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कला – एक अभिशाप या वरदान

आज एक बहुत बड़ी बात आप सभी से साझा कर रहा हूँ | कृपया पूरी बातों को ध्यानपूर्वक समझने की  कोशिश कीजियेगा |

एक कलाकार होने के नाते मैं बखूबी इस बात से वाकिफ हूँ कि कलाकारों को हमेशा उनके सीखने और बढ़ने के दौरान बहुत बार समाज के प्रतिबन्ध को झेलना होता है | भारत में आज भी कला और कलाकारों को तिरस्कार भरी नज़रों से देखने वालों की तादाद मौजूद है | और शायद यही वो वजह है जिसके कारण आज भी हमारा देश संस्कृति में समृद्ध होने के बावजूद काफी पीछे है |

खासकर बिहार की सोच को हम देखें तो हमेशा से पीछे रहा है और हालात देखकर यही लगता है कि हमेशा पीछे रहेगा | यह बात मैं इसलिए ज्यादा बेहतर ढंग से जानता हूँ क्योंकि मैं खुद भी मूल रूप से बिहार का निवासी हूँ |

लोगों को हमेशा से ये लगता है कि कला शौकिया चीज़ है, पेशा नहीं हो सकता | जब कोई कलाकार बनकर बहुत सारे उपलब्धियों को हासिल कर लेता है तो लोग उसे पेशेवर समझकर रिश्ते जोड़ने पहुँच जाते हैं | लेकिन संघर्ष के दौर में उन्हें राह से भटकाने और दिमागी तौर पर तंग करने में समाज के 75 प्रतिशत वर्ग बाज नहीं आते |

मैं पूछता हूँ कि, आखिर ये प्रतिबन्ध कला के क्षेत्र में ही क्यों ?

अगर कोई बच्चा बचपन से कला के क्षेत्र में किसी तरह का खास हुनर रखता हो तो हमारे यहाँ उसको निखारने का रिवाज़ बहुत कम देखने को मिलता है, बल्कि डरा धमकाकर, अपनी मर्ज़ी थोपकर उसे उसके राह से पहले भटकाया जाता है फिर आस -पास के लोगों का उदहारण देकर उसे नीचा दिखाया जाता है ताकि वो बच्चा किसी तरह अपने घर और समाज का रोबोट बनकर चले |

ऐसा करके सबसे पहले तो उसे उम्र के 25-26 साल तक ले जाया जाता है और फिर कहा जाता है कि बेटे कला के क्षेत्र में बढने के लिए बहुत ज्यादा पैसे लगते हैं और हम मध्यम वर्ग के लोग कहाँ से ये सब कर पायेंगे………………? कोई छोटी मोटी नौकरी पकड लो |

असल में मजबूरी का ढोंग करके भावनाओ पर वार किया जाता है कि कहीं ना कहीं इस बताये हुए हालात को  वह अनभिज्ञ बच्चा सच मानकर अपनों का मान रखकर चले और उसकी आड़ में समाज और परिवार के ढोंगियों का मकसद पूरा हो जाये|

इन डरपोक लोगों को जानकारी के आभाव में ऐसा लगता है जैसे कि अगर इनके बच्चे इस क्षेत्र में बढ़ेंगे तो परिवार के लोग  और रिश्तेदार  क्या कहेंगे ????

बिहार में तो जैसे इंजिनियर, डॉक्टर और आई .ए .एस के अलावा इन कुँए के मेढकों को कुछ और दिखता ही नहीं | विषय का चुनाव तो अभिभावकगण ऐसे करवाते हैं जैसे लगता हो कितना अनुसन्धान करके आये हों | लेकिन कुछ ही दिनों बाद यह मालूम होता है कि दूसरे  के चुने हुए रास्ते को इन्होने अपना लिया है |

तब इनका कोई अधिकार नहीं बनता कि ये खुद के आधार पर बिना अनुसन्धान किये ही किसी खास क्षेत्र या वर्ग पर किसी प्रकार की टिप्पणी करें |

कला के क्षेत्र में रूचि रखने वाला या पेशे के रूप में उसकी इच्छा रखने वाला व्यक्ति अनपढ़ नहीं होता | इंसान पढ़ाई – लिखाई करके खुद को योग्य बनाता है | हो सकता है कि इंजीनियरिंग, मेडिकल या किसी और तरह कि पेशेवर पढ़ाई करने के साथ कोई बेहतरीन कलाकार हो, इन सबके साथ वह व्यक्ति किसी खास तरह कि कला की भी पढ़ाई किया हो और अपनी पढ़ाई को उस खास कला के क्षेत्र से जोड़कर बढना चाहता हो | उसे पेशे के रूप में अपनाना चाहता हो | हम किसी के नज़रिये को बिना सोचे समझे ख़ारिज नहीं कर सकते |

