जबलपुर की गलियां छानने के लिए हमने एक ऑटो वाले से बात की और थोड़ी खींचतान के बाद किराया भी तय हो गया। हमें मार्बल रॉक्स और धुआंदार फॉल्स से ज़्यादा कुछ पता नहीं था तो कुछ नया ट्राय करने के लिए ऑटो ड्राईवर पर ही यह छोड़ दिया कि कहां-2 घूमा जाए। तो इस तरह हम और हमारी सहेली निकल पड़े। मुख्यरूप से यह लेख ना तो हमारे सफर के बारे में है और ना सफर के रोमांच के बारे में है, दरअसल यह लेख है उस ऑटो ड्राईवर के बारे में, जिससे हमनें कुल पांच मिनट बारगेनिंग की थी।
किस्सा कुछ इस तरह से है कि हमारे ऑटो चालक थे बड़े ही चालाक। बहुत ही बातूनी और हंसमुख किस्म के इंसान। जबलपुर की सड़कें, हाईवे कंस्ट्रक्शन, शहर और गांव के बीच अंतर, बाज़ार इत्यादि, उनके पास बात करने के लिए मुद्दों की कोई कमी नहीं थी।
अरे ये देखिए मैडम यहां हम ऑटो चलाने से पहले काम करते थे, यहां एक फैक्ट्री है, वहां मेरे दोस्त रहते हैं, यहां एक प्राचीन मंदिर है, ये इलाका 2015 की बाढ़ में प्रभावित हुआ था, वगैरह-वगैरह।
मज़े की बात तो ये थी कि हम दोनों जिनके पास कभी भी बातों की कमीं नहीं होती, बिल्कुल चुप सिर्फ ऑटो चालक की ही बातें सुन रहे थे और उनसे ही ज़्यादा बातें कर रहे थे। रास्ते भर उन्होंने बड़े व प्राचीन मंदिरों के बारे में बताया और कहा कि वापस आते वक्त वो हमे वहां ले जाएंगे। हमें भी लगा कि उन्हें सीधे मना करना, उनकी श्रध्दा को ठेस पहुंचाना होगा तो हम चुप रहे और सोचा बाद में समय की कमी बोलकर टाल देंगे।
बातों ही बातों में जल्द ही सफर कट गया और हम अपनी तयशुदा जगह ‘भेढ़ा घाट’ पहुंच गए। ऑटो ड्राईवर को यहां हमारा इंतज़ार करना था ताकि हम वॉटरफॉल घूम सकें तो मैंने उनका मोबाइल नंबर ले लिया। जिस तरह से वो प्राचीन मंदिरों की कहानियां हमे सुना रहे थे, उससे मन में बैठ चुका था कि वो कोई हिंदू ही हैं। फिर उन्होंने अपना नाम बताया- मोईन।
जो सोच रही थी उससे अलग जवाब सुनकर चेहरे पर एक मुस्कान भी आ गई। कभी-कभी सब जान-समझ के भी हम कितने अंजान रह जाते हैं। खैर थोड़ी देर में घूमने-फिरने और फोटो खिंचा के जब हम वापस आए, तो मोईन जी खाना खा चुके थे और बाकी के सफर के लिए तैयार बैठे थे। रास्ते में गांव, वहां के लोग, उनका रोज़गार और खेतीबाड़ी सब चर्चा का विषय बना रहा।
हमारे बार-बार टालने पर भी दो प्राचीन मंदिरों पर उन्होंने ऑटो रोक ही दिया। उनका कहना था, “इतनी दूर आएं हैं, दर्शन करके आशीर्वाद ले ही लीजिये।” मन हुआ कि उनसे कह दें कि देखिए हम मंदिर जाने में कोई विश्वास नहीं रखते हैं, पर ऐसा कह कर उनकी भावनाओं को ठेंस पहुंचाने का डर भी था। इसलिए वहां उतरकर, चप्पल-जूते उतारे और मंदिर के भीतर चले गए।
वापस आकर बहुत संकोच और डर के साथ उनसे आखिर मैंने पूछ ही लिया, “मोईन जी आप तो मुस्लिम हैं, हिंदू देवी-देवताओं के बारे में और उनकी पूजा को लेकर इतना ज्ञान कहां से लेकर आए हैं?” एक बार को मान सकते हैं कि टूरिस्ट को प्राचीन मंदिरों के बारे में बताना उनके रोज़गार का हिस्सा हो सकता है, पर पूजा से जुड़े रीती-रीवाजों पर उनका हमें ज्ञान देना थोड़ा हज़म नहीं हो रहा था। इस सवाल के जवाब में उन्होंने जो कहा वो वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए बहुत खास हो जाता है और इस अनुभव को यहां साझा करने का यही कारण भी है।
उनका जवाब कुछ इस तरह से था, “देखिए मैं नहीं मानता कि कोई धर्म अलग है। आपको जिसमें खुशी मिलती है आप वो क्यों ना करें? मैं तय वक्त की नमाज़ भी अदा करता हूं और गणेश चतुर्थी पर विसर्जन भी। मैं ईद और मुहर्रम भी मनाता हूं और नर्मदा आरती भी करता हूं।” यह सुनकर मन को वो सकून मिला जो शायद दुनिया की किसी भी सुंदर से सुंदर जगह को देखकर भी नहीं मिलेगा।
“क्या मेरा मुसलमान होना या आपका हिंदू होना हमारे इंसान होने से बड़ा है, बिल्कुल नहीं।” इतने साफ, छोटे और सहज लफ्ज़ों में मोईन ने वो कह दिया था जिसे सुनकर मन में कई सवाल उठ रहे थे।
कैसा होता अगर सब इसी तरह सोचते? कैसा होता अगर लोग राजनेताओं के स्वार्थ के चलते अपने पड़ोसी को बली ना चढ़ाते? कैसा होता अगर जुनैद और अखलाक के लिए कोई इस तरह सोचता कि क्या फर्क पड़ता है कि तुम कौन हो, तुम क्या पहनना चाहते हो, तुम क्या खाना चाहते हो या तुम्हारी पहचान क्या है? एक लंबी सांस में इन सभी सवालों को दबाकर मैंने वापसी का सफर शुरू किया, लेकिन मोईन की बातें कानों में हमेशा गूंजती हैं, “क्या फर्क पड़ता है कि हम हिंदू हैं या मुसलमान या कोई और?”
फोटो प्रतीकात्मक है; फोटो आभार: getty images