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क्या सच में कोई बच्चा मंद बुद्धि होता है या बनाया जाता है?

आज-कल घरों में, विद्यालयों में, गली और गलियारों में हम ये कहते-सुनते पा सकते हैं कि “यह बच्चा बुद्धू है, इसे कुछ नही आता, यह कुछ नही सीख सकता है आदि-आदि” और इसका सजीव उदहारण और ज्यादातर रूप में हम विद्यालायो और घरों में बच्चों के खुद के माता-पिता द्वारा कहते हुए देख सकते हैं| जिसके बार बार कहने भर मात्र से बच्चे में एक नकारात्मक भाव का आना शुरू हो जाता है और कुछ समय बाद वह खुद सोच लेता है कि मैं नही सीख सकता हूँ, मेरे लिए पढाई बस एक देखने मात्र है मैं दूसरों की तरह आगे नही बढ़ सकता और यही कारण बनता जाता है कि उसके मानसिक विकास की दर धीमी हो जाती है|

दरअसल अगर हम हकीकत में बात करें तो हमारे कुछ शिक्षक साथी इस पर नाराज़गी जता सकते हैं कि उनका अपमान हो रहा है और इसके लिए वो ही ज़िम्मेदार हैं, लेकिन हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा क्यूंकि सच कहीं न कहीं कडवा होता है| अगर हम इसका एक पहलु देखे जहाँ पर इंसानी प्रवृत्ति का ताल्लुक बखूबी मिलता है कि हम लोग जब भी किसी काम को सही ढंग से नही कर पाते या फिर हमारे करने की इच्छा नही होती तो उसके बारे में ही हम उसी को गलत ठहरा देते हैं और उस सामने वाले व्यक्ति या वस्तु में ही दोष दें देते हैं की यह तो ऐसा ही था यह वैसा ही है, लेकिन अपने द्वारा की गई गतिविधियों को पर पर्दा डालने की कोशिश करतें है क्यूंकि यदि यह पर्दा उठेगा तो वो ही व्यक्ति ज़िम्मेदार होगा जो इसकी लम्बे समय से पैरोकार करता चला आ रहा था|

ठीक इसी तरह यदि हम आजकल के विद्यालयों में बच्चों की बुद्धि पर शिक्षकों की बात करें तो सभी की अलग अलग राय होती है, हाल ही में मैं एक बुधिमत्ता (intelligence) की कार्यशाला में सम्मलित हुआ था और कुछ सवालों पर जब उनकी राय मांगी गई तो वहां से कुछ ऐसे जानने को मिला:

1-      कुछ बच्चे अधिक बुद्धिमान होते हैं और कुछ कम: इस कथन को 32 प्रतिभागियों में से 26 ने सही बताया लेकिन जब इसके पीछे उनके हाँ का तर्क पूछा गया तो वो कुछ ठीक ढंग से नही बता पा रहे थे, उनका कहना था कि एक घर में यदि दो बच्चें हैं तो दोनों की बुध्धि अलग अलग होगी, और यह निश्चित एवं अपरिवर्तनशील हैजिसे कभी बदला नही जा सकता|

2-      बच्चों की बुधिमत्ता में अंतर का कारण माता-पिता/परिवार/जाती/नस्ल के जींस में अंतर के कारण होता है: इस कथन में 32 प्रतिभागियों में से 19 लोगों ने हाँ में कहा था एक प्रतिभागी कुछ संतुष्ट नही थे और एक प्रतिभागी कुछ भी कहने में असमर्थ थे और बाकी के सभी साथी न के जवाब में थे|

3-      बच्चों की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां उनकी बुद्धिमत्ता को प्रभावित करती हैं: इस कथन के सम्बन्ध में 32 प्रतिभागियों में से २१ ने हाँ में जवाब दिया और बाकी ने न में|

4-      Intelligence Quotient (IQ) व्यक्ति की बुधिमत्ता को मापने का उपयुक्त पैमाना है: इस कथन में 21 लोगों ने हाँ में अपना जवाब तलब किया और 4 ने असमर्थता जताई और 1 दोनों ही पक्षों को मान रहे थे|

 

कुछ इन मुख्य कथनों के बारे में प्रत्येक व्यक्ति की सोच और विचार अलग अलग होगे क्यूंकि इनका अनुभव भी अनेक किस्म का विभिन्न परिदृश्यों में होगा, इसी कड़ी में हमें जानने की जरूरत है कि आखिर बुधिमत्ता क्या है और बुद्धिमान कौन होता है और इसके आयाम क्या हैं?

