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टिकट वाले वॉटर पार्क से कई अच्छा था बचपन का मेरा नहर

मौसम एकदम चटकार था, धूप-छाव का रोमांचक खेल चल रहा था, हवा में एक अजीब सी गर्माहट महसूस हो रही थी। माथे पर पसीने की बूदें उगंलियों से पोछते हुए मैं घर के बाहर लगे बड़े से नीम के वृक्ष के नीचे तन्हा बैठ अपने मोबाइल में स्नेक का रिकॉर्ड तोड़ने में लगा हुआ था। कपड़े और शरीर की चिपचिपाहट ऐसी महसूस हो रही थी कि बस मन तो यही कर रहा था कि बाल्टी में ठंडा पानी डाल के बईठे रहें। वो तो नीम का पेड़, गर्म हवाओं को फिल्टरकर थोड़ी राहत पहुंचा रहा था।

धीरे-धीरे मोहल्ले के अन्य लड़के भी वहीं एकत्रित होने लगे। खेतों में रोपनी करती महिलाएं एक स्वर में गीत गा रही थीं जो पता नहीं किस सुर ताल के इन्जीनियर ने कम्पोज़ किया था। दूसरी तरफ के खेतों में एक ओर से आती धूप और छाव, मखमल सी कोमल हरियाली के कलर को कभी डार्क तो कभी लाईट ग्रीन करती चली जा रही थी। इस मनोहर दृश्य को देख मेंटली थोड़ी राहत ज़रूर मिल रही थी पर फिज़िकली नहीं। सूर्य नामक विलेन अब ठीक कपार के ऊपर आ चुका था, मगर बादल नामक नायक से उसकी लड़ाई जारी थी, इधर बैठका अब हाउस फुल हो चुका था।

फोटो प्रतीकात्मक है; फोटो आभार: flickr

अशोक, मोना, सुनील, महेश, मेंघू, बब्लू,आमिर सहित कई मित्रों का जमावड़ा लग गया। मेंघुआ ने पसीना पोछते हुए बड़ी उत्सुकता से कहा “अबे भईया बड़ी गर्मी बा! चला जाए का डुबकी लगाने?” बस फिर क्या था, नाक बन्द करके डुबकी का इशारा मतलब नहर में नहाना होता था। सभी के शरीर में एक तरंग संचारित हो उठी। “रुक जाओ जंघियां लेकर आ रहे” प्रफुल्लित ह्रदय से मैं दौड़ते हुए अपने पिता जी की अरगनी पर टंगी अमूल कम्फी उठाकर मैं चुपके से बाहर आया।

पूरी टोली चिऊरहाँ नहर की तरफ रवाना हो गई। गर्म हवाएं सड़कों से धूल उड़ाती हुई अपनी दुष्टता की परकाष्ठा को पार कर रही थी, लेकिन अब उस चिलचिलाती धूप और गर्म हवाओं का असर हम पर नहीं होने वाला था। अब तो मन उछल रहा था और कदम तेज़ी से नहर की तरफ बढ़ रहे थे। “ए सुनील! अबे हम पौंर नहीं पाते हैं तनि हमको पौंरना सिखा देना” बड़ी उम्मीद से मैंने सुनील से कहा। “ठीक है यार एकदम” रौनक की पुड़िया मुंह में उड़ेलते हुए सुनील ने कहा, दरअसल सुनिलवा अपने ग्रूप का “सुन यांग (मशहूर ओलम्पिक पदक विजेता चीनी तैराक)” था।

नहर पहुंचे तो डबाडब पानी देखते ही सबको सुस्सू फील होने लगी। यूरीन ब्लैडर खाली करते हुए बिना किसी देरी के बारी-बारी कपड़े उतार सभी विचित्र स्टाईल में नहर में कूदना शुरू कर दिए। आहिस्ता-आहिस्ता आफताब चचा (सूर्य) बादलों की आगोश में आ रहे थे, तपती हवाएं अब बदन पर ठंडी महसूस हो रही थीं। शक्तिमान सहित विश्व के तमाम सुपर हीरो, सुनिलवा, मोनवा, असोकवा, मेंघुआ सहित सभी में प्रवेश कर चुके थे।

अबे हई देख… शक…शक…शक…शक…शक्तिमान…बोलते हुए मेंघुआ ने छलांग लगाई। ज्यों ही एक डुबकी ले के मोनवा ऊपर आया लगभग 70 कीलो के वजन से मोनवा उसी में दफन हो गया। कुछ सेकेंड बाद अरि… माई…अरि दादा… कहते हुए अपना मूड़ी पकड़ते हुए बाहर निकला और बोला, “अबे भक्क्क… साले देख के नाहीं कूद पावत रहले का बे।”

अब बादल घिर रहे थे, काली घटा का घमण्ड धीरे-धीरे बढ़ रहा था। अचानक रिमझिम फुहारों से माहौेल खुशनुमा हो उठा… सबकी आंखें सुर्ख लाल होने के बावजूद एनर्जी लेवल हाई होने लगा। सभी का मन मुलायम से मोदी होने लगा। उधर आमिर अभी सनपाता हुआ है, कि नहर में उतरे तो कैसे? चुपके से दू मिला अमिरा को ढकेल दिए, अफनाते हुए अमिरा गालियां देने लगा। बगल के बगईचा में आम और जामुन के वृक्षों को हवा की बौछार झकझोरने लगी। जेठ अचानक माघ में तब्दील हो चुका था। अब सारे के सारे सुपर हीरोज़ ठंड से पीपर पात की भांति कांप रहे थे।

शाम के साढ़े चार बज चुके थे, अब समय बिन बदन पोछे घर जाने का हो रहा था। “ए मोना मेंरा अंखिया लाल नहीं है ना?” पिता जी की भयंकर कुटाई को मने-मन सोचते हुए मैंने मेंघू से पूछा। अब मन मोदी से मनमोहन हो रहा था। अब तो यह शेड्यूल आदत में शुमार हो चुका था। अब एक इशारा काफी था, अमिर का डर छू मंतर हो चुका था। अब त कलईया खेल के कूद जाता है और बबलुआ अब भी लाज सरम रामधनी के वहां बेच के नहाता है।

अदीब… अदीब… ज़ोर की आवाज मेरे कानों में पड़ते ही मैं इस गहरी सोच से बाहर आ गया। ये आवाज़ अरमान अली की थी, चारों तरफ चीखने- चिल्लाने की आवाज़ के साथ “पानी वाला डांस”, “आज ब्लू है पानी-पानी” जैसी डीजे की धुन बज रही है। तमाम कूल ड्यूड और ड्यूडनियां चिल्लाते हुए सरक रहीं हैं। दरअसल मैं “नीर निकुंज पार्क” में एक जगह बैठ इन गुज़रे हुए खूबसूरत पलों को सोच रहा था कि वक्त नामक राक्षस ने उन खूबसूरत पलों को लील लिया और उस प्राकृतिक वॉटर पार्क को प्रदूषण ने।

अब ना ही वो जामुन का बागीचा है और ना ही नहर का वैसा पानी। खेत तो हरे भरे दिखते हैं पर पता नहीं क्यों मन गुलाबी नहीं होता। सब कुछ कितना तेज़ी से गुज़रता हुआ सिमटता जा रहा है ना? सोचकर दिल सहम सा जाता है! वो भी क्या दिन थे? वक्त के साथ ज़िंदगी की धुंधली होती ये दो तस्वीरें जब देखता हूं तो अचानक एक बारिश का झोंका मुझे भिगोता हुआ चला जाता है।

फोटो आभार: getty images

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