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अधिकारियों पर धौंस जमाने मायावती की राह चले योगी

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अब मायावती के अवतार में आने की मुद्रा साध रहे हैं। अधिकारियों में उनके इस नये रूप से शायद कुछ खौफ पैदा हो। हालांकि अभी भी ज़्यादातर अफसर मानते हैं कि वे प्रवचनबाज़ बाबा हैं। प्रवचन को वायवीय या अमूर्त घटना के रूप में संज्ञान में लेना भारतीय समाज की आदत बन चुकी है। शायद इसीलिए योगी जो बोल रहे हैं उस पर कितना अमल करेंगे, इसे लेकर लोगों को कोई खास लेना-देना नहीं है।

योगी ने जब कार्यभार संभाला था उस समय सपा के शासनकाल में पार्टी के कार्यकर्ता बनकर काम करते रहे अधिकारियों को लेकर उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं में ज़बर्दस्त गुस्सा था। सभी यह दुआ कर रहे थे कि योगी जल्दी से अपनी सरकार को एक्शन मोड में लाएं और इन अधिकारियों को जहन्नुम में पहुंचाकर प्रशासन को तरोताज़ा बनाएं। लेकिन अभी तक पार्टी की भावना और योगी की भावना में ज़मीन-आसमान का अंतर बरकरार है। इसी के तहत योगी ने उस समय पार्टी के कार्यकर्ताओं और सिम्पेथाइज़रों को अधिकारियों के तबादले के मामले में झटका देने का काम किया। लोग ऊब गये, हफ्तों गुज़र गए लेकिन ना मुख्य सचिव और डीजीपी बदले और ना ज़िलों के अधिकारी।

फोटो आभार: facebook

कई जगह अधिकारियों और नवनिर्वाचित विधायकों में तू-तू मैं-मैं हुई तो आरोप लगा कि प्रशासन में कोई बदलाव ना किए जाने से पार्टी लोगों को यह अहसास नहीं करा पा रही कि प्रदेश में सपा का मनमाना राज खत्म हो गया है। ऐसी धारणाओं और उलाहनों के बावजूद योगी टस से मस होने को तैयार नहीं थे। उन्हें यह साबित करने की खप्त सवार थी कि वे बहुत अच्छे शहसवार हैं। मुख्यमंत्री के रूप में ऐसे शहसवार जो बिगड़ैल घोड़ों को भी अपने हिसाब से हांकने की महारत रखते हैं। उनका बचाव करने के लिए मजबूर पार्टी के स्थानीय नेता भी उस समय यह दलील गढ़े हुए थे कि योगी सपा के ही अधिकारियों से मनमाफिक काम लेकर नया इतिहास रचेंगे। यह एक कुशल प्रशासक के प्रदर्शन के अनुरूप होगा पर योगी कोई चमत्कार नहीं दिखा पाए।

जब प्रदेश भर में प्रशासन में पुराने चेहरों के बरकरार रहने से जनअसंतोष का विस्फोट ज्वालामुखी के स्तर पर फटने के आसार दिखने लगें, तब योगी घबराए और प्रशासन में फेरबदल का क्रम शुरू हुआ।

इस बीच यह धारणा व्याप्त हो चुकी थी कि योगी कल्याण सिंह से भी ज़्यादा अधिकारी परस्त मुख्यमंत्री हैं इसलिए अफसर बेलगाम हो गएं। विधायकों और मंत्रियों के आंदोलन के बावजूद उनके ना हटने से अधिकारियों के दिमाग खराब होने लगें। उस पर तुर्रा यह है कि योगी सार्वजनिक रूप से अपने विधायकों और पार्टी के अन्य लोगों की नाजायज़ सिफारिशों को ना मानने के लिए अधिकारियों को उकसाने लगे। यह दूसरी बात है कि भारत में जनप्रतिनिधि और प्रशासन का समीकरण कुछ ऐसा है जिसमें जनप्रतिनिधियों या समाज की राय अफसरशाही को नाजायज़ ही लगती है, जबकि जनप्रतिनिधि बहुधा व्यवहारिक सिफारिशें करते हैं ताकि लोगों में सरकार को लेकर किसी तरह का क्षोभ ना पनपे।

