं। सोचने वाली बात है कि ऐसी घटनाओं की बढ़ती खबरों के बीच क्या बच्चों को घर में कैद कर लेना एकमात्र विकल्प है? क्या हमें इस मान्यता को तुरंत छोड़ना पड़ेगा, जिसके अनुसार हर वयस्क बच्चों से निश्छल प्रेम करता है? क्या हमें अपने बच्चों को किसी भी अजनबी स्पर्श के प्रति सचेत रहने की समझ देनी होगी?

आमतौर पर विद्यालय का संबंध ज्ञान के अलावा मूल्य और संस्कार से जोड़कर देखा जाता है। लेकिन अब तो इसकी सीमाओं में ही मनोविकृतियों का खेल चल पड़ा है। अधेड़ उम्र के शिक्षक और कर्मचारी मासूम बच्चों को एक वस्तु के रूप में देख रहे हैं, जो उनकी अतृप्त कामनाओं की पूर्ति का माध्यम बन सकते हैं। ज़्यादातर प्रकरणों में अपराधी भी किसी बच्चे या बच्ची के पिता होते हैं। किसी दूसरे के बच्चे के साथ हिंसा करते हुए उनके दिमाग में क्या अपने बच्चे का ख़याल एक बार भी नहीं आया होगा? शायद नहीं! क्योंकि इन जैसों के लिए बच्चे एक विशिष्ट प्राणी (फिनामिनोलॉजिकल कैटेगरी) में नहीं आते बल्कि वे एक वस्तु हैं जिन्हें बहलाया-फुसलाया जा सकता है।

ऐसा लगता है कि आने वाली पीढ़ी को ककहरा सिखाने से पहले ‘गुड टच’ और ‘बैड टच’ के बारे में जानकारी देनी होगी। बच्चों को बचपन से संदेह करना, विश्वास ना करना आदि सिखाना होगा। यह मानना होगा कि अब स्कूल और ऐसे अन्य संस्थान सुरक्षित जगह नहीं रह गए हैं जहां घर जैसा प्रेम और स्नेह प्रदान किया जाता हो। एक घटना याद आती है। एक पिता अपनी पुत्री के मार्गदर्शन के संदर्भ में एक बड़े ओहदे वाले शिक्षक से मिले। ये शिक्षक लगातार अपने पद की धमक दिखाकर ऐसा माहौल बना रहा था कि मानो उस संस्थान के वे ही सर्वेसर्वा हो। पिता ने जब इस स्थिति को भांप लिया तो वे किसी तरह वहां से बेटी सहित विदा हुए। दोबारा कहीं दूसरे स्थान पर मिलने पर पिता ने कहा कि ‘ऐसे मागदर्शक से तो अच्छा है कि मेरी बेटी कम पढ़ी-लिखी रह जाए।’

कल्पना कीजिए कि यदि कोई कमज़ोर या गरीब अभिभावक होता तो वह मार्गदर्शक बातचीत के माध्यम से रोब जताने के बजाय ताकत और हिंसा पर भी उतर सकता था। कहने का अभिप्राय यह है कि विद्यालय जैसे संस्थानों की चौखटों में वयस्क और बच्चे के संबंध में बच्चा हमेशा ऐसे छोर पर है, जहां इन्हें अपरिपक्व समझे जाने के कारण इनके शोषण की संभावना सर्वाधिक है। ध्यान रखिये अपरिपक्वता केवल जैविक उम्र की नहीं बल्कि सामाजिक भी है, जिसके अनुसार एक बड़ा व्यक्ति जो करता है सही करता है।

इस घटना के बाद से जो खबरें और लेख आदि सामने आए हैं, वे स्कूल में सुरक्षात्मक उपायों की चूक को लगातार उभार रहे हैं। यह एक महत्वपूर्ण पक्ष है। इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन इसके साथ यह भी पूछना होगा कि क्या विद्यालय, शिक्षकों और कर्मचारियों की मेंटल हेल्थ को लेकर सचेत हैं? क्या विद्यालय में विद्यार्थियों को आवाज़ उठाने और इनकी आवाज़ सुनने की संस्कृति है? यहां ध्यान रखना होगा कि विद्यालय के समस्त सुरक्षात्मक प्रबंध, विकृत मानसिकता के कारण होने वाली इन घटनाओं को केवल टाल सकते हैं।

अगर स्कूल की दीवार के भीतर किसी तरह आपने बच्चों को सुरक्षित कर भी लिया तो ये हैवान विद्यालय की दीवार के बाहर तो सक्रिय रहेंगे ही। एक रिपोर्ट के अनुसार वे बच्चे जो किसी कारण से विद्यालय नहीं जाते, उनमें से लगभग 53 प्रतिशत यौन हिंसा के शिकार होते हैं। ज़रा उन बच्चों के बारे में सोचिए जिन्हें घर या इस जैसी किसी अन्य संस्था की दीवार मयस्सर नहीं और जो बच्चे अपने अभिभावकों के लिए बोझ हैं! ऐसी परिस्थिति में जी रहे बच्चे ही देह व्यापार और मानव तस्करी (ह्यूमन ट्रैफेकिंग) जैसी घटनाओं के सबसे ज़्यादा शिकार होते हैं। तमाम सरकारी आंकड़े और रिपोर्ट इसी बात को सिद्ध करती हैं।

समस्या की जड़ है- मनोविकृतियों से ग्रस्त होते पितृसत्तात्मक समाज में यौन कुठांओं का हावी होना। ऐसे समाज के पुरूष प्लेज़र सीकिंग के लिए सेक्शुअल एक्टिविटीज़ को ही एकमात्र रास्ता मानते हैं। प्रकृति ने जिस पुरूष को जीवन सृजन करने की क्षमता दी है, वही जीवन के मूल्य और उसकी सुदंरता को नहीं पहचान पा रहा है। कुछ मनोवैज्ञानिक वयस्क सामग्री तक पहुंच को ऐसी समस्याओं का कारण बता रहे हैं। कुछ सामाजिक बदलाव के कारण पैदा हुए अकेलपन और कुंठा को। विज्ञानविद इसे हार्मोनों के संतुलन-असंतुलन से जोड़ रहे हैं तो कुछ मन की तलछटों में दबे कारणों को तलाश रहे हैं।

बच्चों के अधिकारों के रक्षक, कानून की सहायता से सुरक्षा की दुहाई दे रहे हैं। कानून केवल एक विकल्प है, लेकिन इस माहौल में बड़ा हो रहा बच्चा जिसके जीवन और शरीर का अधिकारी भी उसके अभिभावक को माना जाता है, वह कैसे खुद को सामाजिक प्राणियों के समुदाय का सदस्य माने?

 एक अभिभावक के रूप में हम लोग, खुद को और अपने बच्चों को कैसे आश्वस्त करें कि मानवता ज़िन्दा है? कैसे अपने मन को समझाया जाए कि ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है?’

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