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भारत में चमकती अमीरी और सिसकती गरीबी 

रविन्द्र कुमार अत्री। भारत 15 अगस्त 1947 को लम्बे संघर्ष के बाद अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ। सब खुश से थे कि भारत आखिर गुलामी की बेड़ियों से आजाद हो गया। देश की आजादी के अपने प्राणों का बलिदान देने वाले शहीदों की आत्मा को भी शांति मिली कि नहीं आखिर हमारा प्राण त्याना देश के लिए खुशहाली लेकर आया। लेकिन आज आजादी के 7 दशक गुजर जाने के बाद उन सभी शहीदों की आत्मा सबसे ज्यादा पीड़ित है, इसके कई कारण हैं, लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण है भारत की व्यवस्था। शहीदों ने आजादी के बाद जिस भारत के सपनों और कल्पना के साथ संघर्ष किया था वो सपने और कल्पना आज उनकी आत्मा को कचोट रहे हैं। आज उनकी आत्मा उनसे पूछ रही है कि आखिर ऐसे भारत के भविष्य के आपने मुझे इतने अच्छे शरीर से अलग कर दिया। मुझे मेरे माँ-बाप से अलग कर दिया। भाई बहनों से सदा-सदा के लिए बिछोड़ दिया। मुझे मेरी पत्नी, मेरे प्यारे-प्यारे बच्चों से अलग कर दिया उनको सदा के लिए बेसहारा कर दिया। नाते-रिश्तों को सदा के लिए अलग कर दिया। मेरे बचपन के दोस्तों जिनके साथ गलियों में खेला करते थे, बड़े होकर गांव के बाहर किसी एकांत स्थान पर जाकर दोस्तों से लम्बे समय तक बातों करने जाते थे उन सबको मुझे से अलग कर दिया। आखिर क्यों मुझे मेरे इन सब रिश्तों से अलग किया ताकि ऐसे भारत का निर्माण किया जा सके जहां समाज का एक वर्ग अमीर होता जाए और दूसरा तबका जो पहले से ही गरीब था वह और गरीब हो जाए ?
पिछले कुछ वर्षों के अनेक आँकड़ों, तथ्यों और मंत्रियों-नेताओं के बयानों से कोई भी यह सोच सकता है कि भारत काफी तेज गति से विकास के ट्रेक पर आगे बढ़ता चला जा रहा है और एकता तथा अखण्डता की एक मिसाल प्रस्तुत कर रहा है। लेकिन जब असलियत पर नजर जाती है तो विकास की सच्ची तस्वीर सामने आ जाती है जो हवा के एक बुलबुले की तरह है, जहाँ करोड़ों लोगों के जीवन की बर्बादी की कीमत पर कुछ लोगों को विकास के साथ सारे ऐशो-आराम मुहैया कराए जा रहे हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय पूँजीवादी-साम्राज्यवादी वैश्वीकरण नीतियों के अनुरूप योजनाएँ बनाते हुए भारत की सरकार ने पिछले लगभग 25 सालों से देश के बाजार को वैश्विक बाजार के लिए लगातार अधिक खुला बनाया है और पूँजी के खुले प्रवाह के लिए निवेश में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को लागू किया है। इन नीतियों को लागू करने के लिए श्रम कानूनों को लगातार लचीला बनाने के नाम पर मज़दूरों के सभी अधिकारों की एक-एक कर तिलाँजलि दे दी गई है। इस “विकास” को हासिल करने के लिए सरकार नीतियों में फेरबदल करते हुए देशी-विदेशी व्यापारिक संस्थाओं और उद्योगपतियों को कई प्रकार की सब्सिडी मुहैया करवाती है और कई तरह की छूट देती है। इन नीतियों को लागू करने का परिणाम यह है कि आज गरीबों को और अधिक गरीबी में धकेल दिया गया है, मजदूरों की और ज्यादा दुर्गति हुई है, जनता के कष्ट और बढ़े हैं।
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार इस पूरे परिवर्तन के दौरान देश में अमीरों-गरीबों के बीच असमानता दो-गुना बढ चुकी है। और ऊपर के 10 प्रतिशत लोगों की आय निचले स्तर पर जीने वाले 10 प्रतिशत लोगों की आय से 12 गुना अधिक है, जो कि बीस साल पहले 6 गुना थी। इसी के साथ शहरी अमीरों और ग्रामीण अमीरों के बीच भी असमानता मौजूद है। रिपोर्ट के अनुसार शहरों में रहने वाले अमीर, ग्रामीण अमीरों से 221 प्रतिशत अधिक खर्च करते हैं। विकास के चलते जनता की दुर्गति का सिलसिला यहीं नहीं थमता, एक सरकारी आँकड़े के अनुसार देश में हर एक घण्टे में 2 लोग आत्महत्या करते हैं, जिसमें आदिवासी, महिलाओं और दलितों से सम्बन्धित आँकड़े शामिल नहीं हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार 46 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा के नीचे जा रहे हैं, जिसका अर्थ है कि वे भुखमरी की कगार पर बस किसी तरह ज़िन्दा हैं। इन ग़रीबों की प्रति दिन की आय 12 रु से भी कम होती है। इतनी आमदनी मे कोई मूलभूत सुविधा मिलना तो बहुत दूर की बात है, बल्कि एक व्यक्ति को किसी तरह सिर्फ जिन्दा बने रहने के लिये भी संघर्ष करना पड़ता है, और वह भी तब जब यह मान लिया जाये कि वह व्यक्ति कभी बीमार नहीं पड़ेगा और जानवरों की तरह सभी मौसम बर्दाश्त कर लेगा!
