कहा जाता है कि JNU जो आज सोचता है देश वह 10 साल बाद सोचता है। उसी JNU में कुछ ही दिनों में चुनाव होने वाले हैं। कुछ लोग इसे मात्र कन्हैया प्रकरण के कारण ही जानते हैं लेकिन विचारों के खोजी इसे JNU आइलैंड भी कहते हैं जहां विचारधाराओं के समंदर में गोते खाता इंसान शरण लेता है और फिर वहीं का होकर रह जाता है।
हालांकि, चुनावी वादे यहां भी राष्ट्रीय राजनीति की तरह कम ही बदलते हैं लेकिन इतने सूक्ष्म होते हैं जिन पर ध्यान खींचने के लिए बेहद पैनी निगाह चाहिए। पिछले साल बजट के बाद शिक्षण संस्थानों के फंड कट की खबरों को मुख्यधारा में लाने के लिए JNU की राजनीति को विशेष धन्यवाद दिया जाना चाहिए।
खैर अगर विश्वविद्यालय के मुद्दों पर बात करें तो मेस के खाने की गुणवत्ता, लैंगिक समानता की लड़ाई, सामाजिक न्याय का वादा और पिछड़े तबके के विद्यार्थियों को भेदभाव से मुक्ति दिलाना आदि हमेशा से बहस के मुद्दे रहे हैं, लेकिन विशुद्ध रूप से विश्वविद्यालय के मुद्दों की बात की जाए तो-
खटमल की समस्या, वाइवा के अंकों का तर्कहीन वितरण, छात्र सुरक्षा और शिक्षण संस्थानों पर सरकारी आक्रमण के खिलाफ मुहिम छेड़ना आदि है। इन सभी मुद्दों को सभी दलों ने अपनी अपनी विचारधारा और प्राथमिकताओं के हिसाब से आगे पीछे कर लिया है।
अगर देखा जाए तो पार्टियों का सूरत-ए-हाल पिछली बार से कुछ ज़्यादा भिन्न नहीं है। राइट विंग छात्र संगठन के खिलाफ लेफ्ट संगठनों की घेराबंदी एकदम नया प्रयोग है जो पिछले कुछ सालों से कैंपस में दिख रहा है। पिछली बार ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन(AISA) और स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया(SFI) ने मिलकर ABVP के खिलाफ चुनाव लड़ें और जीत भी गएं। एक बार फिर उसी की पुनरावृत्ति करते हुए इन दोनो संगठनों ने डेमोक्रेटिक स्टूडेंट फेडरेशन(DSF) को भी अपने साथ ले लिया है।
इस बात में कोई शंका नहीं है कि लेफ्ट यूनिटी एक बार फिर कैंपस में चुनाव जीत सकती है, लेकिन एक पक्ष जिसकी तरफ समूचे वाम दलों का ध्यान नहीं जाता वह यह कि इन संगठनों का वोट प्रतिशत पिछले सालों में निरंतर घटता रहा है।जिसके चलते सूक्ष्म वैचारिक आधार पर एक दूसरे से भिन्न दलों ने कई मुद्दों को दरकिनार करते हुए ‘ब्राह्मणवाद’ के खिलाफ लड़ाई में एकजुट होने का नारा दिया और बहुत नाज़ुक स्थितियों से चुनाव जीतकर खुद को भी हैरान किया।लेकिन वाम दलों का वोट बैंक घटने और धुर दक्षिणपंथ का प्रभाव बढ़ने के कई कारण भी हैं।
पिछड़ी जातियों से आने वाले छात्रों के दाखिले के मुद्दे पर भी अम्बेडकरवादी बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट्स असोसिएशन (BAPSA) ने घेराबंदी शुरू कर दी है और पिछले बरस की कसर इस साल पूरी करना चाहती है। कुछ वोटों के अंतर से हारे BAPSA के उम्मीदवार इस साल जीत का खाता ज़रूर खोलना चाहेंगे। अगर गौर किया जाए तो 2014 में BAPSA ने अपने गठन के बाद से ही काफी वोट प्रतिशत हासिल किया है लेकिन उसे फिनिशिंग टच नहीं दे पाई। पिछले साल लड़ाई बहुत करीबी रही लेकिन यूनाइटेड लेफ्ट बाज़ी मार गया। इस साल परिस्थितियां भिन्न है, उम्मीदवार मज़बूत हैं कमी है तो बस माहौल कि जो देशव्यापी परिस्थितियों की वजह से शांत है फिर चाहे वह नोटबन्दी की असफलता हो, गोरखपुर त्रासदी हो, ट्रेन डिरेल हादसा हो या मॉब लिंचिंग की बढ़ती घटनाएं हो। लेकिन इन सभी मुद्दों पर भी बात होगी और उस हद तक सवाल पूछे जाएंगे जब तक सामने वाला। अनुत्तरित न हो जाये।
JNU में दक्षिणपंथ का आज जैसा प्रभाव इससे पहले वाजपेयी की सरकार के वक़्त था जब उनका छात्र संगठन सीट निकालने में भी कामयाब हुआ था। लेकिन उसके बाद से ही वाम राजनीति ने उन्हें इस किले को फतह करने का कोई अवसर नहीं दिया है।
अगर वर्तमान स्थिति पर गौर किया जाए तो लेफ्ट दलों को भी ब्राम्हणवादी करार देकर दलित और यूनाइटेड ओबीसी छात्रों ने 2014 में BAPSA की स्थापना की जिसके बाद से लेफ्ट को रुक-रुक कर सांसें आना शुरू हो गई। राजनीति से तटस्थ रहने वाले छात्रों को भी रह रह कर राष्ट्रवाद के दौरे पड़ने लगे जिसके बाद से ही ABVP, BAPSA और यूनाइटेड लेफ्ट में त्रिकोणीय संघर्ष शुरू हो गया जो JNU के शुरुआती दिनों से केवल वाम बनाम दक्षिणपंथ रहा था।
गैर स्वर्ण छात्र बमुश्किल ही कभी ABVP का हिस्सा रहें इसलिए अगर गौर किया जाए तो BAPSA का पूरा वोट बैंक लेफ्ट से हमदर्दी रखने वालों छात्रों का है जो केवल जातिगत और अकादमिक शोषणवश उनका हिस्सा थे।
चूंकि अब अम्बेडकरवादी BAPSA ब्राम्हणवाद के खिलाफ झंडा ऊंचा किये हुए हैं इसलिए ABVP और उनका वोट बैंक भिन्न है लेकिन बहुत सूक्ष्म बिंदुओं पर बंटा लेफ्ट हार को निमंत्रण दे रहा था। एक बार फिर लेफ्ट यूनाइट हुआ है और हो सकता है जीत भी जाए लेकिन कालांतर में इसके नुकसान उन्हें झेलने ही पड़ेंगे। जैसे कि उनका गिरता वोट शेयर। आने वाले साल निश्चित ही कड़ी परीक्षा के है। स्टूडेंट्स का इस कदर स्पष्ट विभाजन दक्षिणपंथ के उदय का सूचक है और इनसबके बीच अम्बेडकरवादी विचारधारा के लोग नियंत्रक की भूमिका में होंगे।
अजय Youth Ki Awaaz Hindi के ट्रेनी हैं और सितंबर-अक्टूबर, 2017 ट्रेनिंग प्रोग्राम का हिस्सा हैं।