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आखिर सरकार थोक में पैसा छपवाकर गरीबों में क्यों नहीं बांट देती

सरकार ने नोटबन्दी की, लोगों ने पुराने नोट बैंको में जमा कर दिए। अब नई करेंसी छप रही है, जिन्होंने जमा किये थे उन्हें नए नोट मिल रहे हैं। लेकिन जिन गरीब लोगों के पास पैसा ही नहीं था, उन्होंने कुछ जमा ही नहीं किया तो उन्हें नए नोट भी नहीं मिलेंगे वो अब भी गरीब ही रहने वाले हैं। मोदी जी को एक काम करना चाहिए कि जब सरकार अभी नए नोट छाप ही रही है तो खूब सारे नोट छपवा कर गरीबों में बंटवा दे। देश की गरीबी दूर हो जाएगी। अगर ऐसा हो जाए तो गरीब भी दो वक्त की रोटी सही से खा सकेगा, उसके बच्चे भी पढ़ने-लिखने लगेंगे।

पर ये कन्फर्म है कि सरकार ने ऐसा अब तक ना तो किया है और ना ही करेगी। सरकार से तो गरीब लोगों का भरोसा उठ ही गया है, क्योंकि चुनाव से पहले बोला था कि सबके अकाउंट में 15 लाख आएंगे, पैसे तो दिए नहीं, उल्टा ले ही लेते हैं।

सरकार को आखिर दिक्कत क्या है? मशीने हैं, लोग हैं, छाप रहे हैं तो छाप दें। नोट नहीं दे रहे तो क्या सरकार बेवफा है? लेकिन सरकार की भी कुछ मजबूरियां होती हैं, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता। इसको समझना पड़ेगा।

पैसा क्या है? कुछ नहीं है, बस एक कागज का टुकड़ा भर है जिसकी अपनी कोई कीमत नहीं होती। पैसे की कीमत इस बात से तय होती है कि इससे कितना सामान खरीदा जा सकता है। अगर सामान नहीं खरीदा जा सकता था तो इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी। तो इसके मूल में है सामान। कितना सामान देश में पैदा होता है, कितना बाहर भेजा जाता है और कितना मंगाया जाता है। इसी के आधार पर पैसे की कीमत तय होती है। अगर देश में कुछ पैदा ना हो, कुछ बने ही नहीं तो पैसे की कोई कीमत ही नहीं रहेगी।

अब मान लीजिए कि एक देश में 5 लोग ही रहते हैं। यहां 5 किलो चावल उगाया जाता है, चावल के सिवाय और कुछ नहीं होता है देश में। अब यहां पर नोट छप कर आए हैं, 100 रुपये के 5 नोट। अब चावल का दाम 100 रुपये किलो है। एक इंसान के पास 200 रुपये हैं, तीन के पास 100-100 रुपये और एक के पास कुछ नहीं है। तो पहला इंसान दो किलो चावल खरीद सकता है, तीन लोग एक-एक किलो खरीद सकते हैं और एक कुछ भी नहीं खरीद सकता।

अब अगर नोट छापकर आखिरी व्यक्ति को 300 रुपये दे दिए जाएं तो क्या होगा? अब मार्केट में 800 रुपये हो जाएंगे लेकिन चावल अब भी 5 किलो ही है और खरीददार भी 5 ही हैं। तो अब होगा ये कि मार्केट में चावल का दाम बढ़ जाएगा और ये केवल रुपये के हिसाब से ही नहीं बढ़ेगा।

अब एक और स्थिति अज़्यूम करिए। नए नोट छप के आए हैं और सबको नहीं पता है कि आखिरी व्यक्ति को 300 रुपये मिले। वो झटपट जा कर 3 किलो चावल खरीद लेता है। अब मार्केट में बस 2 किलो ही चावल बचा और खरीददार हैं चार। एक के पास 200 रुपये हैं और तीन के पास 100-100 रुपये, कुल 500 रुपये। अब फट से चावल का दाम 250 रुपये किलो तक हो सकता है या इससे ज़्यादा भी हो सकता है। एकदम क्राइसिस हो जाएगा, लोग लाइन में लग जाएंगे, लेकिन चावल मिलेगा नहीं। फिर उसकी ब्लैक मार्केटिंग भी हो सकती है। एक किलो बेचकर कह देंगे कि खत्म हो गया। फिर 300 रुपये किलो में चावल बेचा जाने लगेगा। रुपये की कीमत गिर जाएगी, जो सामान 100 रुपये में मिल रहा था वो अब 300 रुपये में मिलेगा।

तो यही वजह है कि सरकार नोट नहीं छापती है। मजबूरी है, वरना कोई भी सरकार नोट छापकर गरीबों में बांट देती और हमेशा के लिए अमर हो जाती। इसलिये हमेशा बातें होती हैं मेक इन इंडिया की, कि कैसे ज़्यादा से ज़्यादा सामान बनाया जा सके। उसी हिसाब से पैसे की कीमत भी बढ़ेगी और जितने ज़्यादा लोग काम करेंगे, उतना ही ज़्यादा सामान बनेगा। उतना ही ज़्यादा पैसा सबके पास पहुंचेगा।

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