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कुछ बुनियादी सवाल जो पत्रकारिता पर उठता दिखता है….

मेरे अनुसार कुछ बुनियादी सवाल जो पत्रकारिता पर उठता दिखता है....

 

1) एक समय था जब पत्रकार जमीनी हकीकत को पाने के लिए एक जासूस, एक वकील, एक आईने की तरह बर्ताव करता था, आपको नहीं लगता TRP की लड़ाई में पत्रकारिता ऐसे मुद्दे को छोड़ चुका है ??
२) TRP  के लिए सहारनपुर जैसे मुद्दे को छोडकर सेलेब्स की दुनिया पर ज्यादा फोकस करना पत्रकारिता का “लोकतंत्र” के तीसरे पायदान से गिरता हुआ स्तर बताता है ??
 
३) आजादी के दौर की बात की जाए तो पत्रकारिता “राष्ट्रवाद, देशभक्ति और राजनीतिक चेतना” को बढाने में एक हथियार की तरह प्रयोग होता था, मगर अब यह सेलेब्स के निराधार लड़ाईयों और राजनीतिक व्यक्तित्तवों की छींकों पर ज्यादा केन्द्रित होता जा रहा है, यह पत्रकारिता के मूल स्वभाव को बिगाड़ तो नहीं रहा ?
४) पत्रकारिता एक ऐसा मंच है जिसपर आकर आम जनता भी अपनी एक अवधारणा बनाता है.. ऐसे में घटना की जांच से पहले पत्रकारों के द्वारा एक पक्ष को दोषी करार दिया   जाना  और वाद विवाद में उस पक्ष पर हावी रहना…ऐसा करने से पत्रकार,न्यायालय के फैसले आने से पूर्व ही लोगों के मन में किसी खास व्यक्तित्व को दोषी सिद्ध कर देते हैं , ये पत्रकारिता के वास्तविक कार्य को झुठला नहीं रहा ?
तीखे सवाल 
टेलीविज़न पत्रकारिता 
एक कुशल अपराध  या बुद्धि की कमी 
सवाल : आमतौर पर बुरी खबरें ,दुखद घटनाएँ ,न्यूज़ चैनलों  लिए अच्छी खबरें होती हैं या  एक अच्छे  अवसर के सामान होती हैं…क्या ये अवसर आप बार बार चाहते हैं या इसी अवसर पर आपकी पत्रकारिता टिकी हुई है.. क्या इसे आप केवल मात्र TRP की रेस में आगे बढ़ने  या सनसनीखेज बनाने के अवसर के रूप में लेना चाहते हैं ?? इसका ये मतलब है की आप बदलाव नहीं चाहते हैं..आप गरीबी , दंगे , करप्शन,क्राइम जैसे मुद्दों को जस का तस होने  देना चाहते हैं जिस से कम से कम आपकी दूकान चलती रहे…बदलाव के नियति  से  आप इनकी विभिन्न पहलुओं की रिपोर्टिंग नहीं करते..क्योंकि आपको इस बात का डर सताता है की कहीं इन मुद्दों का हल निकल आया तो  आपकी पत्रकारिता की  दुकान  न बंद हो जाये…इसका ये भी मतलब है की आपमें कुछ नया करने की छमता ही  ख़त्म हो गयी है  …आप बस एक बने बनाये  ट्रेंड के आधार पे रिपोर्टिंग  करना चाहतें हैं|
 

विचारधारा और पत्रकारिता 

आज की पत्रकारिता किसी न किसी विचारधारा से प्रेरित होती दिखाई देती है…क्या विचारधारा रहित रिपोर्टिंग करना इतना मुश्किल हो गया है? या आप इसी बंधन में बंधे रहकर ऐसी पत्रकारिता करना चाहते हैं जो आपके आंतरिक सोच और इक्षा को तस्सली दे और उन विचारधाराओ वाले लोगों को भी सुकून दे सके ताकि आप एक निर्धारित लोगों का बाज़ार बना कर अपनी दूकान चलायें जहाँ बिकने वाले सामान दुकानदार के पसंद हों और आम ग्राहकों के दिमाग में भी उस सामान के इस्तमाल करने की आदत डाल दी जाए.

ज़िम्मेदारी:

दुनिया के किसी भी संगठन में चाहे वो सरकारी हो या निजी…संगठन के हर पद के लोगों की एक ज़िम्मेदारी के तहत काम करते हैं ..मीडिया के लोगों पे ये बात क्यू नही लागू होती…पत्रकारिता की लोगों के प्रति एक ज़िम्मेदारी होनी चाहिए या नही?

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