बहरहाल जब योगी को लगा कि अधिकारियों पर ज़रूरत से ज्यादा भरोसा उन्हें महंगा साबित हो रहा है, जब एंटी रोमियो अभियान और स्लॉटर हाउस बंद कराने जैसी मुसलमानों को लक्षित कार्रवाइयों से उत्पन्न उन्माद डायल्यूट होने लगा, प्राथमिकता के अनुरूप प्रशासन को संचालित होते ना देख लोगों में व्याकुलता गहराने लगी, तो जनमानस का जो फीडबैक योगी तक पहुंचा, उससे योगी के हौसले पस्त होना स्वभाविक था। इसका नतीजा रहा कि उन्हें रूप बदलने की सोचनी पड़ी और वे मायावती की लीक पर आ गए।

ट्रांसफर सीजन कभी का खत्म हो चुका है लेकिन सितंबर के महीने में पहले दिन से ही प्रशासन में तबादलों के भूकंप के झटके लगातार दिए जा रहे हैं। पहले सप्ताह में कई IPS बदले गए। दूसरे सप्ताह में एक दर्जन से ज़्यादा डीएम सहित कई IAS बदल दिए गए। इसी कड़ी में मंगलवार को पीसीएस अफसरों के तबादले की भी एक सूची जारी हो गई। प्रशासन में स्थिरता के हामी योगी ने जवाबदेही के नाम पर अधिकारियों पर अंधाधुंध एक्शन भी शुरू किया। फर्रुखाबाद और जालौन ज़िलों के डीएम, ऑक्सीजन गैस सिलेंडरों के चक्कर में निपटा दिए। यह दूसरी बात है कि गोरखपुर में जहां से इस प्रकरण की शुरुआत हुई थी और जिससे सरकार का समूचा वजूद हिल गया था, वहां के पहाड़ी डीएम राजीव रौतेला पर योगी जी ने आखिरी तक कृपा बनाए रखी। तबादलों की अधीरता की यह तर्ज मायावती युगीन है।

तबादलों के बावजूद यह माना जा रहा था कि अफसरों से मायावती की तरह कड़ी और निर्मम भाषा बोलने से योगी बचेंगे, लेकिन हड़बड़ाहट में आदमी मरता क्या ना करता की हालत में पहुंच जाता है। कहीं न कहीं सीएम योगी भी इसी गत को प्राप्त हो रहे हैं। उन्होंने जनता के बीच महानायक बनने के लिए क्या करना चाहिए, इसका जब सर्वे कराया तो खुफिया एजेंसियों ने उनसे कहा कि बसपा सुप्रीमो मायावती की अन्य तमाम बातों को लेकर तो चाहे जितनी आलोचना हो, लेकिन अधिकारियों को सार्वजनिक रूप से जलील करने के उनके हथकंडे के लोग, यहां तक कि भाजपा का भी एक बड़ा वर्ग बहुत मुरीद है।

इसके बाद अधिकारियों के मामले में योगी बाबा ने भी भाषा का शील छोड़ने में ही गनीमत मानी है। पिछले दिनों उन्होंने मायावती के अंदाज में जनमानस को लुभाने के लिए लखनऊ के साइंटिफिक कन्वेंशन सेंटर में पहली रोज़गार समिट को संबोधित करते हुए जब यह कहा कि भ्रष्टाचार और लापरवाही से बाज़ ना आने वाले अधिकारियों के मुंह में कालिख पुतवाई जाएगी तो लोग हतप्रभ रह गए। वाणी की मिठास साधुओं की सर्वोपरि विशेषता मानी गई है, इसलिए योगी के मुंह से ऐसे बोल लोगों को शायद पच ना पाएं। लेकिन उनके सलाहकार उन्हें यह नहीं बताएंगे कि मायावती के लिए जो चीज़ फबती है, वह चीज उनके दुख का कारण बन सकती है। इसलिए वे नकल में अक्ल की ज़रूरत को ध्यान में रखें।

जो भी हो योगी सरकार के अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर वाले इस अंदाज़ से नौकरशाही में बेचैनी भी है और भय भी।

दूसरी ओर अफसरों का कहना अलग है। वे मानते हैं कि योगी बाबा उन्हें कोई दिशा नहीं दे पा रहे हैं, इसलिए अधिकारी अपनी कार्य कुशलता का लाभ उन्हें देने में खुद को विफल महसूस कर रहे हैं। यह समझ योगी मॉडल के प्रशासन के लिए उपयुक्त अधिकारियों की है जबकि वे भी विफलता के प्रमुख कारणों को चिन्हित करने की लियाकत नहीं रखते।

