Site icon Youth Ki Awaaz

“भीड़ के बहाने मेरे बूब्स और हिप्स छूने वाला यह भारत महान नहीं हो सकता”

IMPACT: इस लेख के बाद बहुत सी महिलाओं ने असहज कर देने वाली भीड़ को लेकर अपने अनुभव साझा किये। 1 लाख से ऊपर लोगों ने पढ़ा और सोशल मीडिया पर एक बड़ी बहस की शुरुआत हुई।

कुछ ‘अनचाहे अनुभव’ जब तक हम किसी से बांटते नहीं हैं, तब तक हमें ऐसा लगता है कि वो सिर्फ हमारे साथ हुए हैं। फिर जब उसे हम किसी अपने के साथ बांटते है, उस पर सहजता से बात करना शुरू करते हैं, तब हमें यह पता चलता है कि ऐसे ही अनुभव और लोगों के भी हैं। फिर हम उनके कारणों और उसके निवारन पर विचार करते हैं। फिर उसके लिए कोशिश भी करते हैं।

दस साल गर्ल्स हॉस्टल में गुज़ारने के दौरान मैं और मेरी सहेलियां अक्सर इसी प्रक्रिया से गुज़रें। पहले हममें से कोई अकेली कहीं जाती थी और उसे ऐसा कोई ‘अनुभव’ मिलता था तो वह डर जाती थी, और किसी से बताती नहीं थी। उसके बाद कई बार कमरे पर आकर अकेले में रोती थी। फिर अकेले कहीं जाने से बचती थी। बहुत ज़रूरी भी काम तब तक टालती थी जब तक टाला जा सके या जब तक साथ में जाने वाला कोई मिल न जाए।

लेकिन फिर कई बार ऐसा भी हुआ कि वे किसी के साथ गईं तो भी उन्हें और साथ गई सहेली दोनों को ऐसे अनुभवों से गुज़रना पड़ा। फिर वे दोनों डर गईं, कमरे पर आकर साथ में रोष जताया, क्रोधित हुईं, रोईं, चिल्लाईं, गलियां दी। फिर ये निर्णय लिया कि हम ये बात किसी से नहीं बताएंगे। फिर ऐसा हुआ कि वे बाहर जाते समय समूह में जाने की कोशिश करने लगी। उन्हें ऐसा लगा कि वे भीड़ में रहेंगी तो कोई उनके साथ ऐसा नहीं करेगा। पर एक दिन ऐसा भी हुआ कि वे भीड़ में थी और उनमें से किसी को उस ‘अनचाहे अनुभव’ का सामना करना पड़ा। वे अवाक थीं,  इस बार उन्होंने साथ में रोष जताया, गालियां दी, कोसा भी, कभी खुद को, कभी समाज को, कभी उन अनुभव देने वालों को जिनका चेहरा वो कभी देख पाती थी तो कभी नहीं भी देख पाती थी। कभी वो खुद के लड़की होने पर क्रोध जताती थी तो कभी खुद के असमर्थ होने पर। अगर उनका बस चला होता तो वो उन्हे यहां मारती, वहां मारती, पुलिस में दे देती, भीड़ से पिटवाती आदि।

फिर वे साझा करना शुरू करती कि उनके साथ इस से पहले कब-कब क्या-क्या हुआ था। किसी को मंदिर की भीड़ में किसी ने छूने की कोशिश की थी, तो किसी को बाज़ार की भीड़ में किसी ने दबोचने की कोशिश की थी, किसी को ट्रेन में किसी ने दबाने की कोशिश की थी तो किसी को बस में किसी ने ज़बरदस्ती छूने की कोशिश की थी। फिर उन्हें महसूस किया कि उनमें से हर किसी के साथ यह हुआ था, कहीं न कहीं, कभी न कभी।

उन लड़कियों की संख्या कम या ज़्यादा होना महत्वपूर्ण नहीं था बल्कि बाहर ऐसे लोगों का होना महत्वपूर्ण था जो अलग शक्लों और उम्र के होते थे और अक्सर भीड़ या सुनसान जगह होने का फायदा उठाकर छूने की कोशिश करते थे, दबोचने की कोशिश करते थे, कुछ नहीं तो दूर से ही ऐसे इशारे करते थे जो आपके मन में घिन पैदा कर दे। और आपको समझ में न आये कि आपको घिन किस से हो रही है, खुद से, समाज से, उस व्यक्ति से पता नहीं।

