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फोटो स्टोरी: उन रोहिंग्या मुसलमानों की कहानी जिनके लिए म्यांमार अब जहन्नुम से भी बुरा है

शाम के पांच बजे हैं और सूरज ढलने को है। नुक्कड़ पर कुछ सफेद कुर्ते और टोपी में चाय पी रहे लोगों से हमने पूछा- म्यांमार से विस्थापित रोहिंग्या समुदाय के लोग इधर ही रहते हैं?

उन्होंने जवाब में पूछा– बर्मा वाले?

हमने कहा – हां

ठीक सामने चले जाइये…और फिर हम उन पगडंडियों से होते हुए कालिंदी कुंज की उस बस्ती में पहुंचे जहां असम से लेकर बिहार, हिंदू से लेकर मुसलमान और भारतीय, बांग्लादेशी से लेकर बर्मा तक के लोग एक ‘छोटे, गरीब, पिछड़े, मगर संतुष्ट और उदार भारत’ का उदाहरण पेश कर रहे थे।

फोटो: प्रेरणा शर्मा

मैं भारतीय रोहिंग्या – रोशिदा हातू

हाथों में हरी चूड़ियां पहने छोटी सी एक बच्ची कुर्सी पर बैठे, अपनी अम्मी की तरफ देख मुस्कुरा रही है। बस्ती की पहली ही झोपड़ी एक रोहिंग्या परिवार की है। कभी पक्के मकान में रहने वाला सैयद नूर का परिवार आज फूस की झोपड़ी में रहने को मजबूर है। पुराने दिनों को याद करते हुए नूर बताते हैं- “हम चार साल पहले भारत आए थे, तब हमारे देश में सांप्रदायिक हिंसा चरम पर थी। लोगों के घर, ज़मीन लूटे जा रहे थे, महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहे थे, सेना के लोग मासूमों को गोलियों से भून रहे थे। इसी दौरान हमारी भी ज़मीन छीन ली गई, घर के लोगों का कत्ल हो गया। उसके बाद मैं और मेरी पत्नी बांग्लादेश के रास्ते भारत आ गए।

सैयद नूर के परिवार की सबसे छोटी सदस्य रोशीदा हातू; फोटो: प्रेरणा शर्मा

आज नूर के परिवार में कुल तीन लोग हैं। सबसे छोटी है रोशिदा, रोशिदा का जन्म कालिंदी कुंज ब्रिज के नज़दीक एक सरकारी अस्पताल में ही हुआ है, यानि मूल रूप से रोशिदा भारतीय है।

भारत सरकार द्वारा रोहिंग्या विस्थापितों पर कड़े रुख अपनाए जाने की बात पर प्रतिक्रिया देते हुए नूर कहते हैं “अगर इस स्थिती में ये देश भी हमें बाहर का रास्ता दिखाएगा तो हम कहां जाएंगे? स्थिती सामान्य हो जाए तो हम खुद यहां से चले जाएंगे मगर इसका आश्वासन हमें कौन देगा? वर्तमान के हालात कैसे हैं ये आप बखूबी जानते हैं।”

(2012 से, म्यांमार में बौद्धों एवं रोहिंग्या मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक हिंसा जारी है। इस समुदाय के लोगों के खिलाफ हुई हिंसा पर संयुक्त राष्ट्र ने चिंता जताते हुए कहा है कि ये ‘दुनिया के सबसे प्रताड़ित लोगों में से हैं।’)

फोटो: प्रेरणा शर्मा

सरकार की तरफ से नहीं, खुद की मर्ज़ी से इस बस्ती में आता है ये डॉक्टर

फोटो: प्रेरणा शर्मा

बस्ती के बीच में टेंट के भीतर कुर्सी-टेबल पर दवाइयों का डब्बा लिए और बेहद कम संसाधनों में अपना काम करते दिखे डॉ. एन.एस. बच्छिल। हांलाकि बच्छिल जैसे और भी कई डॉक्टर आपको इस बस्ती में मिल जाएंगे जो खुद की मर्ज़ी से नि:शुल्क इन विस्थापितों का इलाज़ करते हैं।

फोटो: प्रेरणा शर्मा

बस्ती का वो स्कूल जहां भारतीय झंडे के तले पढ़ते हैं दूसरे देश के भी बच्चे

स्कूल के ठीक सामने एक पतली सी गली है, टेंट और झोपड़ियों से घिरी इस गली के पहले घर में हम घुसे। सामने पलंग पर एक गर्भवती महिला बैठी हैं। हिंदी बोलने में सहज नहीं हो पाने के कारण वह अपनी बेटी शायना को बुलाती हैं। शायना लगभग 8-9 साल की होगी। फर्राटेदार हिंदी तो उसे भी नहीं आती, मगर एक महीने में ही उसने काम चलाने लायक हिंदी समझना और बोलना सीख लिया है। शायना का परिवार अभी हाल ही में बर्मा से भारत आया है। हमने सवाल करना शुरू किया और शायना ने उसे अपनी अम्मी को समझाना।

फोटो: प्रेरणा शर्मा

उनकी दो मिनट की खामोशी के बाद लगा मानो शायना की अम्मी वो बीता हुआ कल याद ना करना चाह रही हों। मगर फिर थोड़ी ही देर में उन्होंने बोलना शुरू किया और शायना ने हमें समझाना-

