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मेरठ का वह कोतवाल जिसने अंग्रेजी जुल्म के खिलाफ क्रान्ति की मशाल जलाई

मेरठ में उन दिनो एक साधू घूमा करता था जिसका नाम पता किसी को मालूम न था ,वह अंदरखाने किसी गुप्तयोजना को आकार दे रहा था , वह सैनिको के गुस्से को गोरो के प्रति भुना रहा था , गांव वालो व किसानो पर हो रहे जुल्म को दिखाकर किसानो को अंग्रेजो के खिलाफ खडा कर रहा था ।
तब का मेरठ बहुत अलग था, तब यहाँ काली नदी में खूब पानी बहता था , मेरठ की तहसील व कोतवाली तक घुटनो घुटनो पानी आ जाता था । अाजकल तो मेरठ के लोग काली नदी को जानते तक नहीं । मेरठ की कोतवाली में उसी दौरान एक नये व रौबदार कोतवाल की नियुक्ति हुई थी जो पास के ही पांचली गांव के मुकददम मोहर सिहँ का लडका था। बडी मूँछे,लंबा व सुंदर चेहरा ,बडी बडी आकर्षक आँखो वाला व तगडा ठाडा यह कोतवाल आसपास में जल्द ही लोकप्रिय हो उठा क्योंकि पास के ही गाँव का था। कोतवाल धन्ना कहे जाने वाले इस कोतवाल का पूरा नाम कोतवाल धन सिहँ चपराणा था।
क्रान्ति कोई त्वरित जनविद्रोह नहीं था बल्कि पहले से तैयार व सोची समझी गदर थी जिसमें आम किसान से लेकर सेना के जवान तक शामिल थे। इस जनविद्रोह को केवल सैनिको का असंतोष कहकर अंग्रेजो ने अपने अत्याचारो व जुल्मो को ढका है ,असल में यह कंपनी द्वारा आम भारतीय की कमर तोडकर की गई ज्यादतियो का एक ठोस जवाब था जिसकी गूंज लंदन तक पहुँची व ब्रितानी सरकार ने कंपनी तो हटाकर सीधा सीधा नियंत्रण अपने हाथो में लिया। इस जनक्रान्ति के व्यापक व दूरगामी प्रभाव रहे जैसे कि देश की स्वतंत्रता तक सभी क्रान्तिकारियो ने भारत की आजादी के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से प्रेरणा ली।मेरठ से कोतवाल धन सिहँ गुर्जर के नेतृत्व में शुरू हुए इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम में किसानो व सैनिको ने जी जान लगा दी अपने देश को आजाद कराने में , उन्होने नतीजो की ना सोचकर अंग्रेजो के जुल्म व ज्यादतियो के खिलाफ क्रान्ति का ऐसा बगावती बिगुल बजाया जो नब्बे सालो तक लगातार गूंजता रहा व हर आजादी के परवाने को व दीवाने को ऊर्जा व जोश देता रहा, देश पर मर मिटने का जज्बा व जुनून भरता रहा। दस मई सन सत्तावन को शाम पांच बजे मेरठ के गिरजाघर का घंटा बजते ही इस क्रान्ति के बिगुल को बजाया था मेरठ के कोतवाल धन सिहँ गुर्जर ने जो तत्कालीन मेरठ कोतवाली का नवनियुक्त कोतवाल था।
सन सत्तावन की क्रान्ति कोई रातोरात फट पडने वाला ज्वालामुखी नहीं था जो अचानक दस मई को फटा असल में यह कई महीनो पहले से तैयहो रही क्रमबद्ध योजना थी जो 31 मई 1857 को शुरू होनी थी मगर असंतोष व अंग्रेजो के प्रति गुस्सा हद पार कर चुका था जो इकत्तीस मई से पहले ही दस मई को बाहर निकल आया। अंग्रेजो की रिपोर्ट भले ही इसे केवल असंतुष्ट सैनिको को विद्रोह बताकर अपने अत्याचारो व जुल्मो पर पर्दा डाल देंगे मगर यह आम जनमानस का खुली बगावत थी जिसने पूरे ब्रितानी  भारत को अपनी चपेट में लिया व पहली बार हिंदुस्तान में विदेशीराज के खिलाफ इतनी बडी व ईंट से ईंट से बजाने वाला स्वाधीनता का संग्राम हुआ जिसे बाद में इतिहासकारो ने गुलाम भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहकर संबोधित किया ।
