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जाति छिपाने पर आहत होने वाले लोग, सोचो इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी

संविधान सभा को संबोधित करते हुए भीमराव अंबेडकर ने कहा कि ” हम 26 जनवरी 1950 को अंतर्विरोधों से भरे एक ऐसे जीवन में प्रवेश करेंगे, जहां हमारे पास राजनीतिक समानता तो होगी लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता होगी। राजनीति में हम ‘एक व्यक्ति एक वोट’ और ‘एक व्यक्ति एक मूल्य’ के सिद्धांत को स्वीकृति देंगे लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन की संरचना की वजह से हम एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत से लगातार इनकार करते रहेंगे।”

आखिर कब तक हमें इस अंतर्विरोधों से भरे जीवन को जीना होगा। भीमराव अंबेडकर का यह सवाल आज भी जस का तस बना हुआ है।
पुणे में भारतीय मौसम विभाग में वैज्ञानिक डॉ. मेधा विनायक ने उनके घर में खाना बनाने वाली 60 वर्षीय निर्मला यादव पर धोखाधड़ी और धार्मिक भावना को आहत करने का केस दर्ज किया है।

निर्मला यादव

मेधा का कहना है उन्हें अपने घर में गौरी गणपति और श्राद्ध का भोजन बनाने के लिए हर साल ब्राह्मण और सुहागिन महिला की ज़रूरत होती है। (मीडिया रिपोट्स के मुताबिक निर्मला यादव ने जाति छिपाने के आरोप से इनकार किया है।)

निर्मला ना तो सुहागिन हैं और ना ही ब्राह्मण लेकिन मेधा विनायक एक वैज्ञानिक हैं जिनकी धार्मिक भावना आहत हो गई। ये माना कि झूठ बोलना गलत है, धोखे में रखकर अपनी जात छिपाना गलत है लेकिन इसकी नौबत क्यूं आती है? क्यूं किसी को अाज भी अपनी जात को छिपाना पड़ जाता है। कौन सा विज्ञान या धर्म ये कहता है कि गैर ब्राह्मण विधवा महिला गौरी गणपति और श्राद्ध का भोजन नहीं बना सकती। संसार का कोई धर्म मानवीय मूल्य से बढ़कर नहीं हो सकता। हम कब तक ब्राह्मणवाद और मनुवाद को ढोते रहेंगे। अगर किसी की पैदाइश ही उसकी महानता का परिचायक होती तो अम्बेडकर कभी संविधान निर्माता नहीं होते। हम कब जन्म आधारित महान होने के बजाए कर्म आधारित सामाजिक व्यवस्था की पहल करेंगे?

समाज में जाति व्यवस्था हर स्तर पर दिखाई देती है इसकी सबसे बड़ी पोषक तो मेट्रीमोनियल साइट है लेकिन जब एक ‘वैज्ञानिक’ महिला की धार्मिक भावना गैर ब्राह्मण विधवा महिला के भोजन बनाने से आहत हो जाती है तो ऐसा लगता है सामाजिक न्याय ( social justice) को स्थापित करने में अभी हमें बहुत लंबी लड़ाई लड़नी है। वैज्ञानिक का काम तर्क और ज्ञान के आधार पर सृजन करना है, लेकिन गैर ब्राह्मण विधवा महिला गौरी गणपति और श्राद्ध का भोजन ना बनाए इसमें कौन सा तर्क। ऐसी धार्मिक भावना ही हमें अंधविश्वासी बना देती है। हमारी कोई भी आस्था अगर मानवीय मूल्य से बड़ी हो तो पूरी श्रद्धा से उसका श्राद्ध कर उसे तिलांजलि दे देनी चाहिए।

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