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मैंने बेहद करीब से जाना है कि क्यों ‘आदिवासी’ धर्म परिवर्तन कर बनते हैं ‘क्रिश्चन’

भारत देश एक तरफ जहां तरक्की की राह पर नए-नए कीर्तिमान गढ़ रहा है वहीं गरीबी, बेरोज़गारी और महंगाई जैसी समस्याएं निम्न वर्ग के लोगों की राह में बाधा बन रही है। खासकर आदिवासी बहुल्य इलाकों में गरीबी की मार झेल रहे निचले तबके के आदिवासियों के पास बदहाली में जीवन यापन करने के सिवाए कोई विकल्प नहीं है। ये वो लोग हैं जिन तक सरकारी योजनाएं पहुंचते-पहुंचते झूठ में तब्दील हो जाती है और ये निराशा के भंवर में फंसे रह जाते हैं। सरकारी योजनाओं की उदासिनता और खराब माली हालत से जूझ रहे आदिवासी तबके के लोग भारी तादात में ईसाई धर्म अपना रहे हैं। देश के आदिवासी बाहुल्य राज्य जैसे झारखंड, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में आदिवासियों को आर्थिक रूप से सहायता पहुंचाकर ईसाई धर्म अपनाने का सिलसिला  जारी है।

क्रिश्चन मिशनरी द्वारा ऐसे होता है धर्म परिवर्तन :-

मैंने संथाल परगना में क्रिश्चन मिशनरी द्वारा आदिवासियों के धर्म परिवर्तन कराए जाने की प्रक्रिया को बेहद करीब से देखा है। मैंने पाया कि क्रिश्चन संस्थाएं झारखंड के आदिवासी बाहुल्य इलाके में सक्रिय रूप से काम करती है। ये वो संस्थाएं हैं जो साल भर देश के अलग-अलग इलाकों का भ्रमण कर ईसाई धर्म की खूबियों के बारे में लोगों को बताती हैं। साल 2014 की बात है जब मैं झारखंड के आदिवासी बाहुल्य इलाके में बतौर एन्यूमरेटर आर्थिक जनगणना के लिए जाया करता था। इस दौरान मैंने देखा कि क्रिश्चन संस्थाओं के प्रतिनिधि गरीब आदिवासियों के बीच जाकर उनके कपड़े, भोजन, बच्चों की शिक्षा और बेटियों की विवाह जैसी चीजों का ज़िम्मा उठाते हैं। और इस प्रकार से आदिवासी समुदाय के लोग ईसाई धर्म अपना लेते हैं। ग्रामीण इलाकों में क्रिश्चन संस्थाओं की ऐसी पहल से आदिवासी पूरी तरह से उनके मुरीद बन जाते हैं।

शुरुआती दौर में आदिवासियों के साथ संवाद के ज़रीए कुछ शर्तें रखी जाती है जिनमें ईसाई धर्म का पालन करना और रेग्युलर चर्च जाना प्राथमिकता में शुमार होता है। मैनें देखा कि ये संस्थाएं आदिवासी बाहुल्य इलाकों में लंबे वक्त से बीमार चल रहे लोगों के लिए दवाईयों का बंदोबस्त कर उनका इलाज कराते हैं। जब ये लोग पूरी तरह से स्वस्थ हो जाते हैं तब इन्हें मंच पर बुलाकर अपना अनुभव साझा करने को कहा जाता है। और इस प्रकार से आदिवासियों का एक बड़ा तबका ईसाई धर्म में परिवर्तित हो जाता हैं।

झारखंड राज्य के संथाल परगना में ऐसे लोगों की भारी तादात है जहां आदिवासियों ने अपना धर्म परिवर्तन कर ईसाई धर्म को अपनाया है। इसी कड़ी में हमने दुमका ज़िले के भुटकांदर गांव की मकलु बासकी से बात की जिन्होंने क्रिश्चन मिशनरी के कार्यों से प्रभावित होकर ईसाई धर्म अपनाया है। वे बताती हैं कि एक वक्त था जब हम आर्थिक तंगी से गुज़र रहे थे और हमारी सुनने वाला कोई नहीं था। ईसाई धर्म परिवर्तन को मैं एक अच्छी जीवनशैली के तौर पर देखती हूं। यहां आकर मैं ज़िंदगी को नए नज़रिए देख पाई। इन चीज़ों को धर्म परिवर्तन के तौर से नहीं देखा जाना चाहिए, आज मैं खुश हूं कि परमेश्वर को मैं बेहद करीब से जान पाई हूं।