इस क्रान्ति की रूपरेखा पहले से तय थी , इसके लिये कई महीनो से अंदरखाने आग सुलग रही थी। जनश्रुतियाँ बताती हैं कि इस क्रान्ति के प्रतीक के तौर पर रोटी व कमल का फूल चुने गये , जहाँ रोटी किसानो व गाँव वालो को जोडने के लिये थी वहीं सैनिको के लिये शौर्य का प्रतीक कमल का फूल था। गांव गाँव रोटी घुमायी जा रही थी ताकि आन्दोलन का माहौल बन सके नहीं दूसरी ओर सैनिक छावनियों में कमल का फूल घुमाया जा रहा था जो भारतीय सैनिको में जोश का संचार कर रहा था।
उसी दौरान जब क्रान्ति माँ भारती के गर्भ में पल रही थी तो दो ऐसी घटना घटी जिनके कारण प्रसवकाल से ही पहले क्रान्ति ने जन्म ले लिया । पहली घटना  जो सैनिको में असंतोष लेकर आयी वो थी नयी एनफील्ड बंदूक जिनमें पीछे गाय व सुअर की चर्बी लगी थी व फायर करने के लिये जिसे मुँह से खींचना होता था । गाय व सुअर की चर्बी लगी इन बंदूको ने हिंदू व मुसलमान सैनिको में रोष पैदा कर दिया, वे अंदर ही अंदर तिलमिला उठे, बात धर्म भ्रष्ट होने की थी , अंग्रेजो की नापाक करतूत ने सैनिको में खलबली मचा दी । बैरकपुर बंगाल में एक सैनिक मंगल पांडे ने धार्मिक कारण से बगावत कर दी कि वह इस बंदूक का इस्तेमाल नहीं करेगा व अपने अधिकारियो के आदेश मानने से इंकार कर दिया , फलस्वरूप अंग्रेजो ने मंगल पांडे को 8 अप्रैल को बैरकपुर छावनी में फांसी पर चढा दिया मगर भारतीय सैनिको में अंग्रेजो की इस मनमर्जी का गहरा असर पडा वे मौके की तलाश देखने लगे जहाँ वे गोरो को मजा चखा सके। मंगल पांडे की शहादत व्यर्थ नहीं गयी ।
उसी दौरान मेरठ के पांचली गांव में किसानो के साथ भी एक घटना घटी जिसमें अंग्रेजो ने किसानो पर अपनी बर्बर कारवाई की। लोकश्रुतियो के अनुसार तीन किसानो का किसी बात को लेकर अंग्रेजो से कहासुनी हो गयी व पांचली गांव को किसानो ने आवेश में आकर अंग्रेजो को बांधकर पीटा व खेतो में जबरन काम कराया बस अंग्रेजो ने बाद में आकर गांव के मुखिया लंबरदार मोहर सिहँ गुर्जर को चेतावनी दी कि या तो उन तीन किसानो को खुद सौंप तो या पूरे गांव को तोप से उडा देंगे । मजबूरी में वे तीनो किसान अंग्रेजो के हवाले करने पडते जिन्हें बिना मुकदमे ही फांसी पर चढा दिया । अंग्रेजो की ऐसी बर्बर व अंधी कारवाई देखकर किसानो के खून में उबाल ला दिया ,वे भडक उठे, अपनी गुलामी को कोसने लगे ।गोरो के इस रवैये को सुनकर आसपास के किसान क्रोध की अग्नि में जल उठे, उनकी मूँछे फडकने लगी व मुट्ठियाँ तन गयी। संयोग से कोतवाल धन सिहँ गुर्जर पांचली गांव के ही थे व लंबरदार मोहर सिहँ के बेटे थे। अपने गांव वालो पर हुए इस जुल्म ने उसे अंदर तक झकझोर के रख दिया, गुलामी की हवाओ ने सांसो के सहारे जाकर अंदर तक जख्म किये। हर सांस जख्म को ताजा करती रही। बस यहीं से कोतवाल के मन में दस मई की क्रान्ति का बीज पडा जो महीने दो महीने में ही फल फूल गया ।
