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नीतीश बाबू परीक्षा का नहीं, पढ़ने-पढ़ाने का पैटर्न बदलना था

पिछले दो सालों से बिहार बोर्ड की 10वीं और 12वीं की रिज़ल्ट के बाद मीडिया में मचे हा बिहार- हा बिहार की स्थिति तो याद ही होगी! कैसे 12वीं में टॉपर बच्चे ‘मीडिया टेस्ट’ में फेल हो गए थे! कैसे राजनीति विज्ञान की टॉपर ने मीडिया से बातचीत में राजनीति विज्ञान को ‘प्रॉडिकल साइंस’ बताया और कहा कि इस विषय के तहत ‘खाना बनाने’ की पढ़ाई होती है।

फिर पिछले साल भी 12वीं बोर्ड के ऑर्ट्स टॉपर मीडिया टेस्ट’ में फेल हो गए। उन पर फर्ज़ी तरीके से प्रवेश लेने और गलत जन्म प्रमाण पत्र देने का आरोप था। बिहार के लिए त्राहिमाम- त्राहिमाम सी स्थिति हो गई थी। जहां बिहारी दिखे वहीं पूछ दिया जा रहा था कि ‘अरे तुम कैसे पास हुई हो’ भले ही जबाव सुनने से पहले बोल दे अरे मज़ाक कर रहे थे। घनघोर संकट की स्थिति थी,  बिहारियों की शैक्षणिक योग्यता मानो संदेह की स्थिति में आ गई हो।

सब लोग कूद-कूद के सवाल पूछ रहे थे लेकिन मीडिया का पहला सवाल उस बजबजाई (सड़ी) हुई व्यवस्था से नहीं था बल्कि छात्र- छात्राओं से था। मज़ाक व्यवस्था का नहीं, बस स्टूडेंट्स का बनाया जा रहा था। लेकिन इतने से भी नीतीश कुमार और बिहार विद्यालय परीक्षा समिति को ज़िम्मेदारी से मुक्ति नहीं मिलनी थी चौतरफा किरकिरी हो रही थी। चर्चाएं होने लगी शिक्षा व्यवस्था की। उसमें ज़रूरी और ज़मीनी बदलाव की। सोशल साइट्स पर खूब लिखा गया।

आज इतनी भूमिका इसलिए बांधी गई है कि साल 2018 फरवरी में परीक्षा होना है तो बदलाव की एक लिस्ट आई है। जो बदलाव सुझाए गए हैं वो कुछ यूं हैं-

मतलब बहुत कुछ जैसे प्रतियोगी परीक्षा का पैटर्न होता है। बिहार विद्यालय परीक्षा समिति का मानना है कि परीक्षा पैटर्न में बदलाव से ना केवल परीक्षा प्रणाली में सुधार आएगा बल्कि रिज़ल्ट भी बेहतर होगा। पिछले दो सालों के गिंजन( बेइज्जती) के बाद यह उम्मीद था कि बदलाव होगा।

लेकिन सरकार से शिक्षा व्यवस्था में ज़मीनी बदलाव की उम्मीद थी। शायद कुछ ऐसे बदलाव हो सकते थे-

यह सुनिश्चित करना था कि स्कूल में हर विषय के शिक्षक है कि नहीं, जो प्रैक्टिक्ल सब्जेक्ट है उसके लिए इंस्ट्रूमेंट और शिक्षक उपलब्ध हैं कि नहीं, क्लास में बेंच- डेस्क, ब्लैक बोर्ड/ व्हाइट बोर्ड है कि नहीं, स्कूल में चापाकल और शौचालय है कि नहीं, क्लास में टीचर और स्टूडेंट की उपस्थिति है कि नहीं, पढ़ने-पढाने, लिखने-लिखवाने का अभ्यास होता है कि नहीं, स्टूडेंट्स को उत्तर लिखना सिखाया जाता है कि नहीं बिना नकल किए कितने बच्चे पास होने की स्थिति में हैं। जहां ज़मीनी स्तर पर काम करना है वहां परीक्षा प्रणाली में बदलाव से बहुत होगा तो नकल नहीं होगा।

10 वीं-12 वीं क्लास में 50 नंबर का ऑब्जेक्टिव सवाल देना परीक्षा की गुणवत्ता को और कमज़ोर करना है। तर्क ये हो सकता है कि ऑब्जेक्टिव तैयार करने के लिए सारा सिलेबस पढ़ना होता है लेकिन कैसे ऑब्जेक्टिव तैयार करें पहले यह सिखाने की व्यवस्था होनी थी। नहीं तो बाज़ार में गाइड और गेस पेपर की तो भरमार है। और इस व्यवस्था में अगर नकल करने की छूट मिल जाए तो करना और कराना दोनों आसान होगा!

जहां बदलना है पढ़ने- पढ़ाने का पैटर्न वहां बदला जा रहा है प्रश्नपत्र का पैटर्न। हो सकता है रिजल्ट बहुत बढ़िया हो, पहले से ही शुभकामना है। लेकिन ये समाधान नहीं इस तरह के उपर- उपर वाले सुधार को ही कहते हैं ‘देह झाड़ना’।

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