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क्या परिवारवाद के कारण ही काँग्रेस कामराज जैसे नेताओं को भी भूल गई?

भारतीय राजनीति में परिवारवाद एक अहम मुद्दा है, गाहे-बगाहे इस पर चर्चा होती भी रहती है। राजनीति में परिवारवाद का सबसे बड़ा उदाहरण कॉंग्रेस में गांधी परिवार को कहा जाता रहा है, लेकिन कॉंग्रेस में भी ऐसे नेता हुए जिनका न भूतकाल राजनीती में था न उन्होंने अपने परिवार से किसी को राजनीति में उतारा।

लाल बहादुर शास्त्री और प. नेहरु के साथ के. कामराज (बीच में)

बिहार से होने के कारण मुझे कहीं बाहर जाने के बाद वहां के इतिहास और स्थानीय राजनीतिक मुद्दे जानने के बारे में दिलचस्पी रहती है। इसी क्रम में एक बार मदुरै जाना हुआ। शहर घूमने के क्रम में कामराज यूनिवर्सिटी का बोर्ड दिखा, जिसके बाद कामराज के बारे में जानने की उत्सुकता हुई। मैंने अपने स्थानीय सहकर्मी को पूछा तो वो मुझे कुछ ज़्यादा नहीं बता पाया। बस मुझे इतना ही पता चल पाया कि वो तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रह चुके थे जिससे मेरी उत्कंठा शांत हुई भी और नहीं भी। इसके बाद कामराज के बारे में जो मैंने पढ़ा और सुना उससे उस इंसान को नमन करने का मन करने लगा।

1954 में जब वो तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने तो उस समय तमिलनाडु में शिक्षा व्यवस्था बहुत ही खस्ताहाल थी। उस समय प्रदेश की साक्षरता दर सात फीसद हुआ करती थी। मुख्यमंत्री बनने के बाद कामराज ने शिक्षा को खास बढ़ावा दिया और स्कूलों में बच्चों का ड्राप-आउट कम कैसे हो, उसके लिए बहुत सारी योजनाएं लेकर आए। वहीं इन योजनाओं को केंद्र सरकार द्वारा लाते-लाते 20वीं शताब्दी गुज़र चुकी थी।

कामराज की महत्वपूर्ण योजना में प्रत्येक गांव में प्राथमिक विधालय, 11वीं तक अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा और मध्याह्न भोजन प्रमुख थे। कामराज के समय से ही तमिल में शिक्षा दी जाने लगी थी, इसका परिणाम ये हुआ कि 7 फीसदी साक्षरता दर वाले प्रदेश में बहुत ही कम समय में 37 फीसदी साक्षारता दर हो गई।

तीन बार सूबे का कमान संभाल चुके कामराज को 60 के दशक में संगठन कमज़ोर होता नज़र आया जिसका जिक्र उन्होंने देश के प्रधानमंत्री और उस समय के कॉंग्रेस अध्यक्ष पंडित नेहरू से भी किया। कामराज ने नेहरू को एक प्लान बताया, जिसे बाद में कामराज प्लान के नाम से जाना गया। जिसके तहत 6 केंद्रीय मंत्रियों और 6 मुख्यमंत्रियों को अपना पद छोड़कर पार्टी की मजबूती के लिए काम करना था। कहा जाता है की इसी प्लान की वजह से राजनीति में इंदिरा गांधी का रास्ता खुला था।

1964 में नीलम संजीव रेड्डी के इस्तीफे के बाद कामराज को कॉंग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। कामराज और दक्षिण भारत से आने वाले उनके समर्थक कॉंग्रेसी नेताओ को सिंडिकेट के नाम से भी जाना जाता था।

इंदिरा गांधी के साथ के.कामराज

1964 में नेहरू की मौत के बाद कॉंग्रेस पार्टी नेतृत्व के संकट से जूझ रही थी। ऐसे में बतौर कॉंग्रेस अध्यक्ष कामराज ने लाल बहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री पद की कुर्सी पर पहुंचाया। लाल बहादुर शास्त्री की आकस्मिक मौत के बाद जब एक बार फिर से प्रधानमंत्री की कुर्सी खाली हुई तो कामराज के पास उसे हासिल करने का एक अच्छा मौका था।

अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA के डीक्लासिफाइड दस्तावेजों के मुताबिक उस वक्त CIA भी यह मानकर चल रही थी कि कामराज ही अगले प्रधानमंत्री होंगे। लेकिन कामराज एक बार फिर से सत्ता से दूर ही रहे और उन्होंने इंदिरा गांधी को देश की तीसरी प्रधानमंत्री बनवा दिया।

सिंडिकेट पार्टी चला रहा था और इंदिरा सरकार, लेकिन पार्टी और सरकार के बीच मतभेद इस स्तर पर पहुंच गए कि साल 1969 में औपचारिक रूप से पार्टी का विभाजन हो गया। साल 1971 के आम चुनाव में इंदिरा की कॉंग्रेस को जनादेश मिला और कामराज की राजनीति अवसान की ओर बढ़ गई।

जीवन भर महात्मा गांधी के सिखाए आदर्शवाद की राजनीति करने वाले के.कामराज गांधी जयंती के ही दिन यानी दो अक्टूबर 1975 को इस दुनिया से विदा हुए।

जनसेवा और साफ-सुथरी राजनीति के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले के.कामराज को उनकी मौत के एक साल बाद 1976  में  देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

भारतीय राजनीति में सत्ता से जुड़े रहने के लिए सिद्धांतों के साथ समझौता करने के तो कई उदाहरण मिल जाएंगे। लेकिन इस देश में एक राजनीतिज्ञ ऐसा भी हुआ था जिसने अपनी पार्टी की कमज़ोर होती जड़ों को फिर से मजबूत करने के लिए न सिर्फ सत्ता को छोड़ा बल्कि आधी सदी पहले नि:स्वार्थ राजनीति के उसूल को भी कायम किया।

कॉंग्रेस आलाकमान को अपने पूर्व नेताओं का अनुसरण करना चाहिए, अगर उन्हें भुलाने का सिलसिला ऐसे ही बरक़रार रखा गया तो वो दिन दूर नहीं जब देश की जनता कॉंग्रेस को ही भूल जाएगी।

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