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लेखन में ईमानदारी

लेखन में ईमानदारी का जिक्र अक्सर मुझे हँसी दिलाता है इसकी वजह भी है मुलाहिजा फरमायें !

लेखन में ज्ञान कल्पना और हुनरमंदी का मिश्रण आपको एक अच्छा लेखक बनाता है पर असल खेल इन तीनो के पीछे छिपी चालाकी निभाती है जो हमारी ईमानदारी को बाहर नहीं आने देती !

ऐसा नहीं है आप लेखन में ईमानदार नहीं हो सकते पर इतना जरूर है पूरी तरह तो नहीं ही हो सकते हैं,इसकी सीधी वजह है आप अगर पाठकों को ध्यान में रखकर लिख रहे हैं तो आप उनकी सोच के हिसाब से भी बहोत कुछ बुनते हैं जो कि अक्सर आपका नहीं पाठक के नजरिये के हिसाब से होता है !

ज्ञान हम अक्सर अपने आस पास की घटनाओं और किरदारों को देख सुन मेहसूस और पढ़कर प्राप्त करते हैं फिर उसे स्वयम् के विवक अनुसार परिभाषित कर पेश करते हैं !

ईमानदारी जैसे का तैसा पेश करने को कहते हैं अगर मैं सोचता हूँ कि मेरा धर्म श्रेष्ठ है या “मैं” श्रेष्ठ हूँ तो “ये कहने में बिलकुल ना हिचकना ही ईमानदारी है” अब इसके पीछे कितनी मेहनत की ये जानने में कि मेरा धर्म क्यों श्रेष्ठ है बाकी धर्म में कितनी खूबियाँ हैं (खूबियँ पर विषेश ध्यान दें क्योंकी खामियाँ हम घर बैठे निकाल सकते हैं खूबियाँ अध्यन से ही पता चलती हैं) या फिर मैंने सिर्फ अपनी कुंठा को उजागर किया ये आप अपने नजरिये से परिभाषित कर सकते हैं !

ईमानदार होना बस इतना है जो मैं जानता हूँ जो मैं मानता हूँ वो कहूँ बिना हिचक और अगर कोई मुझे गलत कहे तो उसकी बात को सिरे से खारिज करने की जगह उसपर एक बार खुलकर विचार करूँ, सजावटी बातें करने की जगह बात को बेहतर तरीके से पेश करने की कोशिश करने में कोई हर्ज नहीं ये तो होना ही चाहिए पर अपनी ईमानदारी तब ही कायम रह सकती है जब जैसे को तैसा पेश किया जाये !

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