बुधिमत्ता किसे कहते हैं, और बुध्धिमान कौन होता है?, संक्षेप में|

बुधिमत्ता के विषय में अलग अलग समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों ने अलग-अलग बातें कहीं है, कुछ ने कहा की यह जन्मजात होती है, जींस के द्वारा प्रभावित होती है, कुछ का कहना है कि इंसानी दिमाग में मस्तिष्क में लगभग 1 बिलियन के करीब न्यूरोन्स होते हैं जो व्यक्ति के हर एक अनुभव के दरमियाँ उसकी छाप उसके न्यूरोन अपने आपको एक आकृति में ढाल लेते हैं और जैसे-जैसे उस विषय के अनुभवों से हम रूबरू होते जाते हैं वो आकृतियाँ और भी मजबूत होती जाती हैं, और इसी के समकक्ष यदि किसी अनुभव के सिर्फ एक बार होने के बाद एक लम्बे समय तक उसे दोबारा नही अनुभव नही होता है तो वो न्यूरोन्स तो बने रहते हैं मगर उनपर बने हुए धुंधले से संरचनाये धीरे धीरे मिटने लगते हैं और किसी चीज़ को भूलने में यह एक कारण होता है| मगर इन न्योरोंस का बनने-बिगड़ने और विकसित होने का सिलसिला जारी रहता है, यही कारण है कि शिक्षा विद और मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चे जितनी जल्दी किसी चीज़ को सीख लेते हैं उतनी जल्दी व्यस्क नही सीख पाते उसका एक महत्वपूर्ण कारण है न्योरोंस की मजबूती और बचे हुए न्यूरोन्स, क्यूंकि एक इंसान में अधिकतम लगभग 100 ट्रिलियन न्यूरोन्स बनने की क्षमता होती है और यह जिस तरह इंसान का जीवन आगे बढ़ता है उसी प्रकार इनकी संख्या कम होती जाती है| इसका सीधा उदहारण आज के समय में देख सकते हैं कि लगभग हर घरों में स्मार्ट फोन आ गए हैं और इन स्मार्ट फोन को चलाना और उसको खोलना बंद करना एक 2 साल का बच्चा बड़ों के मुकाबले जल्दी सीख लेता है| दूसरा उदहारण कि भाषा को बच्चा जितनी जल्दी सीखेगा उतनी जल्दी व्यस्क नही सीख पाते हैं|