दरअसल योगी ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जिस व्याख्या को वैचारिक घुट्टी में प्राप्त किया है, उसके माफिक जो अधिकारी उन्हें कार्यकुशल दिखने की बीमारी हो गई है, वे अपनी कट्टर सोच की वजह से उनके लिए बोझ साबित हो रहे हैं। योगी सरकार में प्रशासनिक सेटअप का मुख्य आधार वर्ण व्यवस्था है। इसमें हाशिए पर छिटके तबकों के अधिकारियों को वे केवल कोटा मात्र के लिए समायोजित करना चाहते हैं।

इस नीति से सबसे ज़्यादा नुकसान ओबीसी अधिकारियों का हो रहा है। महत्वपूर्ण पदों पर उनके संख्या बल के हिसाब से उनकी तैनाती न्यून है। यहां तक कि सपा शासन में चित्रकूट के एसपी रहते हुए डकैत गिरोहों की नाक में दम करने की वजह से लूप लाइन में फेंके गए एक पुलिस अधिकारी इसी ग्रंथि के चलते इस सरकार में भी एटा जैसी महत्वहीन पीएसी में तैनात रहकर सज़ा भोग रहे हैं। दरअसल ओबीसी की तमाम जातियों के लिए वर्णव्यवस्था में उन्हें हेय साबित करने वाली कहावतें बनाई गई थी, जो योगीराज में और प्रभावी हो गई हैं। दुर्भाग्य से उक्त अधिकारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बिरादरी के हैं, इसलिए उऩको महत्व देने से अभिशप्त हो जाने का पूर्वाग्रह सरकार पर इतना तारी है कि राज्य की सरकार उनकी परछाई से बच रही है।

एक और अधिकारी विजिलेंस में हैं जो कि सपा के पूरे शासन में लूपलाइन में रहे। इस सरकार ने उनका तबादला किया तो लूपलाइन में ही विजिलेंस हेडक्वार्टर लखनऊ में, उनके परिवार के तमाम लोग भाजपा के भक्त हैं। वे दलित हैं लेकिन मायावती की बिरादरी के नहीं हैं। लेकिन उन्हें एकोमोडेट करने की व्यवस्था योगी सरकार इसलिए नहीं कर पा रही, क्योंकि दलितों को महत्वपूर्ण पद देने को लेकर उसका कोटा बहुत फिक्स है, जो कुछ ज़्यादा दमदार पैरवी वाले अधिकारियों के समायोजन से फुल चल रहा है। अब उन अधिकारी का जो हो सो हो।

दूसरी ओर महत्वपूर्ण पदों पर वे अधिकारी बैठे हैं जिनके पूर्वज समाज के केवल 5-10 प्रतिशत सफेदपोशों को साधने तक सफल प्रशासन की परिभाषा सीमित रखते थे। बहुसंख्यक जनता उस समय अपनी उपेक्षा का संवरण करती थी, क्योंकि उसे पता था कि सत्ता के भद्रलोक में उसके अपने लोगों की संख्या नगण्य है। इसलिए वे अधिकारी के खिलाफ किसी से कहने जाएं तो सुनेगा कौन, लेकिन इस बीच सपा-बसपा जैसी पार्टियों ने चार-चार बार उत्तर प्रदेश की सरकार चला ली है जिससे भद्र और जन का अंतर स्वीकार्य नहीं रह गया। जन अपनी ताकत को पहचानने लगे हैं।

छुआछूत, देवभाषा में प्रवीणता, वीरता के खोखले अहंकार जैसे मनोरोगों से ग्रसित अधिकारी जन वर्ग के राजनीतिक, सामाजिक कार्यकर्ताओं के सामने आने पर उनसे बेगानेपन का बर्ताव करके उन्हें हतोत्साहित करने की कोशिश करते हैं। यह राजनीतिक, सामाजिक ताने-बाने के प्रबंधन में बेहद घातक हरकत साबित हो रही है। योगी सरकार के प्रशासन के प्रति लोगों में बढ़ती कचोट का मुख्य कारण ऐसे ही अधिकारियों का केंद्रबिंदु में ढांचा है। अगर इसमें सुधार-संशोधन कर लिया जाए तो योगी सरकार की तमाम पैनी चुनौतियां तत्काल हल्की हो सकती हैं। लेकिन यह हो तो हो कैसे।

फोटो आभार: facebook

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