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कौन नज़र लगा रहा है हमारी गंगा-जमुनी तहज़ीब को?

गंगा-जमुनी तहज़ीब का नाम लेते ही किसी को पड़ोस के मुश्ताक चचा याद आ सकते हैं तो इससे किसी की ईद की याद जुड़ी हो सकती है। वहीं किसी के लिए उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का विश्वनाथ जी के मंदिर में शहनाई बजाना गंगा जमुनी तहज़ीब का प्रतीक हो सकता है। सबके अपने किस्से हैं, अपनी यादें हैं। गंगा-जमुनी तहज़ीब हकीकत में गंगा-जमुना जैसी ही है जो मीलों एक दूसरे के समानांतर बहती हैं लेकिन अंततोगत्वा एक हो जाती हैं। काम भी एक, ना जाने कितने शहरों-गांवों को गुलज़ार करना और शायद यही तो वजह है कि इनका मिलन भी विहंगम है, दो रंगों की जल-धाराएं ऐसे एक हो जाती हैं मानो वो कभी अलग थी ही नहीं। ये कहानी है दुनिया के सबसे बड़े रंगमंच पर तैयार हुई एक ऐसी तहज़ीब की जिसने एक दूसरे से बहुत हद तक जुदा लोगों को जोड़े रखा है।

गंगा-जमुनी तहज़ीब के मायने केवल ये नहीं हैं कि हर जुमे के दिन हक्कानी हाट लगेगी, अंसारी भाई लुंगियां और टांडा टेरीकाट के कपड़े बेचेंगे और खरीददार होंगे खट्टेगांव के वर्मा जी। मामला फकत पैसों के लेन-देन या बिज़नेस का नहीं है। ये बात ना तो मार्क्स बाबा के चश्मे से समझी जा सकती है जहां आर्थिक विनिमय ही सम्बन्ध का आधार बन जाता है और ना ही ये बात हिटलर की तर्ज़ पर नफ़रत से भरकर कौमें मिटा देने की कसम खाने वालों को समझ आ सकती है। अगर इसे समझना है तो जाइये, बनारस में मीरघाट टहल आईये या फिर लखनऊ के नक्खास से एक तोता खरीद लाइये। हां जनाब, तोता भी तहज़ीब समझा सकता है।

सार ये है कि आपको इस रॉकेट साइंस को समझने के लिए कहीं दूर जाने की ज़रूरत है ही नहीं, सब आपके पास मौजूद हो सकता है। गंगा जमुनी तहज़ीब वहां भी है जहां मुस्तकीम ईद पर मिलने रिंकू के घर जा रहा है और वहां भी जहां रिक्शा चलाने वाले राम उजागिर होली की मिठाई अपने पड़ोसी महबूब मियां को देने जा रहे हैं। ये कोई एलीट क्लास का मसला नहीं है जो कॉफी हाउस में फकत चर्चा का विषय बना हो। ये वर्ग विभेद से परे है। समस्या ये है कि हमारी ये तहज़ीब, गंगा जी से भी तेज़ी से प्रदूषित हो रही है। क्या कारण हैं इसके? क्या नाले गिर रहे हैं इसमें? या फिर फैक्ट्रियां अपनी गंदगी इसमें बहा दे रही हैं? हां, मासला कुछ हद तक ऐसा ही है। बहुत लोग ऐसे भी हैं जिनका फायदा इसी में छिपा है कि कैसे ये गंदगी फैला दी जाए और लोग आपस में लड़ पड़ें।

राजा के मैदान पर क्रिकेट खेलते लड़के कब हिन्दू और मुसलमान बन जाते हैं, आपको पता भी नहीं चलता। एक क्रिकेट मैच का झगड़ा जो कि इस बात पर शुरू हुआ था कि गेंद बाउंड्री के अन्दर टप्पा खाई है या बाहर, हिन्दू-मुसलमान अस्मिता का सवाल बन जाता है और बात दो संप्रदायों के बीच के झगड़े में बदल जाती है। धारा 144 लगानी पड़ जाती है, लोग घायल होते हैं, स्कूल कॉलेज बंद होते हैं और अगर राजनीतिक पार्टियों ने ज़ोरदार छौंकन मार दिया तो बात कर्फ्यू तक भी जा सकती है और हमारी सारी गंगा जमुनी तहज़ीब धरी की धरी रह जाती है। हम अपनी गंगा जमुनी तहज़ीब वहां भी भूल जाते हैं जब कोई हिन्दू-मुस्लिम लड़का या लड़की आपस में प्रेम कर बैठते हैं। यहां तो बात आपे से बाहर हो जाती है और केरल की बात मिर्ज़ापुर के शर्मा जी के लिए इज्ज़त का सवाल हो जाती है।

जब कभी समाज से सवाल पूछे जाते हैं तो सारा इल्ज़ाम नेताओं पर, राजनीति पर। मगर हर वो मुहल्ला अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकता जहां गाय के नाम पर असलम पीट दिया जाता है और ना ही वो मुहल्ला जहां राकेश को शबीना से प्रेम के कारण गोली मार दी जाती है। अगर नेता आग लगाते हैं तो समझदार क्या कर रहे होते हैं उस वक्त? आग में घी डालकर हवन कर रहे होते हैं!

हकीकत तो ये है कि ऐसे लोग ही कम होते जा रहे हैं जो भाईचारे में यकीन करें। नदीम-श्रवण की जोड़ियां भी कम होती जा रही हैं। कारण है कि तहज़ीब प्रदूषित हो रही है। टीपू सुल्तान की कहानियां सुनाकर आपको बताया जा रहा है कि क्यों आपको सुलेमान से नफरत करनी है। ये सुनाने वाले अमृतसर के स्वर्ण मंदिर की ज़मीन किसी मुग़ल बादशाह ने दी थी ये बताना स्किप कर देंगे, क्योंकि इससे उनका फायदा नहीं। लेकिन कुछ ज़िम्मेदारी जनता की भी है, उसने बेवकूफ बनने का पंचवर्षीय ठेका तो लिया नहीं है।

अपनी बुद्धि विवेक के अनुसार समझा जा सकता है कि क्यों हज़ार साल पहले की बात पर आज का पल गंवाया जाए। लेकिन मसला तो यही है ना कि जनता समझने में इंटरेस्टेड ही नहीं है।

जिस तरह से ज़्यादातर जनता इस बात से बेखबर होकर कि गंगा जी नाराज़ भी हो सकती हैं प्रदूषण फैलाने में अपना योगदान दिए जा रहे हैं, कुछ उसी तरह एक बड़ा तबका इस बात से अंजान लगता है कि बमुश्किलात संजोई गई इस तहज़ीब से खिलवाड़ करने पर वही होगा जैसा कुछ बरस पहले गंगा के प्रलयंकारी रूप ने किया था।

फोटो आभार: flickr

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