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BHU में लड़कियां संघर्ष करती रहीं, आप 56 इंच लिए रास्ता बदल गए

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश के विश्वविद्यालयों में जो हालात बनते जा रहे हैं उसे देख कर कोई भी आने वाले दिनों में इन विश्वविद्यालयों के बदहाली के बारे में भविष्यवाणी कर सकता है। या फिर यूं कहें की इस दौर में कोई भी ज्योतिष विद्या का ज्ञानी हो सकता है।

आजकल विश्वविद्यालय के कुलपतियों की रूची कलम किताबों से ज़्यादा तोप टैंक, गोली बारूद व लाठियों में हो गयी है इसलिए अब छात्रों को बेहतर पढ़ाई-लिखाई की जगह गोलियां और लाठियां दी जा रही हैं। इसके साथ ही बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति साहब पत्रकारों से यह भी कह रहे हैं कि BHU को JNU नहीं बनने देंगे, यहां राष्ट्रवाद कम नहीं होने देंगे। कितनी अजीब बात है कुछ भी कर लो बाद में राष्ट्र का नाम ले कर बच निकलो। दरअसल जिन लोगों के लिए तिरंगा और देश दोनों कभी मायने नहीं रखता था आज इन्हीं प्रतीकों को हथियार बना कर बड़ी आसानी से वे अपने हित साधे जा रहे हैं। देश के निर्माण में जिनका रत्ती भर योगदान नहीं रहा आज वो सबसे बड़े देशभक्त बने घूम रहे हैं। अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही BHU की छात्राओं को सलाम जिन्होंने छेड़खानी के खिलाफ अपने संघर्ष को आन्दोलन में बदल कर देश में उत्पीड़न का शिकार हो रही सभी छात्राओं व महिलाओं को घर से निकलने पर मजबूर किया है।

इससे पहले भी देश भर की छात्राएं अपने-अपने तरीकों से अपने हक की लड़ाई इस पुरुषवादी मानसिकता वाली सरकार से  लड़ रही थी लेकिन उत्तर प्रदेश की तरह देश के दूसरे राज्यों में रोमियो स्क्वायड नहीं है इसलिए छेड़खानी की ज़िम्मेदारी उत्तर प्रदेश की सरकार को अपनी नाकामियों के रूप में लेनी चाहिए। साथ ही साथ BHU से उठने वाली आवाज़ को दबाने की जगह उन्हें सुनना चाहिए। हैरत की बात ये है कि BHU के आन्दोलन के दौरान हमारे प्रधानमंत्री भी वहीं आस पास थे लेकिन उन्होंने न उन आंदोलनरत छात्राओं पर कुछ कहा, न ही वहां की सरकार को ज़िम्मेवारी का बोध कराया।

छात्राएं पिटती रहीं और हमारे प्रधानसेवक ने चुपचाप रास्ता बदल कर वहां से निकल जाने में ही अपनी बहादुरी समझी। अब ऐसे 56 इंच वाले को क्या कहा जाये बहादुर या कायर इसका फैसला तो जनता को ही करना चाहिए।

पिछले कुछ सालों से यूनिवर्सिटी को पढ़ाई-लिखाई की जगह लड़ाई के मैदान में बदल कर ये सरकार शिक्षा के प्रति अपनी मानसिकता को दिखा चुकी है। इस बीच बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ का नारा चुनावी नारा बन कर रह गया है। जिस देश में महिलाएं देवी के रूप में पूजी जाती हैं उस देश का दुर्भाग्य तो देखिये एक तरफ जब मां दुर्गा पर महंगी चुनरी व आभूषण डाले जा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ बेटियों को पीटा जा रहा है और न सिर्फ पिटा जा रहा है बल्कि उनकी इज़्जत को सरेआम तार-तार किया जा रहा है। अक्सर दूसरे देशों को देखती हूं जहां कोई देवी नहीं पूजी जाती, जहां कोई मवेशी मां नहीं होती, जहां के लोग खुद को चिल्ला चिल्ला कर सभ्यता संस्कृति के रक्षक होने का ढोंग नहीं रचते वो देश वाकई में औरतों की इज़्जत और उन्हें बराबरी का दर्जा देने में हमसे काफी आगे हैं। वहां मवेशियां (खासकर गौ माता) प्लास्टिक भी नहीं खातीं और न ही सड़कों पर आवारा घूमती हैं।

जो सुबह-शाम औरतों को भूखी नज़रों से देखते रहते हैं और खुद को सभ्यता का दत्तक पुत्र कहते नहीं थकते वो ज़रा बताएं इस देश की लड़कियां क्यों इस खोखली हो चुकी सभ्यता का पाठ पढें, क्यों मर रही संस्कृति को ढोती रहें, क्यों तुम्हारी जातिवादी, साम्प्रदायिक व लिंगभेदी सरकार को बर्दाश्त करें? वक्त आ गया है कि इस देश के लोग सिर्फ बेटियों को बचाने की ही बात ना करें बल्कि बल्कि बेटों को भी गुंडा और बदचलन बनने से रोकें। सिर्फ सरकारे ही नहीं समाज और उसकी मानसिकता भी बदलने की दरकार है।

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