Site icon Youth Ki Awaaz

इलाहबाद यूनिवर्सिटी में कोई भी पार्टी सत्ता में आने पर कुछ करती क्यूं नहीं?

इलाहाबाद छात्रसंघ का चुनाव 14 अक्टूबर को होने जा रहा है और पूरे शहर को पोस्टरों, बैनरों से पाट दिया गया है। लिंगदोह कमेटी की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, हवा में पर्चे उड़ाए जा रहे हैं। प्रत्याशी सड़कों पर बिछ गए हैं, पेड़ों पर टंग गये हैं। समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पार्टी के नेता इलाहाबाद आ चुके हैं।

फोटो आभार: Allahabad University Beat

बताते चलें कि छात्रसंघ चुनाव में आरएसएस (भाजपा) की छात्र ईकाई एबीवीपी, समाजवादी पार्टी की छात्र ईकाई समाजवादी छात्र सभा और कांग्रेस की छात्र ईकाई एनएसयूआई के अलावा आइसा भी मैदान में है।

2012 में छात्रसंघ बहाल हुआ। 2012 से लेकर अब तक समाजवादी छात्र सभा और एबीवीपी से ही अध्यक्ष और महांमत्री चुने गए हैं। लेकिन
इस बार उनके लिए जीत आसान नहीं दिख रही है क्योंकि जो वादे उन्होंने किए, उनमें से एक भी वादा अब तक पूरा नहीं हुआ। एबीवीपी और समाजवादी छात्रसभा को इस बार आइसा से ज़ोरदार टक्कर मिल रही है। एनएसयूआई का यहां कोई खास जनाधार नहीं है।

एबीवीपी ने महिला प्रत्याशी प्रियंका सिंह को टिकट दिया है। इसको लेकर भी एबीवीपी के अंदर मतभेद हो गया है। समाजवादी छात्रसभा के कार्यकर्ताओं में भी महामंत्री पद के प्रत्याशी को लेकर नाराज़गी है। अवनीश यादव को समाजवादी छात्रसभा ने प्रत्याशी बनाया है। इसका फायदा सीधा-सीधा आइसा को मिलता दिख रहा है। आइसा ने शक्ति रजवार को उम्मीदवार बनाया है।

पिछले साल एबीवीपी से छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे रोहित मिश्र ने विश्वविद्यालय के विज्ञान संकाय में कैंटीन खुलवाने, सेंट्रल लाइब्रेरी से किताबें इश्यू कराने का वादा किया था जो आज तक पूरा नहीं हो पाया। विज्ञान संकाय के छात्रों से बात करने पर ये बात निकलकर आई कि केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार है, बावजूद इसके विश्वविद्यालय में रिक्त पड़े शिक्षकों का पद ना तो भरे जा रहे हैं और ना ही लाइब्रेरी से सभी छात्रों को किताबें मिल रही हैं। जबकि चुनाव प्रचार में आये राजनाथ सिंह ने कहा था कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय का गौरव वापस दिलाएंगे।

इलाहबाद यूनिवर्सिटी में 2012 (में दिनेश यादव), 2014 (में भूपेंद्र यादव) और 2015 (में रिचा सिंह, पहले निर्दलीय) में समाजवादी छात्रसभा का यूनियन रहा है। समाजवादी छात्रसभा ने भी छात्रों के मुद्दों पर कोई संघर्ष नहीं किया और सारे वादे पूरे नहीं कर पाई। आइसा को 2012 और 2014 में, दो बार उपाध्यक्ष पद पर जीत मिली है। 2012 में आइसा ने शालू यादव के नेतृत्व में लाइब्रेरी से किताब निर्गत कराने के लिए आमरण अनशन किया था, जिसके बाद शोधछात्रों को किताबें मिलने लगीं। 2014 में नीलू जायसवाल के कार्यकाल में पीजी के छात्रों के लिए किताबें मिलना शुरू हुई।

इस बार का चुनाव कई मायनों में बहुत महत्वपूर्ण है। केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार है और शिक्षा का बजट काटा जा रहा है, शोध की सीटें कम की जा रही हैं। इन सवालों का सामना एबीवीपी को करना पड़ रहा है। एबीवीपी एक बार फिर उन्हीं मुद्दों के साथ मैदान में है, जैसे- कैंटीन, चौबिस घंटे महिला छात्रवास का गेट खुलवाना, लाइब्रेरी से किताबें निर्गत कराना आदि। वहीं आयोगों में धांधली और त्रिस्तरीय आरक्षण के सवाल पर समाजवादी छात्रसभा घिरती नजर आ रही है। डिजिटल लाइब्रेरी, महलाओं की सुरक्षा के लिए महिला गार्ड और हॉस्टल का मुद्दा उठाकर वह वोट मांग रही है।

आइसा ने नॉन नेट फ़ेलोशिप पर देश के अंदर बड़ा आंदोलन खड़ा किया, रोहित वेमुला के सवाल पर देश के विश्वविद्यालयों में आंदोलन किया। आइसा इसे अपनी उपलब्धि बताकर छात्रों से वोट मांग रहा है। इस चुनाव में जीएसकैश, डेलीगेसी भत्ता, ईयर गैप के नाम पर 5% नंबर का काटा जाना, लाइब्रेरी से किताबें निर्गत होना और सबको हॉस्टल इत्यादि आइसा के मुद्दे हैं।

अब आने वाली 14 तारीख ही बताएगी कि इलाहाबाद के छात्र किसके साथ खड़े हैं।

वेबसाइट थंबनेल और फेसबुक फीचर्ड फोटो आभार: Allahabad University Beat

Exit mobile version