मई के महीने में जब चिलचिलाती धूप पडती है व गंगा यमुना का पूरा दोआब लू की लपेट में होता है तब सन सत्तावन में एक साधू के मेरठ के  कोतवाल धन सिहँ गुर्जर सो मिलने , सैनिको से मिलने व आसपास घूमकर किसानो को एकजुट करने की अफवाह फैलती थी, बाद के इतिहासकारो ने इस साधू को आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती कहा है ।
कुछ भी हो यह तो लगभग माना ही जाता है कि साधू व कोतवाल धन सिहँ गुर्जर ने छावनी में जाकर सैनिको को अंग्रेजो से बगावत करने को लिये प्रेरित किया व साथ ही जेल में बंद कैदियो को कोतवाल जी ने अपने साथ क्रान्ति के लिये तैयार कर लिया । कोतवाल धन सिहँ गुर्जर ने अपने गांव को साथ साथ आसपास के सभी गांवो में गुप्तखाने यह संदेश भिजवा दिया कि अंग्रेजो के खिलाफ दस मई को शाम पांच बजे निर्णायक लडाई लडी जायेगी ,सब को मेरठ की कोतवाली में आना है। और हुआ भी यहीं किसानो की घुटन ने लू में तपिश बढा दी ,सैनिको के क्रोध ने दस मई की उस शाम को रौद्र रूप धारण कर लिया और जैसे ही मेरठ में पांच बजे गिरजाघर व घंटाघर क घंटे बजे  और अंग्रेजो ने चर्च में जाकर प्रार्थना की ,ठीक उसी समय मेरठ की कोतवाली में  कोतवाल के नारे मारो या मरो के उदघोष के साथ सदियो से गुलाम भारत की आजादी का बिगुल बज उठा।दस मई की वह सांझ कोई साधारण सांझ नहीं थी बल्कि किसानो व सैनिको की साझी सांझ थी जिसमें वे अपने हको के लिये लड रहे थे, पराधीनता की रातो से लडकर आने वाले कल का सवेरा आजाद व खुशहाल देखना चाहते थे। यह सांझ हिंदू व मुसलमानो की साझी सांझ थी जब दोनो समुदायो ने कंधे से कंधा मिलाकर इस जनक्रान्ति में बढ चढकर हिस्सा लिया व भाइचारे की मिशाल कायम की।
कोतवाली में क्रान्ति का पहला कदम उठा , कोतवाल ने पुलिस के सिपाहियो से क्रान्ति के लिये आह्वान किया जो साथ ना आये उन्हें अंदर जाकर चुप बैठने को कहा व बाकि को साथ लेकर मेरठ के कारागारो में बंद कैदियो को क्रान्ति में शामिल होने की शर्त पर ताला तोडकर  रिहा कर दिया व कोतवाली के हथियार बांट दिये। इस प्रकार कोतवाली से कोतवाल धन सिहँ गुर्जर के नेतृत्व में चली यह टुकडी मुक्तिवाहिनी बन गयी। मेरठ कैंट में पहुँचकर वहाँ भारतीय सैनिको ने जबरदस्त विद्रोह कर दिया व मारो फिरंगियो को ,मारो गोरो को नारो के साथ अंग्रेज अधिकारियो को मार दिया मगर बच्चो व औरतो को सुरक्षित गिरजाघर में जाने दिया ।
वहीं गांवो से किसानो ने कूच करना शुरू किया व ले लो ,ले लो जैसे जोशीले नारे के साथ आसमान गूंज उठा । ले लो ,ले लो यह नारा गांव देहात में अब भी जोश व ललकार को लिये  लगाया जाता है ।