दरअसल देखा जाए तो बुधिमत्ता एक ओर तो अनुवांशिकता से जुड़ी हुई दिखाई देती है लेकिन इसका एक बहुत बड़ा भाग बच्चे के परिवेश और उसके अभिभावकों द्वारा परवरिश पर निर्भर होता है, बच्चा जब तक किसी चीज़ को अनुभव नही करेगा तब तक उसको उस विषय के बारे में किसी प्रकार का ज्ञान नही होगा, इसी के साथ ही हर एक बच्चे का परिवेश समाज में अलग-अलग होता है, कुछ बच्चे को ज्यादा अनुभव प्राप्त होते हैं और उनको सीखने का खुला वातावरण मिलता है और कुछ को इसके विपरीत| उदहारण के लिया गर हम बात करें एक शहर में पढ़े हुए बच्चे और एक गाँव में पढ़े हुए बच्चे का दोनों को एक ही प्रश्न पत्र दिया जाए और उसमे गाँव से सम्बंधित और खेती से सम्बंधित प्रश्न पूछे जाएँ तो वो गाँव का बच्चा अधिक अंक प्राप्त करेगा और शहर का बच्चा कम, और ठीक इसके विपरीत करें तो शहर का बच्चा ज्यादा बुद्धिमान माना जाएगा और गाँव का कम, अब इस दशा में कौन ज्यादा बुद्धिमान होगा? इस दशा में दोनों ही बच्चे अपने अपने परिवेश को बेहतर ढंग से जानते हैं, और दोनों ही बुध्धिमान हैं क्यूंकि गाँव के बच्चे को शहर का परवेश नही मालूम कैसे रहना है, कैसे खाते हैं, कैसे बोलते हैं, शहर में क्या क्या चीज़ होती है और किस चीज़ का उपयोग कैसे किया जाता है, ठीक इसी के समक्ष शहर के बच्चे के साथ होगा क्यूंकि वो इस परिवेश से रूबरू नही हुआ है| और इसलिए बुधिमत्ता को हम किसी एक कटघरे में रखकर नही माप सकते हैं, जैसे यदि एक दौड़ में कहते कद का व्यक्ति जीत हासिल करता है और लम्बे कद वाला व्यक्ति हार जाता है तो इसमें किसे बुध्दिमान कहेंगे? अब सवाल उठता है कि क्या हमने इस जीत को हर मायने में जांचा है कि जैसे समय क्या था? खाना क्या खाया था दोनों ने? हर 100, 200, 500 मीटर पर रफ़्तार क्या थी? रास्ता कैसा था? ऊँचे-नीचे में क्या रफ़्तार थी? आदि मायनों में क्या हमने इसे मापने की कोशिश की? यदि हाँ तो शायद एक तर्क के साथ हम अपना जवाब सही ठहरा सकते हैं लेकिन अगर आखिर में एक पहलु को लेकर हम अपना निर्णय कर लें तो यह ठीक नही होगा| इसलिए हमें अपने सारे पहलुओं को देख कर बुधिमत्ता की जांच करनी चाहिए|

हमें क्या करना चाहिए?

इस कड़ी में हमें सबसे पहले तो अपनी सोच से निकल देना चाहिए, कि “यह बच्चा सीख नही सकता” और ख़ास कर बच्चों को या किसी को इस बारे में नही बोलना चाहिए, इस जगह पर अभिभावक और शिक्षकों को बच्चे के बारे में बैठ कर चर्चा करनी चाहिए, जिसके कुछ बिंदु हैं:

–    बच्चा घर पर किस प्रकार के व्यवहार करता है, और विद्यालय पर किस प्रकार का|

–    क्या बच्चा अपने साथियों से किस प्रकार बात करता है|

–    जब उसको काम दिया जाता है तो उसके मन में क्या चल रहा होता है इस पर बच्चे से बात चीत करना चाहिए|

–    बच्चा किस परिवेश में रहता है|

–    बच्चा किन कामों में ज्यादा रूचि लेता है खास कर जो वह स्वंय से करता है|

–    किन कामों को वो आसानी से कर लेता है और किन को नही|

–    बच्चे का सीखने का तरीका क्या है|

–    किस तरह की बातों को वो जल्दी समझ लेता है और किस तरह की नही|

–    बच्चों के साथी किस परिवार से आते हैं और उनको किस तरह की सुविधाएँ हैं, और दोनों के बीच कितना गैप है|

इन कुछ सवालों के साथ यदि हम सोच विचार करें तो उसके बाद हम बच्चे को एक सही और सीखने के अनुकूल वातावरण दे पायेंगे, साथ ही साथ बच्चा जितना भी काम करें उसे सराहनाएं ज़रूर दें, लेकिन यह ध्यान रहे कि बच्चे की बातें कहीं और नही जाएँ, ताकि दुसरे लोग उसे किसी भी तरह की हानि न पहुचाएं, और बच्चे के द्वारा किये गए कामों में लगातार सुधारों का सिलसिला भी जारी रखना चाहिए, जो कि यह तभी संभव है जब उससे उसके कामों पर सवाल करने के बजाये उसके सहायक बनकर बात करें, जैसे हम कुछ सवालों को उससे बातों के रूप में रख सकते हैं और कुछ हिंट भी दे सकते हैं, कि आपने क्या बनाया है? इससे क्या होगा? लेकिन ये तो ऐसा होता है ये देखो आप? अच्छा अगर हम इसको ऐसे देखें तो कैसे बना सकते हैं? आप क्या सोचते हो? इत्यादि| मगर यह ज़रूरी है कि बच्चे से बात करते समय आपका लहजा और आपकी बोलने की टोन ऐसी हो कि उसे यह महसूस नही होना चाहिए कि उससे कुछ सवालात किये जा रहे हैं|