फिर कई बार वे इस सब पर आर्टिकल्स भी पढ़ती, अलग अलग रिसर्चेज़ पढ़ती, समाधान के लिए अपनाए गए कई सरकारी और गैर सरकारी तरीकों को पढ़ती , खुद अपनी राय भी व्यक्त करती। कईयों को लगता कि इसके लिए पुरुष ज़िम्मेदार है, पुरुष होते ही ऐसे हैं , कईयों को लगा, नहीं कुछ लड़कियों के चलने और पहनने का ढंग लडको को उकसाता है और वे सभी महिलाओं के साथ ऐसा करने लगते हैं, कईयों को लगता कि समाज इसके लिए ज़िम्मेदार है, लड़के और लड़कियों की अलग-अलग ढंग से परवरिश ज़िम्मेदार है। फिर चर्चाएं बहुत लम्बी और सहज होती जाती। इसी सहजता ने उनके प्रतिक्रिया करने के तरीके को भी धीरे धीरे बदलने लगा | अब वे रोती नहीं थी।

एक बार मेरी दो सहेलियां पास के लल्लाचुंगी के मेडिकल स्टोर पर दवा लेने गईं। उन्होंने अपना चेहरा मेडिकल स्टोर की तरफ किया हुआ था। तभी किसी ने आवाज़ दी, बहुत धीरे से, इतना धीरे कि कोई और न सुन सके, जैसे उसके कान में कहा गया हो , “ दूध दे दो”। उसने जब पीछे मुड़ कर देखा तो एक बूढ़े आदमी ने उसके ब्रेस्ट की तरफ देख के इशारा किया। तभी वहां खड़े लोगों को एक झन्नाटेदार थप्पड़ की आवाज़ सुनाई दी और सभी एक साथ चौंक कर पीछे मुड़ें, क्या हुआ? क्या हुआ? सभी पूछने लगें वो बूढा आदमी थप्पड़ खाकर इतना तेज़ दौड़ा कि पांच मिनट में गायब हो गया। सबकी सवालिया निगाहों को मेरी सहेली ने मुस्कुराते हुए “कुछ नहीं हुआ” कह कर शांत करा दिया।

इसी तरह एक बार मैं और मेरी सहेलियां कुम्भ के दौरान संगम घूमने गई। अधिक भीड़ के चलते हम मेले के किनारे के हिस्से में चलने लगें। जहां अपेक्षाकृत सन्नाटा था और अंधेरा भी। सामने से एक व्यक्ति आता दिखा जो खुद को डंडी स्वामी कहकर सबको आशीर्वाद देता हुआ दूर से चला आ रहा था। जब हम थोड़ा और आगे बढ़ें तो वहां कोई और नहीं था | बस मै, मेरी दोस्त और सामने आ रहा वो ‘स्वामी’।

मैंने ध्यान दिया कि उसकी नज़रें मेरे शरीर के ऊपरी हिस्से को घूर रही थी। उसके घूरने के तरीके से मैं थोड़ी चौकन्नी हो गई थी और पता नहीं मुझे कैसे ये लगा कि ये कुछ घिनौनी हरकत करेगा। हम दोनों सड़क के और किनारे से कट कर जाने कि कोशिश कर रहे थे कि तभी उसने हाथ उठा कर मेरे बूब्स को छूने की कोशिश की। उससे बचने की कोशिश में हम दोनो गिरते-गिरते बचें। और संभल के जब तक पीछे मुड़ते तब तक वह न जाने कहां गायब हो गया था। इस बार हम डर के भागे नहीं। हमने उसे ढूंढा पर वह कहीं नज़र नहीं आया।

ऐसे ही एक बार हम मनकामेश्वर मंदिर गये, उस वक्त सावन था शायद, भीड़ बहुत ज़्यादा थी। उसी भीड़ में हम लोग प्रसाद खरीदकर जल्दी से लाइन में लगने की कोशिश में थे कि तभी मुझे महसूस हुआ की कोई मेरे हिप्स को छू रहा है। पहले मुझे लगा किसी के कपड़े से छू रहा होगा इसलिए मैंने इग्नोर किया। लेकिन दोबारा फिर मैंने ऐसा ही महसूस किया। मैं जल्दी से पीछे मुड़ी,  मुझे अपने पीछे सभी ऐसे ही अपने बाल-बच्चों के साथ प्रसाद खरीदने या इधर- उधर जाने में व्यस्त दिखें।  मुझे समझ नहीं आया कि मैं किसको बोलूं कौन कर रहा है ऐसे ? कुछ समझ नहीं आया तो मैं फिर आगे देखने लगी। मैंने फिर उस जगह को ही बदल दिया। हम लोगों को फिर ये महसूस हुआ कि ऐसी हरकत करने वाले लोग अक्सर भीड़ की शक्ल में होते हैं, ऐसी हरकतें करते हैं और अपनी यौन कुंठा को तुष्ट करके भीड़ में शामिल हो जाते हैं। ये लोग कोई भी हो सकते हैं, शादी-शुदा, बाल-बच्चेदार, बूढ़े, अधेढ़, जवान, अकेले या पत्नी और बच्चो के साथ कोई भी।