सरकार की योजनाओं में चूक:-

आदिवासी समुदाय में एक बड़ा तबका ऐसा है जो सरकारी योजनाओं से आज भी कोसों दूर है। इनका शिक्षित न होना इसकी बड़ी वजह मानी जाती है। अशिक्षित होने की वजह से इन्हें योजनाओं के बारे में पता नहीं लगता और यदि इन्हें जानकारी मिल भी जाती है तो प्रखंड कार्यालय के चक्कर काटते-काटते इनके जूते घिस जाते हैं। ऐसे में क्रिश्चन संस्थाएं सरकारी योजनाओं की विफलता का बखान कर इन्हें ईसाई धर्म की खूबियों से अवगत कराते हैं। खराब माली हालत से जूझ रहे गरीब आदिवासियों को ऐसा लगता है कि ईसाई धर्म अपनाने से न सिर्फ उन्हें आर्थिक सहायता प्राप्त होगी बल्कि आत्मनिर्भर बनने के तमाम गुण भी सिखाए जाते हैं।

पुराना है धर्मांतरण का इतिहास :-

भारत देश में ईसाईयों के इतिहास की बात की जाए तो दो शख्स की भूमिका बड़ी अहम रही है। पहले फ्रांसिस ज़ेवियर (7 अप्रैल 1506 – 3 दिसंबर 1552) और दूसरे रोबर्ट दी नोबिली (1606)। पुर्तगालियों के भारत आने और गोवा में रह जाने के बाद से ईसाई पादरियों ने भारतीयों का जबरन धर्म परिवर्तन कराना शुरू कर दिया। हालांकि शुरूआती दौर में ज़ेवियर को कोई विशेष सफलता हाथ नहीं लगी। उन्होंने पाया कि धर्म परिवर्तन में ब्राह्मण सबसे बड़े बाधक बन रहे हैं। उन्होंने इस समस्या के समाधान हेतु ईसाई शासन की सहायता ली। वाइसराय द्वारा यह आदेश लागू किया गया कि सभी ब्राह्मण को पुर्तगाली शासन सीमा से बाहर कर दिया जाए। इसके तहत गोवा में किसी भी नए मंदिर निर्माण एवं पुराने मंदिर की मरम्मत करने की इजाज़त नहीं थी। जब इस आदेश का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा तब अलग आदेश लागू किया गया कि जो भी हिन्दू ईसाई शासन की राह में बाधा बनेगा उनकी संपत्ती ज़ब्त कर ली जाएगी।

इससे भी सफलता न मिलने पर अब और भी कठोर कानून लागू किया गया कि राज्य के सभी हिन्दुओं को या तो ईसाई धर्म अपनाना होगा या फिर देश छोड़ देना होगा। इस आदेश के खौफ से हजारों हिन्दू ईसाई बन गए।

दक्षिण भारत में सन् 1906 में रोबर्ट दी नोबिली का आगमन हुआ। उन्होंने देखा कि यहां पर हिन्दुओं को धर्मांतरण कराना लगभग असंभव कार्य है। उसने पाया कि हिन्दू समाज में खास तौर पर ब्राह्मणों की बड़ी प्रतिष्ठा है। ऐसे में उसने चालाकी करने की ठान ली और धोती पहन कर एक ब्राह्मण का वेश धारण कर लिया। पूरे दक्षिण भारत में यह खबर फैल गई कि वह रोम से आया एक ब्राह्मण है। ब्राह्मण वेश धारण कर नोबिली ने सत्संग करना आरम्भ कर दिया। घीरे-धीरे उन्होंने सत्संग सभाओं में ईसाई प्रार्थनाओं को शामिल करना शुरू कर दिया।

धर्मांतरण विधेयक 2017
उल्लेखनीय है कि झारखंड धर्मांतरण विधेयक 2017 को कैबिनेट की मंज़ूरी प्राप्त हो चुकी है। अब सरकार को इस बिल को विधानसभा में पेश करना है। इसके तहत किसी भी व्यक्ति को किसी संस्था या लोगों द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन कराने पर 3 वर्ष तक कारावास और 50 हजार रूपये के जुर्माने का प्रावधान है। यदि यह अपराध महिला, नाबालिग, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति के खिलाफ किया गया है तो चार वर्षों तक कारावास के साथ 1 लाख रूपये जुर्माना देना होगा।

आलोचकों की माने तो धर्मांतरण विधेयक के आने से जबरन धर्म परिवर्तन कराने वाले लोगों पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ेगा। इस विधेयक के दूसरे पहलू के मुताबिक यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन करता है तो ऐसे में उसे उपायुक्त को इसकी सूचना देनी होगी। उपायुक्त को ये बात बतानी होगी कि उसने कहां और किस समारोह में धर्म परिवर्तन किया है। यह सूचना सरकार को नहीं देने पर कड़ी कार्रवाई के भी निर्देश हैं। आलोचकों के मुताबिक क्रिश्चन संस्थाएं पहले तो आदिवासियों को तमाम तरह की सहायता पहुंचाकर धर्म परिवर्तन कराएगी और फिर ये निर्देश देगी कि इसकी सूचना ज़िला प्रशासन को दे दी जाए। ऐसे में झारखंड धर्मांतरण विधेयक कारगर साबित होती नहीं दिखाई पड़ रही है।

प्रिंस, Youth Ki Awaaz Hindi सितंबर-अक्टूबर, 2017 ट्रेनिंग प्रोग्राम का हिस्सा हैं।

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