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प्राइवेट होते ही कैसे सफल हो जाएंगे राजस्थान के ‘असफल सरकारी स्कूल’

राजस्थान की सरकार ने विद्यालयी शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए पी.पी.पी. (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) का रास्ता चुना है। सरकार का मानना है कि इस मॉडल से ‘नाॅन-परफाॅर्मिंग’ विद्यालयों में पढ़ने-पढ़ाने की संस्कृति में सुधार किया जा सकता है। नाॅन-परफाॅर्मिंग विद्यालय से सरकार का क्या मतलब है, इसे तीन चीज़ों से समझा जा सकता है। पहला, जिनके परीक्षा परिणाम खराब हैं। दूसरा, इनमें से अधिकांश ग्रामीण इलाकों में हैं। तीसरा, ये सभी विद्यालय सरकार द्वारा संचालित है।

इस तरह से यह योजना निजी विद्यालयों की गुणवत्ता* को पूरी तरह से क्लीन चिट देती है और समस्याग्रस्त विद्यालयों की मौजूदगी को दूर-दराज के क्षेत्रों में स्वीकारती है, जहां सरकारी विद्यालय ही समाज के वंचित वर्ग के लिए औपचारिक शिक्षा का एकमात्र माध्यम है।

फोटो प्रतीकात्मक है; फोटो आभार: getty images

यह भी उल्लेखनीय है कि कुछ महीने पहले केन्द्र सरकार ने भी इसी तरह कुछ विश्वविद्यालयों को नाॅन-परफाॅरर्मिंग घोषित कर दिया था। जान पड़ता है कि सरकारें आजकल ‘परफारर्मेंंस’ को लेकर काफी संजीदा हैं। लेकिन इस संजीदगी में झोल यह है कि ‘परफारर्मेंंस’ को वो सज़ा देकर सुधारना चाहती हैं। जैसे विश्वविद्यालयों के संदर्भ में अनुदान आदि की कटौती या जो नाॅन-परफाॅरर्मिंग है उससे पल्ला झाड़ लेने की नीति अपना रही है। राजस्थान में इन नाॅन-परफाॅरर्मिंग विद्यालयों को निजी हाथों में सौंपने का फैसला कुछ इसी तरह का कदम लगता है। इस तरह की योजनाओं में नवउदारवाद* के लक्षण पूरी तरह से हावी हैं। यहां कुछ बातें हैं जिनसे इस तरह की सरकारी सोच को समझा जा सकता है-

1)- सरकार निजी क्षेत्र को एक भरोसेमंद साझेदार मान रही है, जिसका राज्य के उद्देश्यों से कोई भेद नहीं है।

2)- सरकार का बाज़ार पर भरोसा है कि बाज़ार की प्रक्रियाएं और प्रकृति, उत्पाद* (जो कि यहां शिक्षा है) की गुणवत्ता, प्रबंधन* और प्रदर्शन को बनाए रखेगी।

3)- लोक वस्तुओं* और सार्वजनिक सेवाओं पर सरकार के द्वारा किए जा रहे व्यय में कटौती होगी जिससे सरकार का वित्तीय बोझ कम होगा।

4)- सरकार के पास कानून के द्वारा नियंत्रण करने का अधिकार है, जिससे निजी क्षेत्र अनाधिकार* की चेष्टा* नहीं कर सकते हैं।

अब सवाल है कि शिक्षा जैसी अतिआवश्यक लोकवस्तु के संदर्भ में यह माॅडल कितना कारगर होगा?

सरकार द्वारा प्रस्तुत पी.पी.पी. मसौदे के अनुसार निजी क्षेत्र से जो भागीदार इन सरकारी विद्यालयों के उद्धार का जिम्मा उठाना चाहते हैं, वे सरकार को 75 लाख रूपए प्रति विद्यालय का भुगतान करेंगे। सरकार 16 लाख रूपए प्रतिवर्ष की दर से 7 साल में इस राशी को प्राप्त करेगी। इस धन का प्रयोग आधारभूत संसाधनों* के विकास हेतु किया जाएगा। इस तरह से सरकार पर आर्थिक बोझ कम पड़ेगा।

इस गुलाबी तर्क के बरक्स पहला सवाल यह है कि एक विद्यालय के संचालन के लिए इतनी बड़ी धनराशि का भुगतान कौन करेगा? अधिकांश गैर लाभकारी संगठन किसी औद्योगिक घराने की तरह ना तो आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ हैं, ना ही वे बैंक या किसी अन्य माध्यम से उधार लेकर इतना बड़ा जोखिम उठाना चाहेंगे। स्वाभाविक है कि जो निजी निवेशक* इस निवेश के लिए आकर्षित होगें वे बड़े औद्योगिक घराने होंगे। किसी बड़े लाभ के अभाव में वे इतना बड़ा निवेश क्यों करेंगे, जबकि ऐसा करने के बावजूद विद्यालय का मालिकाना हक सरकार के पास ही होगा?