किसी भी प्रकार की मंशा बनाने से पहले हमें उसके हर पहलू पर अनुसन्धान कर लेना चाहिए | आमतौर पर देखने को ये मिलता है कि “वह व्यक्ति तो बहुत जगह जाकर कलाकारी किया, लौटकर आ गया, कहाँ कुछ हुआ” बस एक व्यक्ति के पीछे कि दास्ताँ हम जाने या न जाने, पर डर बिठाकर मन में एक मंशा बना लेते हैं कि इसमें कोई स्कोप नहीं है |

मैं पूछता कि अगर पेशे के रूप में लेना हो तो उसके इंडस्ट्री के पास जाओ, उस जगह रहकर सीखो और छोटे स्तर से बढो, एक सही समय आते खुद ही सब स्कोप दिखने लगता है | लेकिन, यहाँ टिपण्णी करने और करवाने वाले वो होते हैं जो कुँए में बैठकर तालाब के बारे में कुछ भी बोलते हैं, जबकि उन्होंने खुद कभी तालाब देखा भी नहीं | बेवकूफ लोग उनकी बातों को मानकर भी चलते हैं |

कला का अहम भाग है “नृत्य-संगीत” | यह एक साधना है जिसका फल लम्बे अरसों बाद दिखता है | अगर बचपन से इसे एक विषय की तरह सीखा जाये और लगातार अपने नित्य कर्मों में समां लिया जाये तो उच्च स्तर की शिक्षा ख़त्म होते- होते वह व्यक्ति इतना तो तैयार हो ही जाता है कि इंडस्ट्री में अपनी जगह बना सके | हाँ शुरुआत में थोड़ी दिक्कत होगी पर वह व्यक्ति कभी न कभी अपनी पहचान भी बना लेगा और अपने रोज़गार का साधन भी |

आप खुद ही सोचकर देखिये, क्या ऐसा किसी और क्षेत्र के पेशे में नहीं होता है? बेशक होता है | लोगों को बस डरने और निर्भर होने की आदत लग चुकी है | बातें बड़ी बड़ी बोलेंगे, मुहावरे और लोकोक्तियों से ऐसे ताने मारेंगे जैसे कितने बड़े बुद्धिजीवी हों, लेकिन जब बात प्रायोगिक क्षणों कि आती है तो सारी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है | उस वक़्त दूसरों से पूछकर खुद के जीवन के लक्ष्यों का निर्णय लेते हैं | नतीजा भी बाद में भुगतते हैं, लेकिन वहाँ भी जवाब होंठों पर तैयार रखते हैं “किस्मत में नहीं था, किस्मत ख़राब है” |

कला को घृणा की नज़र से देखते हैं सिर्फ इसलिए कि प्राचीन काल में  राजा – महाराजाओं के यहाँ तावायेफें इसका हुनर उनके बीच पेश करती थीं | तो इसमें जाने वाले लोग “नचनिया – गवैया हुए | उनकी इज्ज़त नहीं करते |

उन बेवकूफों से मेरा सवाल है कई तरह के विकास अलग – अलग क्षेत्रों में बाद में हुए तो क्या हमने अपनी मानसिकता को बदलकर उन विकासों को नहीं अपनाया?

किसी भी चीज़ के पीछे कुछ न कुछ वैज्ञानिक कारण और समाज की ज़रूरत होती है | फिर चाहे कुछ कट्टरपंथी लोग उसे नकार कर दुष्प्रचार फैलावें | गलती उसको मानने वालों से होती है क्योंकि बिना सोचे समझे नतीजा वो भुगतते हैं, जिन्होंने दुष्प्रचार फैलाया बिना किसी प्रभाव को झेले आराम से बैठे होते हैं, अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं |

कहने को बहुत कुछ और भी है लेकिन इतनी ही बातों को पढने से कतरायेंगे लोग, आगे लिखूंगा तो पहला वाक्य भी नहीं पढ़ेंगे  क्योंकि, हमारे यहाँ पढकर दिमाग से सोचने वाले लोग अब बहुत कम हैं सभी को इतनी जल्दी है कि कही  सुनी बातों पर अटूट भरोसा करेंगे और कहेंगे कि ये हमारे पूर्वजों ने कहा था, कारण और उद्देश्य पता नहीं लेकिन पूर्वजों की बात फिर चाहे गलत क्यों न हो, अन्धविश्वास से भरी क्यों न हो, हम तो मानेंगे क्योंकि “ये होता है तो होता है” क्योंकि पूर्वजों ने कहा है और समाज के कुछ बुद्धिजीवियों (अनभिज्ञों) ने उसे सत्यापित कर दिया है |

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