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प्रदूषण की समस्या का हल राजनीतिक से ज़्यादा सामाजिक है

प्राचीन सभ्यताओं में पृथ्वी को मां का दर्जा दिया गया था। आदि काल से ही हम प्रकृति के समीप रहकर अपनी सभ्यता को सिंचित करते हुए आये हैं जिसकी महानता विश्वविख्यात है। योग और आयुर्वेद जैसे विज्ञान प्रकृति के साथ मनुष्यों के सामंजस्य का ही परिणाम है। अपने वजूद की तलाश हम हमेशा से प्रकृति में ही करते आए हैं। जिस वजह से हमारे भीतर धरती, जल, वन, पशुओं के प्रति एक संरक्षणकारी भावना हावी रहती थी।

भारतीय दर्शन के अनुसार प्रत्येक पदार्थ पंचतत्व यानी धरती, जल, आकाश, अग्नि और वायु से मिलकर बने हैं, अगर इसमें एक का भी संतुलन बिगड़ा तो विनाश हो जाएगा। पिछले वर्ष की भांति इस वर्ष भी दिल्ली स्मॉग चेंबर में तब्दील हो गई। सियासतदानों और मीडिया की दौर-भाग जारी है। अचानक से रामरहीम और हनीप्रीत से मोह भंग होकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर्यावरण को लेकर जागरूक हो गई है और सियासतदान इस समस्या को एक दूसरे पर मढ़ने में व्यस्त हो गए। बड़े नेताओं को दिल्ली के करोड़ों लोगों की समस्या से इतर गुजरात और हिमाचल की आबोहवा बदलने में ज़्यादा दिलचस्पी है।

और हम ? हम लाचार, विवशता का रोना रोते हुए सरकार को कोस रहे हैं और आशा कर रहे हैं कि सरकार और सियासतदान इस गंभीर समस्या का निदान निकालेंगे। हालांकि किसी बड़े सियासतदान ने ना तो कोई टिप्पणी की ना ही लोगों को जागरूक करने का प्रयास किया। क्या हम ऐसे ही अपने बच्चों के भविष्य को गर्त में धकेल देंगे ?

पर्यावरण संबंधित समस्याओं को लेकर एक बड़ी सच्चाई ये है कि इसका समाधान सरकारी से ज़्यादा सामाजिक है। ये समस्याएं सामाजिक भागीदारिता से हल की जा सकती हैं।

पर्यावरण की परिभाषा जो बताई जाती है वो है, ‘किसी क्षेत्र विशेष की भौतिक व जैविक स्थिति या परिवेश जो किसी जीव या प्रजाति को प्रभावित करती हो।’ यानी कि पर्यावरण हम सब जीव-जंतुओं और भौतिक सामग्रियों से मिल कर बना है और सभी को प्रभावित करता है। यदि एक का भी संतुलन बिगड़ा तो सभी को नुकसान होगा। निर्जीव वस्तुएं और पशु-पक्षी तो ना के बराबर प्रदूषण फैलाते हैं, तो बचे हम। हमारी गलतियों की वजह से आज पर्यावरण बद से बद्तर हो रहा है।

पर्यावरण संकटों से सभी समान रूप से प्रभावित होते हैं। खराब और ज़हरीली हवा अमीरी-गरीबी का भेद नहीं करती, जिस तरह विषाक्त होते हवा के लिए किसी को दोषी ठहराया नहीं जा सकता उसी प्रकार इस गंभीर समस्या से निदान पाने में एक संस्था से अकेले उम्मीद लगाना अपने आप में बेईमानी होगी। यह एक ऐसी समस्या है जिसे समाज ने उत्पन्न किया है और सामाजिक रूप से सरकार व संस्था से तालमेल बिठाकर समाप्त करना होगा।

दिल्ली में पुनः इस वर्ष स्मॉग संकट ये बतलाने के लिए काफी है कि आधुनिकता की चादर ओढ़े मौजूदा समाज, हज़ारों वर्ष पूर्व के शुरुआती मनुष्यों से भी पिछड़ा हुआ है, जो हमसे ज़्यादा प्रकृति के महत्व को समझते थे। ज़रूरत है पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को जन-जन तक पहुंचाने की, लोगों को इसकी गंभीरता से रूबरू कराने की, तात्कालिक उपायों से ज़्यादा लंबे वा स्थायी उपाय तलाशने की, लोगों की सहभागिता पर आधारित उपायों को तलाशने की।

शैक्षणिक स्तर से लेकर सामाजिक और धार्मिक स्तर तक प्रयास करना होगा। पर्यावरण विज्ञान को विद्यालयों में खानापूर्ति के लिए नहीं बल्कि गंभीरता से पढ़ाना होगा, बच्चों को इसके प्रति जगरूक करना होगा। पर्यावरण जैसे विषयों पर एक व्यापक और जन आधारित विमर्श का माहौल बनाने में मीडिया एक प्रभावशाली भूमिका निभा सकता है। समय-समय पर मीडिया द्वारा पर्यावरण से संबंधित जागरूकता फैलानी चाहिए और ये संकट के समय नहीं पूरे वर्ष चलना चाहिए ताकि संकट को आने से रोका जाए।

चूंकि यह राजनीतिक नहीं समाज से जुड़ा मुद्दा है जिससे हर वर्ग हर व्यक्ति प्रभावित होगा, लोगों को ज़िम्मेदारी के साथ प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करना चाहिए। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने प्राकृतिक पर्यावरण के प्रति लोगों को सचेत करते हुए कहा था, ”प्रकृति हमारी ज़रूरतों को पूरा कर सकती है, लालचों को नहीं।” इसलिए समय रहते हमें सजग हो जाना चाहिए और हर संभव कदम उठाना चाहिए और कोशिश करें कि पर्यावरण से जुड़े मुद्दे राजनीतिकरण और धार्मिक रिवाज़ों के आगे दम न तोड़ने पाए। ताकि हम अपने आने वाली पीढ़ी को एक बेहतर और स्वच्छ कल दे सकें।

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