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चश्मदीद: गोधरा कांड के दिन ही मैं ट्रेन से गुजरात जा रहा था

ज़िंदगी में इत्तेफाक कम ही होते हैं, लेकिन जो होते हैं वो वजह या नाम से ज़रूर याद रह जाते हैं। मेरे लिये ज़िंदगी का सबसे बड़ा इत्तेफाक था 27 और 28 फरवरी 2002 का दिन। मैं इस समय एक पढ़ा-लिखा बेरोज़गार नौजवान था, ज़िंदगी में ऐसा कुछ भी नहीं था जो मुझे किसी उम्मीद या आशा से जोड़ सके। एक 24 साल के नौजवान को हर मोड़ पर अपने माँ-बाप पर निर्भर होना पड़ता था। ऐसे में जब आपका छोटा भाई अपने पैरों पर खड़ा हो तो आप उसके लिए तो खुश होते हैं लेकिन आप खुद इस समाज के लिए हंसी से ज़्यादा और कुछ नहीं रहते।

इसी सामाजिक निराशा से निजात पाने के लिये 2002 की जनवरी के पहले हफ्ते में, मैं अहमदाबाद से पंजाब के लिये रवाना हो गया था और वापसी की टिकट 27 फरवरी 2002 की थी। ट्रेन थी जम्मूतवी-अहमदाबाद एक्स्प्रेस, जो बठिंडा में शाम के 6 बजे के आसपास पहुंचती थी।

ताऊ जी, जिन्हें हम बड़े पापा कहते हैं, दोपहर 1 बजे के आस पास टीवी पर खबरों को देख कर इस बात की पुष्टि कर चुके थे कि गोधरा में दंगाइयों ने साबरमती एक्सप्रेस के एक कोच को आग लगा दी थी। जहां सभी यात्रियों के मारे जाने की खबर थी, लेकिन किसी को भी इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि गोधरा में लगी ये भीषण आग, पूरे गुजरात को अपने चपेट में ले लेगी। यही कारण था कि ना मैंने और ना ही किसी घर के व्यक्ति ने भी ये सोचा था कि मुझे उस दिन सफर नहीं करना चाहिए।

रात को गाड़ी, अपनी गती से मंज़िल की ओर बढ़ रही थी और हम सारे मुसाफिर अपनी-अपनी गहरी नींद में थे। कहीं भी भय का माहौल नहीं था कि इसी दिन गोधरा में ट्रेन को जलाया गया है तो हम किस तरह सुरक्षित हो सकते हैं ? लेकिन ये सवाल कहीं भी हमारे ज़हन में मौजूद नहीं था। अगले दिन करीबन दोपहर 12 बजे के आस पास रेलगाड़ी गुजरात सीमा में प्रवेश कर चुकी थी। पहला स्टेशन पालनपुर था, लेकिन यहां आम ही माहौल था।

लेकिन जैसे ट्रेन अपनी गति से आगे बढ़ती जा रही थी, स्टेशन सिद्धपुर, उंझा, मेहसाणा यहां दूर-दूर तक आग की लपटें दिखाई दे रही थी, शहर जल रहा था, जलाने वाले कम थे, मुझ जैसे असहाय, चश्मदीद बहुत ज़्यादा थे, लेकिन व्यवस्था जो इस आग को बुझाने का दमखम रखती है, वह अपनी मौजूदगी का एहसास कहीं भी नहीं करवा रही थी।

लेकिन एक सवाल ये था कि जब पूरा शहर, उत्तर गुजरात जल रहा था तब हमारी गाड़ी अपने पथ पर, नियमति गति से और सही समय पर कैसे चल रही थी, क्या ये हुल्लड़ किसी क्षेत्र या समुदाय तक ही सीमित था? इस वक़्त सवाल बहुत थे लेकिन जवाब बहुत कम, जब साबरमती पर इस ट्रेन को छोड़ा और घर के लिये ऑटो लिया, तो रास्ते में लोगों का हुजूम दिख रहा था, कही भी सड़क पर प्राइवेट वाहन नहीं चल रहे थे।

