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मेरे लिए न्यूटन फिल्म का मुख्य किरदार आदिवासियों के वो 8 अलग रूप थे

बहुचर्चित फिल्म “न्यूटन” जनता और समीक्षकों द्वारा काफी सराही जा रही है और क्यों ना सराही जाए? भारतीय चुनाव की दिलचस्प तस्वीर पेश करने वाली यह फिल्म प्रशंसा की पात्र है ही। हर फिल्म का कोई एक केन्द्रीय किरदार होता है। यह कहने के बाद, दर्शकों के ज़हन में न्यूटन यानि कि नूतन कुमार का नाम आना स्वाभाविक है, लेकिन मेरे नज़रिए में इस फिल्म में और एक केन्द्रीय किरदार है और वो है – “भारतीय आदिवासी”। इस किरदार के आठ अलग-अलग रूप मैंने देखे – कुछ मनभावन, तो कुछ दर्दनाक।

सुरीले लोकगीत गाने वाला आदिवासी

अफसर लोग तांकझांक करने वाले आदिवासी बच्चों से सज़ा के तौर पर गाने गवाते हैं। यह बात एक तरफ दिल को दर्द पंहुचाती तो है, लेकिन सुरीले लोकगीत के स्वर प्रेक्षक के कानों को आकर्षित भी करते हैं। अपनी संस्कृति के लिए जतन करने का एक बहुत बड़ा ज़रिया है लोकसंगीत। आदिवासी ना केवल अपनी भाषा, सोच और संगीत से जतन करते हैं, बल्कि “सब साथ मिलके” गाने का रिवाज भी संगीत के माध्यम से संभालते हैं।

गांव में बैठकर लगन से काम करने वाले आदिवासी

अफसर जबरदस्ती गांव में घुस जाते हैं तो लगन से अपना काम करने वाले आदिवासी महिला-पुरुष दिखाई देते हैं। कोई धान सींचता दिखाई देता है तो कोई घरेलु काम के लिए पेड़ की शाख काटता हुआ। जटिल नगरीय आर्थिक व्यवस्था के सामने, आदिवासी समाज की सरल अर्थव्यवस्था एक तरफ पैसों का कम महत्त्व को दर्शाती है तो दूसरी तरफ कुदरत से जुड़ा हुआ उन का रिश्ता भी दिखाती है।

पारंपरिक कायदे की व्यवस्था को प्रमाण मानने वाला आदिवासी

पटेल, गांव का बुजुर्ग मुखिया है। पटेल को गांव की पूरी जानकारी है और “तुम्हारी चुनाव प्रक्रिया चाहे कुछ भी हो, हम पटेल को मानते है” यह गांववालों की साफ सोच है। पटेल भी गांव को अपनी ज़िम्मेदारी मानता है। पारंपरिक आदिवासी व्यवस्था में पंच होते थे, जिन्हें समुदाय ने गांव की सुरक्षा, कायदा, शादी, और बाकी के सामजिक काम की ज़िम्मेदारी से जुड़े फैसले लेने के अधिकार दिए जाते थे। अर्थव्यवस्था की तरह राजकीय व्यवस्था भी काफी सरल हुआ करती थी।

अफसरों की दावत के लिए मुर्गी काटने वाला आदिवासी

एक अफसर दोपहर के खाने का बंदोबस्त करने के लिए आदिवासी बस्ती में मुर्गी काटने का ऑर्डर देता है तो दूसरा ‘कुदरती दारु’ भरने के लिए अपनी बोतल आगे करता है। एक ज़माने में अपने जल-जंगल-जमीन में सुरक्षित महसूस करने वाला आदिवासी अब कथित “विकास” की प्रक्रिया में असुरक्षा के अंधेरे में ढकेला जा रहा है। विभिन्न “गुंडों” का राज सहन करने वाले आदिवासी की व्यथा शायद “विकास” की आवाज़ों के बीच दब रही है।

“तेंदू पत्ते के भाव कम होगे क्या?” ये पूछने वाला आदिवासी

चुनाव जीतने के बाद क्या-क्या विकास होगा, ये कहने की कोशिश न्यूटन करता है। “हमारे तेंदू पत्ता का भाव बढ़ेगा क्या?” जब कोई यह पूछता है तो वह निरुत्तर हो जाता है। आदिवासी की रोज़मर्रा ज़िंदगी में विभिन्न फायदेमंद चीजों में से एक है तेंदू पत्ता। विकास की सामान्य आदिवासी व्याख्या ना ही बुलेट ट्रेन है और ना ही समृद्धि का महामार्ग। उसकी व्याख्या है रोज़ की ज़िंदगी का सस्ता और स्वस्थ होना।

वोटिंग करने से कितना पैसा मिलेगा – ये पूछने वाला आदिवासी

“आपको चुनाव में इस तरह वोट करना है” न्यूटन आदिवासियों को समझाता है। इसकी पहली स्वाभाविक प्रक्रिया होती है “कितना पैसा मिलेगा?” आदिवासी विकास विभाग द्वारा चलाई जाने वाली सालों की योजनाओं का सबसे साफ़ दिखने वाला नतीजा मतलब पैसों के मूल्य की अपेक्षा। सरकारी तंत्र के ‘विकास’ की व्याख्या का यह दूसरा प्रारूप है।

मीडिया और विदेशियों के लिए ‘चुनावी पोज़’ देने वाला आदिवासी

चुनाव की काली स्याही आदिवासी उंगलियों पर लगाकर मीडिया को फोटो दिए जाते हैं और भारतीय लोकशाही प्रक्रिया की महानता का दिखावा किया जाता है। तमाम बुद्धिजीवी वर्ग, कोर्पोरेट सामाजिक संस्थाएं, मीडिया और विदेशी हस्तियों के लिए पिछले कई सालों से आदिवासी एक महज़ संग्रहालय में रखा हुआ एक प्राणी है। एक ऐसा प्राणी जिसे लोग देखने के लिए आते हैं और जिनके नाम पर पैसा इकठ्ठा करते हैं और पैसा कमाते हैं।

“मैं निराशावादी नहीं… आदिवासी हूं” यह कहने वाला शिक्षित और सोचने वाला आदिवासी

चुनाव में वोट देने की इच्छा रखने वाले युवा आदिवासी और अपने चंद शब्दों में न्यूटन को गहरी सीख देने वाली आदिवासी ब्लॉक अफसर मलको जो सोचता है कि यह यानि कि चुनाव एक ‘उम्मीद’ है। एक तरफ उसके जल-जंगल दांव पर लगे हुए हैं और दूसरी तरफ कथित ‘विकास’ में अपना अस्तित्व खोने वाला आदिवासी अपनी अगली पीढ़ी को देख रहा है। शहरीकरण की चकाचौंध में खोए हुए आदिवासी युवाओं में कुछ ऐसी उम्मीद की किरनें भी हैं जो अपने अस्तित्व को बनाए रखने का सपना आंखों में कायम रखे हुए है।

फोटो आभार: ट्विटर

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