पर हर बार भीड़ की शक्ल लेकर बचना आसान नहीं होता। मैं PCS प्री. का एग्ज़ाम देने ट्रेन से जा रही थी। मैं और मेरी जूनियर महिला बोगी में ऊपर की सीट पर बैठे। तभी स्टेशन पर कुछ अधेड़ उम्र के पुरुष उसी डिब्बे में बैठे। उनमें से एक ठीक मेरी सीट के नीचे बैठा। थोड़ी देर बाद मुझे फील हुआ की मेरे थाईज़ में कुछ चुभ रहा है | मैंने तुरंत अपना पैर उठाया, ये देखने के लिए कि कोई कीड़ा तो नहीं है या फिर सीट में कुछ ऐसा लगा है क्या जो चुभ रहा हो। पर जब मैंने पैर हटाया तो देखा की उस आदमी ने अपनी दो उंगलिया उस टूटे सीट की लकड़ियों के बीच में से सीधे खड़ा किया था। मैंने अपनी जूनियर को दिखाया, फिर बिना कोई आवाज़ किये थोड़ा सा बांए खिसक गई, ये कन्फर्म करने के लिए कि वह जानबूझ के तो ऐसा नहीं कर रहा है? फिर थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि उसकी ऊंगली भी बाएं आकर मेरे थाईज़ में वैसे ही चुभ रही थी। फिर मैं और बाएं खिसक गई और अपना भारी बैग उसकी खड़ी उंगलियों पर दे मारा। उसने उंगलिया तुरंत नीचे कर ली और तुरंत सीट से उठकर चला गया।

ऐसे कई वाकये हैं जब मैं या मेरे जैसी और लड़कियां सार्वजनिक स्थलों पर लगभग रोज़ ही यहां-वहां यौन हिंसा का शिकार होती हैं। हम पहले डर जाते थे, चुप रह जाते थे, अब प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं।

ऐसा नहीं है कि हमारे रिएक्ट करने से ये घटनाएं कम हो गईं या बंद हो गईं, इतने दिनों में, मैंने और मेरे साथ रहती लड़कियों ने बदलाव अपने अन्दर ही महसूस किया, एक डरपोक लड़की से हिम्मती, समझदार और चौकन्ना लड़की बनने का। समाज में,सड़कों पर, मंदिरों में, बाज़ारों में होने वाली ऐसी घटनाए नहीं बदली। वो आज भी वैसे ही होती है ,बस अब ज्यादातर ऐसा होता है कि ऐसी हरकत होने से पहले ही हम चौकन्ने हो जाते हैं , खुद के साथ ऐसी घटना होने से रोक लेते हैं, अपनी जूनियर्स के साथ शेयर करके उन्हें भी इन बातों से बचने के लिए हिम्मत देते हैं।

रोज़ होती इन घटनाओं , ब्रूटल रेप की घटनाओं, को सुनती हूं, पढ़ती हूं , निश्चय ही इसे वो लोग भी पढ़ते होंगे जो बाद में ये सब करते हैं। अगर ये घटनाए मेरे अन्दर संवेदनशीलता जगाते हैं, क्रोध जगाते हैं, रोष जगाते हैं, तो मुझे लगता है कि उनके अन्दर भी तो जगाते होंगे जो ऐसा करते हैं। पर शायद ऐसा नहीं है। इतिहास पलट के देखती हूं तो लगता है कि समाज उन लोगों के साथ सभ्य कभी नहीं रहा जो कमज़ोर थे; शारीरिक रूप से, आर्थिक रूप से, शैक्षिक रूप से, राजनीतिक रूप से। बस इस स्थिति को कुछ लोगों द्वारा सही और कुछ के द्वारा ख़राब करने की कोशिश की जाती रही अनवरत। अहिंसक समाज की कल्पना अमूर्त और सुखद लगती है पर ऐसा कोई समाज होता नहीं है, शायद।


फोटो प्रतीकात्मक है, आभार – Getty Images

Exit mobile version