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ये भारत है यहां स्टूडेंट्स नहीं बस टीचर सवाल कर सकते हैं

इस देश की शिक्षा व्यवस्था छात्र की मौलिकता को मारने का काम करती आ रही है। इसका अभ्यास प्रारम्भिक शिक्षा से ही शुरू हो जाता है। शिक्षक सिखाता है कि जो बड़ा है वही शक्तिशाली है, वह जो कहता है, वही सत्य है, वह जो पढ़ाये वही ज्ञान है अतः उसकी अधीनता बिना प्रश्न किये स्वीकार लो।

अहंकार से भरे हुए शिक्षक यह मान के चलते हैं कि सर्वज्ञाता की नहर का उद्गम उनके घर से ही होता है। यदि शिक्षक के पढ़ाते समय कोई छात्र खिड़की से बाहर देख रहा है, या उसकी बात सुनने की बजाय अपनी कल्पना में डूबा है तो इससे शिक्षक के अहम को व्यक्तिगत ठेस पहुंचती है। इस अवमानना के प्रत्युत्तर में शिक्षक उक्त छात्र को दंड देते हैं। यहां के शिक्षक यह कतई पसन्द नहीं करते कि कोई छात्र उनसे प्रश्न पूछे, क्योंकि इसका एकाधिकार उन्हें ही प्राप्त है।

यह अधीनता छात्र स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि पूरी उम्र उन्हें यही सिखाया गया। शैक्षिक रूप में, सामाजिक रूप में, यह अधीनता सदियों से चली आ रही है। यहां शिक्षक, विभेद के बीज आरम्भ में ही बो चुके होते हैं। यह विभेद कई रूपों में हो सकता है, होशियार और कमज़ोर का विभेद, लैंगिक विभेद, जातीय विभेद, साम्प्रदायिक विभेद या फिर परीक्षा के अंकों का विभेद। यद्यपि कुछ शिक्षक बेहतरीन प्रदर्शन करना चाहते हैं, लेकिन वे सदियों से चली आ रही परम्परा को टस से मस नहीं कर पा रहे हैं।

ब्रिटिश काल से चली आ रही शिक्षा प्रणाली आमजन के गुणसूत्रों में समा चुकी है। जड़ हो चुकी इस प्रणाली की सड़ांध आपको भी महसूस होगी, जब आप जानेंगे कि भारत उन देशों में शामिल है जिनमें प्रति वर्ष सबसे ज़्यादा लॉ ग्रेजुएट उत्पादित होते हैं। जबकि देश मे ‘नॉलेज ऑफ लॉ’ दहाई का अंक भी नहीं छू पाती।

इंडियन काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन के मुताबिक देश के तकरीबन साठ फीसद इंजीनियर बेरोज़गार हैं। निसंदेह उन्होंने फीस पूरी भरी होगी, उसमें कोई रियायत नहीं मिलती। कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे निजी इंजिनियरिंग कालेज अब कमीशन देकर ग्राहक (छात्र) ढूंढ रहे हैं। निजी क्षेत्र के लिए यकीनन यह भारी मुनाफे का व्यवसाय है।

सरकारी स्कूल शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं। ऐसी स्थिति में पांचवीं और आठवीं की बोर्ड परीक्षाओं के फॉर्म जमा करवाने, छात्र प्रोफाइल बनाने और न जाने कौन-कौन से फॉर्म भरने के कारण बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है। बाकी की रही-सही कसर बीएलओ वाले काम से पूरी हो जाती है। सामान्यतः शिक्षक सिवाय शिक्षा प्रदान करने के अन्य सभी काम करते हैं। गिने चुने इंटर कॉलेज भी अध्यापकों की भारी कमी से जूझ रहे हैं। वहां संविदा पर शिक्षक रखे जा रहे हैं, जिनका मानदेय एक निरक्षर मज़दूर से भी कम होता है।

अंतर्राष्ट्रीय स्कूलों की रैंकिंग के मामले में लगातार टॉप पर रहने वाले देश फिनलैंड के स्कूलों की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को आदर्श माना जाता है। बच्चे करीब सात साल की उम्र में स्कूल जाना शुरु करते हैं जबकि भारत में 3 साल में।

फिनलैंड में शिक्षा का ज़ोर परखने से अधिक सिखाने पर होता है। वहां हाई स्कूल में स्कूल छोड़ने के पहले एक अनिवार्य परीक्षा देनी होती है। उसके पहले की क्लासों में शिक्षक बच्चों के असाइनमेंट पर विस्तार से केवल अपना फीडबैक देते हैं, कोई ग्रेड या अंक नहीं। वहां हर बच्चे पर ध्यान देकर उसके किसी खास हुनर को पहचानने और उसे बढ़ावा देने पर ज़ोर होता है। क्योंकि वहां शिक्षकों को नए नए प्रयोग करने की पूरी आज़ादी होती है। केवल स्कूल ही नहीं बल्कि कॉलेज की पढ़ाई भी फिनलैंड में मुफ्त है। वहां प्राइवेट स्कूल नहीं होते।

भारत सरकार ने शिक्षा व्यवस्था में सुधार हेतु पूर्व प्रशासक टी.आर. सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में समिति का गठन किया था। समिति ने सिफारिश की, शिक्षा व्यवस्था हेतु अलग सिविल सर्विस कैडर बनाया जाय, यूजीसी का उन्मूलन आदि करने जैसी तमाम सिफारिशें की। इस समिति की रिपोर्ट पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। उल्टे शिक्षा हेतु बजट में कटौती कर दी गई।

शिक्षा में सुधार लाने के लिए सरकार को वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। तकनीक की सहायता से शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति लाई जा सकती है। जिसका प्रत्यक्ष लाभ देश की उत्पादकता में देखने को मिलेगा। शिक्षा के संबंध में ऐसा माहौल तैयार किया जाना चाहिए कि छात्र को किसी कोचिंग सेंटर की आवश्यकता न रहे।


फोटो प्रतिकात्मक है।
आभार- Getty Images

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