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‘जाने भी दो यारो’ जैसा जादू खुद कुंदन शाह भी दुबारा नहीं कर पाएं

कुंदन शाह अब हमारे बीच नहीं हैं,पर उनकी उपस्थिति सदैव रहेगी एक कालजयी फ़िल्म “जाने भी दो यारो” से उस तरह की फिल्म दुबारा कभी देखने को नहीं मिली। यहां तक कि कुंदन भी उस करिश्में को दुबारा अंजाम नहीं दे सकें। सभी ने कुंदन जी के बारे में बात की, लिखा पर मैं उस जादुगर को केवल इस जादू के लिये ही याद करूंगा। यह फिल्म अपने आप में एक कभी ना दोहराया जाने वाला जादू ही था। ‘जाने भी दो यारो’ वह फिल्म है जिसे आप किसी भी काल, समय में देखें तो पाएंगे जैसे आज की ही बात करती हो। हंसते हंसाते इस हद तक सिस्टम पर चोट करती कोई दूसरी फ़िल्म नही मिलेगी।

फिल्म के एक-एक पात्र आपके मन मस्तिष्क में छाप छोड़ते हैं और यह जादू कुंदन शाह की काबलियत बताता है एक निर्देशक के रूप में कि इतने सालों बाद भी ओम पुरी,नसिरुद्दीन शाह, रवि वासवानी, सतीश शाह, पंकज कपूर, सतीश कौशिक, नीना गुप्ता फिल्म के सभी पात्र आपको याद हैं। यह फिल्म मौजूदा दौर में और भी प्रासंगिक हो जाती है जब अभिव्यक्ति की आज़ादी दांव पर लगी हुई है, जब सरकार के खिलाफ बोलना देशद्रोह माना जा रहा है।

1983 में आई यह फिल्म ना सिर्फ राजनीति, ठेकेदार, माफ़िया और मीडिया के नेक्सस पर चोट करती है बल्कि क्लाइमेक्स के महाभारत से हंसा हंसा कर लोटपोट कराते यह भी बताती है कि वह दौर ज़्यादा सहिष्णु था। तब लोग व्यंग्य समझते थे, अपनी भावनाएं आहत कर फिल्म को बैन नहीं कर देते थे।

और यही एक कारण है कि जाने भी दो यारो जैसी फिल्म ना दुबारा बनी ना अब बन सकती है, क्या मौजूदा सेंसर बोर्ड भगवान पर व्यंग्य नेताओं पर व्यंग्य समझेगा? बिना किसी कट के फिल्म पास करेगा? कुंदन उस समय कैसे कर गए आश्चर्य होता है, फिल्म में दिखाए दो बेरोज़गार परेशान युवक किस तरह पूरे सिस्टम के जाल में फंसते चले जाते हैं और आखिरी तक गुनगुनाते हैं कि हम होंगे कामयाब एक दिन, मानो आज की ही बात कर रहे हों।

मुझे याद है जब मैंने यह फिल्म बचपन में देखी थी, तो बार बार रिवाइंड करके देखता था और खूब हंसता था एक एक डायलॉग पर, तब राजनीति की समझ नहीं थी, बस डायलॉग गुदगुदाते थे, सारे पात्रों की लाजवाब एक्टिंग हंसाती थी। बड़े होकर फिर फिल्म देखी तो समझा कि यह फिल्म बस एक कॉमेडी फ़िल्म ही नहीं थी उससे कहीं ज़्यादा थी और तब असल जादू समझ आता है निर्देशक का।

उसने वह जादू रच दिया था जो बच्चें बूढ़े जवान सब को अलग-अलग दिख रहा था एक ही समय में, बच्चें जहां सिर्फ चुटकुलों का लुत्फ ले रहे थे, जवान अपने आप को रिलेट कर रहे थे मुख्य पात्र नसिरुद्दीन शाह और रवि वासवानी से और बुज़ुर्ग राजनीति की पेचीदगियां समझ रहे थे। यह एक कुशल निर्देशक का ही जादू था जिसने हर वर्ग को बांध लिया था कुर्सी से और स्तब्ध से बैठे लुत्फ लेते रहे बिना किसी बोरियत के।

जाने भी दो यारों मेरी नज़र में एक कंप्लीट फ़िल्म हैऔर कुंदन शाह एक कंप्लीट निर्देशक आप अब नही हैं कुंदन, पर जो कुंदन आपने अपने पारस टच से इस फिल्म के रूप में दिया है, आपको अमर कर जाता है। विनम्र श्रद्धांजलि उस जादुगर को जो कह गया जाने भी दो यारो और दे गया मन में विश्वास कि हम होंगे कामयाब एक दिन।

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