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पराक्रमी स्वर का अजेय नाम : कृष्णा सोबती

जिन्हें भारतीयता का कोई बोध ही नहीं है, वे भारत के लेखकों को भारतीयता सिखाएं और उनके विरोध को “मैन्युफैक्चर्ड” बताएँ, इससे बड़ी कोई विडम्बना हमारे समय की नही हो सकती।

  “कृष्णा सोबती”

ज्ञानपीठ पुरस्कार/साहित्य/हिंदी/कृष्णा सोबती

फरवरी 18,1925 को गुजरात(पाकिस्तान)में जन्मी जश्न-ए-अदब हिन्दी सम्मान से सम्मानित कृष्णा सोबती अपनी साहित्यिक और प्रखर लेखन शैली के लिये जानी जाती है। विभाजन का दर्द ,आजादी का त्योहार और संविधान का निर्माण तीनो स्वरूप उनकी लेखनी ने देखे हैं। उम्र के इस पड़ाव में भी उनकी लेखनी का अविरल प्रवाह निर्विरोध जारी है,जो उनकी लेखन के प्रति जीजिविषा को दर्शाता है।

साहित्य अकादमी पुरस्कार ,शलाका सम्मान से सम्मानित कृष्णा जी की प्रमुख रचनाओं में शुमार “डार से बिछुड़ी”, “सूरजमुखी अँधेरे के”,जिन्दगीनामा”,”यारों के यार” जैसे उपन्यास है,तो कहानियों में “मेरी माँ”,”बादलों के घेरे”,”सिक्का बदल गया” है।

इन रचनाओं ने साहित्य के बगीचे में नयी पौध को रोपित किया है जिसकी खुशबू साहित्यिक पाठक लगातार महसूस कर रहे है। कृष्णा जी ने अपनी रचनाओं में जिस साहसिक लेखन को उकेरा है। उन्हें मर्दाना महिला लेखक के रूप कहा जाना गलत नहीं होगा। यथार्थ के मंच पर  अवतरित उनकी कहानियाँ हो या उपन्यास कृष्णा जी के बेखौफ,बिंदास के स्वरुप को उकेरते है।

एक क्रांतिकारी आवाज की इस विचारधारा को ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा जाना पुरस्कार को भी सम्मान किये जाने के समान है। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित होने वाली हिन्दी साहित्य की वो ग्यारहवीं रचनाकार है।

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