एक तरफ गरीबी लगातार बढ रही है, वहीं दूसरी ओर समाज के एक छोटे हिस्से का प्रतिनिधित्व करने वाले उद्योगपतियों, लोकसभा के सदस्यों, न्यायपालिका में काम करने वाले लोगों, नेताओं, सरकारी अधिकारियों और बाबुओं के घरों में पैसों के ढेर लगातार ऊँचे होते जा रहे हैं। आम जनता की इस बर्बादी के दौरान भारत “तरक्की” भी कर रहा है!
भारत की कुल 58 प्रतिशत संपत्ति पर देश के मात्र एक फीसदी अमीरों का कब्‍जा है जो देश में बढ़ती आय असामनता की ओर संकेत करता है। दुनिया में शीर्ष एक प्रतिशत अमीरों के पास औसतन 50 प्रतिशत संपत्ति है। अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था ऑक्सफैम रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 57 अरबपतियों के पास 216 अरब डॉलर (करीब 14.72 लाख करोड़ रुपए) की संपत्ति है जो देश के आर्थिक पायदान पर नीचे की 70 प्रतिशत आबादी की कुल संपत्ति के बराबर है।
भारत को एक जनतन्त्र कहा जाता है और 120 करोड़ आबादी वाले इस जनतन्त्र में 100 सबसे अमीर लोगों की कुल सम्पत्ति पूरे देश की कुल वार्षिक उत्पादन का एक चौथाई से भी अधिक हिस्सा है। इस तरह सबसे बड़े जनतन्त्र में सारी शक्ति ऊपर के कुछ लोगों की जेब तक सीमित है। इकोनॉमिक टाइम्स के अनुसार विकास की दौड़ में मध्यवर्ग की एक खायी-अघायी आबादी भी शामिल है, जो 16 करोड़ यानि कुल आबादी का 13.1 प्रतिशत हिस्सा है (इकोनामिक टाइम्स 6/2/2011)। मध्यवर्ग का यह हिस्सा विश्व पूँजीवादी कम्पनियों को अनेक विलासिता के सामानों को बेचने के लिए बड़ा बाज़ार मुहैया करवाता है। समाज का यह हिस्सा अमानवीय स्थिति तक माल अन्ध भक्ति का शिकार है, जिसमें टीवी और अखबारों में दिखाये जाने वाले विज्ञापन उन्हें कूपमण्डूक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। करोड़ों मेहनत करने वाले लोगों के खून पसीने से पैदा होने वाले सामानों पर ऐश करने वाले समाज के इस हिस्से को देश की 80 प्रतिशत जनता की गरीबी और बर्बादी तथा दमन-उत्पीड़न से कोई खास फर्क नहीं पड़ता, बल्कि यह समाज के दबे कुचले हिस्से को देश की प्रगति में बाधा मानता है।
आगे कुछ और आँकड़ों पर नजर डालने से असमानता और विकास की भयावह स्थिति और साफ हो जाएगी। यूनाइडेट नेशन्स डेवलपमेंट प्रोग्राम ने मानवीय विकास सूचकांक में भारत को 146 देशों की सूची में 129 वे स्थान पर रखा गया है, जिसमें लिंग भेद के मानक भी शामिल हैं। ह्युमन डेवलपमेंट रिपोर्ट में कहा गया है कि लगभग 30 साल पहले भारत के लोग बेहतर जीवन गुजारते थे। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार पिछले 30 सालों के अन्तराल में गरीबों की संख्या में कोई कमी नहीं हुई है (इंडिया टुडे, 22-10-11)। भारत के ही सरकारी आँकड़े के अनुसार देश की 77 प्रतिशत जनता (लगभग 84 करोड़ लोग) गरीबी में जी रही है, जो प्रति दिन 20 रुपयों से भी कम पर अपना गुजारा करती है। हमारे देश में दुनिया के किसी भी हिस्से से अधिक, 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। भारत की एक तिहाई आबादी भुखमरी की शिकार है और यहाँ हर दूसरे बच्चे का वजन सामान्य से कम है और वह कुपोषण का शिकार है। वैश्विक भूख सूचकांक (यानी ग्लोबल हंगर इंडेक्स) के आधार पर बनी 88 देशों की सूची में भारत 73वें स्थान पर है जो पिछले साल से 6 स्थान नीचे है। 2012 के बहुआयामी (मल्टीडायमेंशनल) ग़रीबी सूचकांक के अनुसार बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में 42 करोड़ लोग ग़रीबी के शिकार हैं।
एक संस्था ओ.ई.सी.डी. के अनुसार भारत की प्रगति का नतीजा यह है कि आज भारत में पूरी दुनिया के सबसे अधिक गरीब लोग रहते हैं। यही बजह है कि जनता की मेहनत और समाज के संसाधनों की लूट के चलते अम्बानी जैसे कुछ लोग कई-कई मंजिला मकान बनाकर अपनी अमीरी का प्रदर्शन करने में भी कोई शर्म महसूस नहीं करते।
भारत के पूँजीवादी जनतन्त्र (इसे दमनतन्त्र कहना ज्यादा सही होगा) में हो रहे विकास की असली तस्वीर यही है, जहाँ जनता की बर्बादी और मेहनत करने वालों के अधिकारों को छीनकर देश के कुछ मुट्ठीभर उद्योगपतियों, अमीरों, नेताओं, सरकारी नौकरशाहों को आरामतलब जिन्दगी मुहैया करवाई जा रही है, और देशी विदेशी पूँजीपतियों को मुनाफा निचोड़ने के लिए खुली छूट दे दी गई है।
कुल मिलकर देखा जाए तो आज तक ऐसा विकास हुआ है कि अमीरी चमकती रही और गरीबी सिसकती रही। क्या भारत की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले शहीदों ने ऐसे ही भारत की कल्पना की थी ? यह सबसे बड़ा सवाल है।
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