घर पहुंचा तो टीवी पर मोदी जी का भाषण सुन रहा था। जहां वह विधानसभा में अपने वक्तव्य में कह रहे थे  ”इस घटना से गुजरात सरकार पूरी कड़ाई के साथ निपटेगी, और किसी भी कसूरवार को बख्शा नहीं जायेगा, ताकि आने वाले समय में कोई इस तरह की घटना को अंजाम देने की कोशिश ना करे” इसके पश्चात, विधानसभा की कार्यवाही को स्थगित कर दिया गया। मोदी जी के इस भाषण में गुस्सा था लेकिन शांति बनाए रखने के लिये शब्द कम थे या शिकायतों की आड़ में ओझल कर दिये गये थे।

सड़क पर हुजूम चश्मदीद बनकर खड़ा था, उसी दिन सुबह विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने जबरन सभी दुकाने ओर बाज़ार बंद करवा दिये थे जिसमें हमारी भी दुकान थी, दरअसल गोधरा कांड के विरोध में विश्व हिंदू परिषद ने 28 फरवरी 2002 को गुजरात बंद का आह्वान किया था, जिसका समर्थन बाकी सभी हिंदू संस्थाओ ने किया था। बंद दरवाज़े के भीतर सत्ता रूढ़ पार्टी भाजपा का भी इस बंद को समर्थन था।

घर के पास ही कुछ कदमों पर, कबीर रेस्टोरेंट था, अहमदाबाद मेहसाणा रोड पर। चांदखेड़ा ओर रामनगर के बीच स्थिति इस रेस्टोरेंट के खाने की अक्सर लोग तारीफ करते थे लेकिन कभी इंसान ने इस बात की ज़रूरत नहीं समझी कि रेस्टोरेंट के मालिक का पता किया जाए। पता नहीं दंगाइयों को इस बात की कैसे भनक पड़ गई थी कि ये किसी मुस्लिम का रेस्टोरेंट है क्योंकि अब ये रेस्टोरेंट धू-धू कर जल रहा था। अब इतने समय में ये तथ्य सामने आ चुके हैं कि 2002 के दंगो में जान माल का बहुत नुकसान हुआ था।

मुस्लिम समाज को आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर करने के लिये चुन-चुन कर मुस्लिम कारोबारी स्थानों को जलाया गया था, कई ऐसे भी स्थान थे, जहां जलाने से पहले जम कर लूट पाट की गई थी। कबीर रेस्टोरेंट मेरे आने से पहले ही जला दिया गया था लेकिन एक बात की गारंटी दे सकता हूं कि जितने भी मेरे गुजराती दोस्त थे, या जिनको ज़िंदगी में कम से कम एक बार भी देखा था, वह कोई भी इस आगजनी की घटना में दोषी नहीं था, हां मेरी तरह चश्मदीद ज़रूर हो सकता है। तो आगजनी को अंजाम देने वाले कौन लोग थे, पता नहीं।

अगर आपका सवाल है कि व्यवस्था और खाकी कहा मौजूद थी तो मुझे ये कहीं भी नहीं दिखाई दी और ना ही आग बुझाने वाले कर्मचारी, शायद पूरी की पूरी व्यवस्था चश्मदीदों की भीड़ में ही कही मुंह छुपाकर बैठी थी।

2002 के शुरूआत के गुजरात उपचुनाव में दो जगह भाजपा की हार हुई थी और एक जगह जो भाजपा की सबसे मजबूत सीट थी राजकोट वहां से स्वयं मोदी जी कुछ ही मतो के अंतर से जीते थे, अब इसे भी इतिफाक कहेंगे कि बतौर विधानसभा के सदस्य के रूप में मोदी जी ने तारीख 24 फरवरी 2002 को राजकोट असेंबली सीट जीती और 27 फरवरी को गोधरा कांड हो गया।

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