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“मेरे लिए दिवाली प्रकाश का पर्व था, ना जाने ये पटाखों का पर्व कब से हो गया”

मेरी दिवाली या यूं कहें कि मेरे लिए दिवाली कुछ मिठाइयां, खूबसूरत ठंड की शुरुआत, कुछ दीये, मोमबत्तियां और खुशियों से भरा एक त्योहार है। आम तौर पर त्योहारों की सबसे खूबसूरत यादें हमारे बचपन से जुड़ी होती हैं। आपकी भी होंगी, तो याद कीजिये न आप अपना बचपन। जैसे-जैसे दिवाली पास आती थी हमारे हिन्दी के मास्टर जी दिवाली से जुड़ी कई बातें बताया करते थे, साथ ही हमे दिवाली पर लेख लिखने को भी दिया जाता था।

हम लिखा करते थे कि दिवाली प्रकाश का पर्व है, ना जाने वो कब पटाखों का पर्व हो गया।

तब हम सिर्फ इसलिए दिवाली नहीं मनाते थे कि उस्मान ने भी तो बकरीद पर बकरे काटे थे, तब हम यह नहीं कहते थे कि हमे हमारा पर्व मनाने की आज़ादी दो। पर्वों को तो आज़ाद मन से ही मनाया जाता है। मैं अपनी बात करूं तो मुझे बचपन से ही पटाखों से बहुत डर लगता था।आज मुझे गर्व है कि एकाध फुलझड़ियों के अलावा मैंने कोई और पटाखे नहीं जलाएं। हो सकता है कि एक किसी खास तबके को मैं हिन्दू विरोधी भी लगूं, लेकिन मेरे लिए उन जैसों का कोई अस्तित्व नहीं है।

आज हम बहस में डूबे हुए हैं और हमे अपने धर्म का मूल तक याद नहीं। शांति, हमारे धर्म के मूल मे है, ये कैसा पर्व मनाने की बात हम कर रहें हैं जिसमे अशांति ही अशांति है। दिवाली के एक दिन पहले से लेकर दो दिन बाद तक पटाखों की आवाज़े आती रहती हैं। आज भी जब मैं लिख रहा हूं तो कई बार इन पटाखों ने मेरा ध्यान भटकाया है।

मुझे याद है मेरी दादी को पटाखों की आवाज़ से बहुत डर लगता था। उम्र हो या कोई और बात, पर उन्हें उस आवाज़ से परेशान होते हुए मैंने पास से देखा है। रात-रात तक न सोना, आवाज़ होने पर डरना, इत्यादि। असली दिवाली शायद हमने कहीं खो दिया है, यह तो उसका अपभ्रंश है, जो कि डरावना भी है और क्रूर भी। मैं कुछ दिन पहले नज़ीर अकबराबादी को पढ़ रहा था, उनकी नज़र से दिवाली को जब देखा तो ऐसा लगा जैसे यह जो कुछ भी हम देख रहे हैं या जो कुछ भी आजतक देखा है वह सब फीका है, बेकार है।

हमें अदाएं दिवाली की ज़ोर भाती हैं ।
कि लाखों झमकें हर एक घर में जगमगाती हैं ।।
चिराग जलते हैं और लौएं झिलमिलाती हैं ।
मकां-मकां में बहारें ही झमझमाती हैं ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।1।।

गुलाबी बर्फ़ियों के मुंह चमकते-फिरते हैं ।
जलेबियों के भी पहिए ढुलकते-फिरते हैं ।।
हर एक दाँत से पेड़े अटकते-फिरते हैं ।
इमरती उछले हैं लड्डू ढुलकते-फिरते हैं ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।2।।


एडिटर्स नोट– YKA पर इस हफ्ते हम पटाखा मुक्त दिवाली मनाने के आईडियाज़ और निजी अनुभवों को साझा कर रहे हैं। आइये इस दिवाली सिर्फ शोर ना करें बल्कि रौशन करें एक ज़िंदगी, आइये इस दिवाली पटाखों का डर नहीं रिश्तों में मिठाइयों की मिठास घोलें। और अगर आपके पास भी है पटाखा मुक्त दिवाली मनाने की कोई कहानी, बचपन से जुड़ी कोई याद या दिवाली को बेहतर बनाने का कोई आइडिया तो ज़रूर लिखिए और इस हफ्ते हम उसे साझा करेंगे आपके और हमारे पाठकों के साथ। ये दिवाली बिना पटाखों वाली

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