एक अनुभव:

एक विद्यालय की घटना है कि मैं पहली बार उस विद्यालय में गया और वहां मुझे दो से तीन दिन बिताने थे स्कूल को समझना था और बच्चों के साथ उनके कक्षा कक्ष में कुछ शिक्षण आधारित गतिविधियाँ भी करनी थी जब मैं पांचवी कक्षा में गया तो वहां बच्चों की संख्या कम थी मगर बच्चों के साथ गतिविधि करने के लिए पर्याप्त थे, मैंने उस कक्षा के सभी मेजों को किनारे करवाया और दरी बिछाकर बच्चों के साथ बैठ गया, लेकिन एक बच्ची नही आई, और न ही वो बात कर रही थी बस हर बात पर वो हंस रही थी शर्मा रही थी, जब मैंने उसको बैठने के लिए बोला तो कक्षा के अन्य बच्चों ने तुरंत जवाब दिया “सर ये तो पागल है इसको कुछ नही आता” मैंने कहा कैसे पागल है, तो एक बच्चे ने कहा “सर ये मंद्बुध्धि है इसको जल्दी कुछ समझ नही आता” तो मैंने कहा ऐसा नही है आप लोग कुछ नही बोलोगे ऐसा, वो करेगी उसको आता है, लेकिन फिर भी नही आई, मैंने गतिविधि शुरू कि फिर वो ज़रा से आगे आई और अलग बैठ गई, लेकिन अभी भी जब मैंने उसे कागज़ और रंग दे रहा था तो नही ले रही थी, थोड़ी देर बैठने के बाद वो उठी और ब्लैक बोर्ड पर A, B, C, D…… उल्टा लिख रही थी तो मैंने उसे कुछ नही कहा मैंने बोला तुम बनाओ, और सुझाव दिया कि इसमें पहाड़ और सीनरी भी बना सकते हो आप, और अपने काम में लग गया, और तब तक उसको बोला कि आप बनाओ और हम लोग ये काम करके देखंगे फिर हम लोग खेलेंगे भी| जब हमने अपना काम समाप्त कर लिया तो देखा कि उसने कुछ अक्षर तो उलटे बनाये थे और कुछ सीधे मगर एक सीध में बनाये हुए थे और एक सीनरी भी बनी थी, इस पर जब अन्य बच्चों ने देखा तो पहले तो वो हँसे लेकिन उनसे भी मैंने बात चीत की, कि इसमें हंसने वाली बात क्या है, क्या हम उसे सिखा नही सकते हैं, आखिर वो भी हमारे बीच की ही साथी है, तो बच्चों से जन लगभग दस मिनट बात हुई तो उनका रूख भी कुछ नरम पड़ा और एक बच्चे ने तो उसके लिए ताली भी बजाई, और फिर उसने आखिर में एक शब्द बस बोला जब मैंने पूछा कि कैसा लगा? तो जवाब था “अच्छा”, ये एक शुरुआत थी अगर मैं वहां होता तो शायद आज वो बच्ची अच्छे से सारे काम कर लेती|

तो पूर्ण रूप से बात यहाँ रहती है ध्यान देने की, सहयोग करने की और बच्चों के साथ वार्तालाप करने की, इसलिए हम सभी शिक्षकों/अभिभावकों और अन्य सभी लोगों को बच्चों के साथ वार्तालाप करके ही कोई काम करना चाहिए, बजाये कि उनको परोसा हुआ जवाब या सुविधाएँ दे देना| 

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