मान लीजिए वे परोपकार (फिलान्थ्रोपी) के नाम पर जोखिम उठा भी लेते हैं तो इस तरह के प्रबंधन द्वारा विद्यालय के संचालन में ना दिखने वाले प्रभावों और संदेशों को संज्ञान में लेने की ज़रूरत है। इस माॅडल में जब विद्यार्थी हमेशा इन पूंजीपतियों का महिमामंडन* देखेगा तो इसका अर्थ होगा कि उद्योग ही तरक्की का एकमात्र विकल्प हैं। चूंकि अधिकांश विद्यालय ग्रामीण अंचलों में हैं तो उद्योग के विकास की कीमत कृषि और भूमि जैसे अन्य संसाधनों द्वारा चुकाने के लिए भी वे मानसिक रूप से तैयार हो जाएगें।

अब संसाधन और सीखने के संबंध को केन्द्र में रखकर समस्या का विश्लेषण कीजिए। वित्त के अभाव में विद्यालय को निजी हाथों में सौंपना यह स्थापित करेगा कि नवाचार कीमती प्रयोग होते हैं, जिसके लिए वित्त की उपलब्धता सार्वजनिक निकायों के पास नहीं हैं। चूंकि पी.पी.पी. माॅडल में विद्यालय बिजनस का हिस्सा होंगे जिसे अप्रत्यक्ष रूप से सरकार खरीद रही होगी। अतः लाभ के साधारण फाॅर्मूले के अनुसार विद्यालय प्रबंधन लागतों को कम करने की कोशिश करेगा, लेकिन क्रेता के सम्मुख उसे अधिक बनाकर पेश करेंगे। यहां से वह श्रमशक्ति तैयार होगी जो बाज़ार के नियमों को मानव मूल्यों पर श्रेष्ठ समझेगी।

इन विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे कम से कम 12 वर्ष में इतना तो सीख ही जाएगें कि कार्य का आंकलन और तुरंत दुष्परिणाम से बचने का भाव ही काम की अभिप्रेरणा है और वही काम महत्वपूर्ण है जिसका बाजार में मूल्य होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि मानव पूंजी तो तैयार कर ली जाएगी, लेकिन क्या मानव मन तैयार हो पाएगा?

सरकार- विद्यालयी शिक्षा की गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिए विद्यालयों पर किसका मालिकाना हक है? कौन वित्त दे रहा है? कौन प्रबंध कर रहा है? जैसे सवालों के उत्तर खोज रही है, जबकि किसे, क्या, कौन और कैसे पढ़ा रहा है? जैसे औचित्यपूर्ण सवाल नहीं पूछे जा रहे हैं। वास्तव में ये प्रक्रियागत सवाल ही शिक्षा की गुणवत्ता का निर्धारण करते हैं। सरकार ‘बच्चे पढ़ते नहीं’, ‘शिक्षक आते नहीं’, ‘यदि आते हैं तो पढ़ाते नहीं’ जैसे आधारहीन तर्कों के सहारे पी.पी.पी. माॅडल को रामबाण इलाज मान रही है। आखिर निजी क्षेत्र ऐसा क्या करेगा कि बच्चे पढ़ने के लिए प्रेरित हो जाएं या शिक्षक आएं और पढ़ाएं?

यह तो एक ही दशा में संभव है ‘भय बिन होए न प्रीति।’ अब बस एक व्यवस्था बाकी है कि विद्यालयों में भी ‘एचआर’ की नियुक्ति हो जो ‘एम्प्लायी आॅफ द मंथ’ को चुने और ‘इन्सेंटिव’ व ‘फायर’ आदि के लिए आवश्यक निगरानी करे। इसके विपरीत शिक्षा का अधिकार कानून. विद्यालय प्रबंधन का एक लोकतांत्रिक माॅडल सुझाता है जो है- ‘विद्यालय प्रबंध समिति द्वारा विद्यालय का प्रबंधन।’

दिल्ली के सरकारी विद्यालयों के प्रबंधन में इस माॅडल की सफलता आजकल सुर्खियां बटोर रही है। इसी तरह राजनीतिक इच्छाशक्ति और नीतियों के व्यवस्थित निष्पादन* का एक अन्य उदाहरण रवाण्डा जैसे छोटे अफ्रीकी देश से आता है, जहां सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता के कारण निजी विद्यालय बंद होने के कगार पर आ चुके हैं। अपने यहां भी कुछ अन्य पहलें हुयी हैं। जैसे कि उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के अधिकारियों को आदेश दिया था कि वे अपने पाल्यों का प्रवेश ‘पड़ोस के सरकारी विद्यालय’ में कराएं।

कुछ इसी तरह उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को आदेश दिया था कि जब तक राज्य के प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय में शिक्षण के न्यूनतम संसाधनों का बंदोबस्त नहीं हो जाता, राज्य सरकार द्वारा लोकवित्त के प्रयोग से किसी भी तरह आरामदायक वस्तु (लक्ज़री गुड) ना खरीदी जाए। ज़ाहिर सि बात है कि शिक्षा जैसी लोकवस्तु की सेवा आम जनता को उपलब्ध हो, यह सुनिश्चित करना सरकार का दायित्व है।

‘असफल विद्यालय’ का तर्क देकर सरकार अपने दायित्व से पीछा छुड़ा रही है। विद्यालयों की स्वायत्तता* के झुनझुने को निजी हाथों में सौंपने से पहले अपनी विरासत को याद कीजिए जहां राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एक आत्मनिर्भर और स्वायत्त विद्यालय की परिकल्पना करते हैं। जिसका प्रबंधन स्थानीय समुदाय द्वारा किया जाता है और जो पाठ्यचर्या और शिक्षण पद्धति के स्थानीयकरण से हाथ, हृदय और मस्तिष्क के संयोजन पर बल देता है वह भी ‘वैज्ञानिक ज्ञान’ से समझौता किए बिना।


1- गुणवत्ता- Quality  2- नवउदारवाद- Neoliberalism  3- उत्पाद- Product  4- प्रबंधन- Management
5- लोक वस्तुओं- Public Goods 6- अनाधिकार- Unauthorized  7- चेष्टा- Attempt  8- संसाधनों- Resources
9- निवेशक- Investors  10- महिमामंडन- Glorification  11- निष्पादन- Implementation  12- स्वायत्तता- Autonomy

फोटो आभार: flickr 

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