“हमारी आंखों के सामने ज़िंदा बच्चों को आग में झोंक दिया गया। वो दरवाज़े तोड़कर घर में घुस जाते और कितनी ही औरतों को उठा कर ले जाते। वो जगह अभी जहन्नुम से भी बुरी जगह है हमारे लिए। उस मंज़र को यादकर अब भी रूह सिहर जाती है। आखिर हमारा क्या दोष था? कुल चार दिन मेरे बच्चे और हम भूखे रहे थे, पीने को पानी भी मुश्किल से नसीब होता। रास्ते भर बस ये डर सता रहा होता कि कोई हमारे पीछे ना लगा हो। अब यहां पहुंच कर बहुत सुकून है। यहां के लोग और इस देश के लिए दिल में बहुत इज्ज़त है। मगर अब यहां की सरकार भी हमें वापस भेजना चाहती है।”

क्या हो जब आपकी सुरक्षा में तैनात आपके देश का सैनिक कल आपको ही अपनी बंदूक से भूनने के लिए खड़ा हो जाए? क्या हो जब आपके बच्चे को आपकी आंखों के सामने आग में झोंक दिया जाए? क्या हो जब सैनिकों का एक दस्ता आपकी बहू-बीवी,बेटियों को आपके आंखों के सामने से उठाकर चला जाए और आप बस एक बेबस मूर्ति की तरह ये सब होता देखें? क्या हो जब लाखों लाशें ज़मीन पर बिछी हो और इन सब के पीछे आपकी ही सरकार का हाथ हो? ये सवाल ही रूह में सिहरन पैदा करते हैं। वो मंज़र वाकई काफी भयावह रहा होगा…

बीते 25 अगस्त को म्यांमार सरकार द्वारा घोषित रोहिंग्या आतंकवादी संगठन (आरसा) ने 30 पुलिस चौकियों और सेना के अड्डों पर हमला किया था, जिसमें बड़ी संख्या में लोग मारे गए। इसके बाद सुरक्षा बलों ने बड़े पैमाने पर ऑपरेशन शुरू किया। इस बीच म्यामांर के सैनिकों पर मानवाधिकारों के उल्लंघन, प्रताड़ना, बलात्कार और हत्या के आरोप लगे। हालांकि सरकार ने इसे सिरे से खारिज कर दिया और इसे नैतिक सफाई का नाम दिया। जबकि म्यांमार में सक्रिय रोहिंग्या उग्रवादियों ने अपने बचाव में कहा है कि वैश्विक आतंकवादी समूहों के साथ उनका किसी तरह का कोई संबंध नहीं है। ‘अराकान रोहिंग्या सालवेशन आर्मी (आरसा)’ रोहिंग्या लोगों की रक्षा करने का प्रयास कर रही है।

फोटो: प्रेरणा शर्मा

म्यांमार एक बौद्ध धर्म बहुल देश है। कुल 51,486,253 की आबादी (2014 जनगणना रिपोर्ट के अनुसार) वाले इस देश में रोहिंग्या मुसलमानों की अनुमानित संख्या 10 लाख है। ज़्यादातर रोहिंग्या समुदाय के लोग देश के तटीय राज्य रखाइन के उत्तरी हिस्से में रहते हैं, जिसकी सीमा बांग्लादेश से लगती है। म्यांमार की सरकार उन्हें बांग्लादेश के ‘अवैध प्रवासी’ मानती है, वे नागरिकता के अधिकारों से भी वंचित हैं। म्यांमार की नागरिकता के प्रावधान के अनुसार उन्हीं रोहिंग्या मुसलमानों को नागरिकता दी जाती है, जिनके बड़े-बुजुर्ग 1823 ई0 के पहले आ कर वहां बसे थे।

यूएनएचसीआर (यू एन रेफ़्यूजी एजेंसी) की एक रिपोर्ट के अनुसार 2012 के बाद से लगभग 168,000 से ज़्यादा रोहिंग्या समुदाय के लोगों ने म्यांमार से विस्थापन किया है। गौरतलब है कि वर्तमान समय में करीब चालीस हज़ार रोहिंग्या मुसलमान भारत के दिल्ली, जम्मू, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, हैदराबाद और राजस्थान जैसे राज्यों में रह रहे हैं।

भारत सरकार रोहिंग्या समुदाय को देश की सुरक्षा के लिए खतरा मानती है। शरणार्थियों को वापस म्यांमार भेजने के सिलसिले में हाल ही केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है। म्यांमार की नेता और नोबल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की ने भी संयुक्त राष्ट्र और एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे मानवाधिकार संगठन के दवाब पड़ने पर आखिरकार अपनी चुप्पी तोड़ी और रोहिंग्या समुदाय के खिलाफ हुई हिंसा की निंदा की। साथ ही उन्होंने यह भी आश्वासन दिया है कि वो पलायित देशवासियों की वापसी के लिए तैयार हैं। लेकिन कई मानवाधिकार संगठनों ने उनके इस बयान को खारिज कर दिया है।

इस बयानबाज़ी के खेल में केवल एक ही वर्ग प्रताड़ित हो रहा है और वो हैं– सैयद नूर, शायना और रोशिदा जैसे मासूम। जो हर रोज़ यही सोचकर सोते हैं कि काश! जब अगली सुबह नींद खुले तो हम बतौर नागरिक अपने देश, अपनी ज़मीन, अपने घर और अपने लोगों के बीच हों और इस देश को उसकी उदारता और प्यार के लिए ज़िंदगी भर दुआएं दें।

फोटो: एश्वर्या अवस्थी

(कालिंदी कुंज में वर्तमान समय में 80 रोहिंग्या परिवार रहते हैं। अमूमन इन सबकी इच्छा यही है कि स्थिती सामान्य होने पर वह अपने देश लौट सकें।)

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