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घंटो टट्टी-पेशाब रोककर छठ में ट्रेन से जाने वालों से पूछिए विकास क्या है

कई शहरों या लोगों को एक साथ समझना हो तो हिन्दुस्तान में दो सबसे बेहतर विकल्प हो सकते हैं। एक तो ट्रेन का सफर और दूसरा शादियों के फंक्शन। सीज़न हो या ऑफ-सीज़न, ट्रेन का सफर बिहार के किसी मुसाफिर के लिए हमेशा ‘कैटल क्लास’ का सफर ही होता है। वो भी तब जब दीवाली-छठ का सीज़न हो। मुझे पिछले कई सालों से लगातार छठ के मौके पर ट्रेन के ज़रिए बिहार जाने का मौका मिलता रहा है। यकीन मानिए अगर आप दिल्ली में मेट्रो, मॉल या फ्लाइओवर आ जाने को विकास कहते हैं तो कभी इस सीज़न में नई दिल्ली या आनंद विहार रेलवे स्टेशन के प्लैटफॉर्म भी ज़रूर जाइएगा। जो लगातार इन स्टेशनों पर जाते रहते हैं, उनके लिए विकास का सफर यहीं आकर रुक जाता है, मेरी तरह।

छठ पूजा में बिहार जाती एक ट्रेन

दिल्ली मेट्रो की नौकरी में कई बार ऐसे मौके आते हैं जब विदेशी मेहमानों को अपनी मेट्रो का ‘सिस्टम’, अनुशासन दिखाने का मौका मिलता है। वो खुश होकर जाते हैं। इंडिया के बारे में तमाम शाइनिंग बातें कहकर। मेरा मन होता है कि एक बार उनके कान में कह दूं ‘प्लीज़, हमारी दिल्ली के रेलवे स्टेशन भी देख आइए, खासकर त्योहारों के आसपास। यहां की मीडिया तो पद्मश्री के जुगाड़ में लगी है। आप ही कुछ कीजिए।‘ देखिए उधर स्लीपर की साइड अपर से अपर बर्थ तक लटके मुसाफिर किसी झांकी से कम हैं क्या।

उनसे बात कीजिए जो बारह-पंद्रह घंटे टट्टी-पेशाब रोककर भगवान की पूजा को जा रहे हैं। वो खुश हैं कि उन्हें घरवालों से मिलना है। वो जानते हैं कि उनका लौटने का टिकट नहीं हुआ है और ना होगा।

आप मोदी का मास्क लगाकर लाख कहते रहिए कि इन दिनों ट्रेनों की हालत ठीक हो गई है। सिस्टम सुधर रहा है। मगर एक ‘दिलजले’ बिहारी से कभी पूछिए सिस्टम होता क्या है। सिस्टम सिर्फ नॉर्मल दिनों में आराम से चलने वाले नियम-कानून को नहीं कहते। अच्छा सिस्टम इमरजेंसी के वक्त किए गये इंतज़ामों में दिखना चाहिए।

जो सिस्टम प्रीमियम तत्काल के नाम पर 400 की टिकट 2000 रुपये में बेचे और फिर पैसेंजर या तो चढ़ ही नहीं पाए या टॉयलेट में ही पेशाब-पखाना रोककर 24 घंटे का सफर करवाये, उस सिस्टम पर पेशाब करने का मन करता है।

ऐसा नहीं कि छठ पहली बार आया है या दिल्ली-मुंबई के स्टेशनों पर ये हाल पहली बार है, मगर हर साल हालत सिर्फ बद्तर ही हुई है। जनरल डब्बों का हाल तो सदियों से ऐसा ही रहा है। उसमें भी औरतें, बच्चे, सीनियर सिटीज़न जाते ही हैं मगर कौन सी मीडिया या सरकार कुछ उखाड़ पाई है। दरअसल, जनरल से बात जब स्लीपर या एसी बोगी तक जाती है, हमारा खून ज़्यादा अपनेपन से खौलता है। फर्क इतना है कि रेलवे का तब भी नहीं खौलता। मैं दुआ करता हूं कि इस बार खौले। खौले न सही, थोड़ा गरम ही हो।

इन दिनों राजधानी में टिकट हवाई जहाज़ से भी ज़्यादा महंगे हो गए हैं। महंगे हुए तो ठीक, मिलते फिर भी नहीं। उसका क्या कीजिएगा। मान लिया कि पलायन की समस्या है। बिहार-यूपी से काम करने वाले आते ही रहेंगे, मगर क्या कुछ भी नहीं हो सकता। कह दीजिए कम से कम कि कुछ नहीं हो सकता। हम सुनेंगे और जैसे-तैसे सामान की तरह लदकर करीब 24 घंटे मजबूरी का सफर काट लेंगे।

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