उसी दिन किसान,पुलिस सिपाही ,बागी व सैनिको का समूह जो कि अब मुक्तिवाहिनी का रूप से चुका था कोतवाल धन सिहँ गुर्जर को नेतृत्व में दिल्ली की ओर चल निकला। मेरठ के इस कोतवाल ने जो अब क्रान्तिकारीयो की अगुवाई कर रहा था मारो या मरो के नारे को साथ जोश भरते हुए उसी दिन दस मई को दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। अगले दिन क्रान्तिनायक कोतवाल धन सिहँ गुर्जर के नेतृत्व में मुक्तिवाहिनी ने मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को हिंदुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया व इस गदर की कमान बहादुरशाह जफर को सौंप दी। पहले तो बादशाह बहादुरशाह जफर ने इंकार किया मगर फिर सभी क्रान्तिकारियो के आग्रह पर अंग्रेजो के खिलाफ बगावती तेवर अपना लिये । उस दौर में मुगल सल्तनत अपनी आखिरी सांसे गिन रही थी व मुगल बादशाह नाम के बादशाह थे। लेकिन मुगल बादशाह का प्रभाव पूरे हिंदुस्तान में होने को कारण वीर क्रान्तिकारीयो ने मुगल बादशाह को ही कमान सौंप देना उचित समझा ।मेरठ की क्रान्ति के जनक कोतवाल धन सिहँ गुर्जर ने अपने असाधारण नेतृत्व कौशल का परिचय दिया व  अपने जोशीले भाषण व नारो से मुक्तिवाहिनी में ऐसा जोश भरा कि मेरठ से दिल्ली तक हर रास्ते व बाधा को पार करके अंग्रेजीराज की धज्जियाँ उडाते चले गये व गुलामी की बेडियों को फेंकते चले गये। ब्रितानी भारत में औपनिवेशिक अंधेरे को क्रान्ति की मशाल से जलाकर कोतवाल धन सिहँ गुर्जर ने अनुकरणीय वीरता व नायरत्व का अनुपम उदाहरण पेश किया । धन्य है वो संत जिसने गुलामी में वैराग्य की बजाय देश को आजाद कराने की अलख जगायी।
बात में अंग्रेजो ने अपने खिलाफ लोगो के ऊपर बहुत ही बर्बरतापूर्ण व अमानवीय कारवाई की । कोतवाल धन सिहँ गुर्जर को मेरठ के किसी चौराहे पर 4 जुलाई 1857 को दिनदहाडे फाँसी पर चढा दिया व लोगो को हराने के लिये शव को वहीं पेड पर लटकने दिया ताकि लोगो में खौफ रहे व अंग्रेजो के खिलाफ कोई चूँ तक ना करें।
खाकी रिसाले ने सबसे पहला हमला कोतवाल के गांव पांचली पर किया व पूरे गांव को तोप से उडा दिया जो लोग बचे उन चालीस लोगो को एक साथ चले हुए गांव में ही फाँसी दे दी। पूरा गांव तबाह हो गया। बाद में माँओ के पेट में पल रहे बच्चो व जो अपने ननिहाल में गये हुए थे उनसे यह गाँव फिर बसा।अंग्रेजो के जुल्म व ज्यादती आज भी इन गांव वालो की जुबान पर है पर साथ ही अपने पुरखो व कोतवाल की बहादुरी के किस्से भी पूरे मेरठ में मशहूर हैं व चाव से सुनाये जाते हैं । हर साल दस मई को क्रान्ति दिवस के तौर पर याद किया जाता है व क्रान्ति के जनक कोतवाल धन सिहँ गुर्जर को श्रद्धांजलि दी जाती है साथ ही उन सभी गुमनाम गांव वालो ,किसानो व जवानो को याद किया जाता है जिन्हें इतिहास में दर्ज नहीं किया गया।
भले ही यह जनक्रान्ति अपने प्रसवकाल से पहले ही फूट पडी  हो मगर इस क्रान्ति ने वो कर दिखाया जो आज सोचना मुश्किल है , अपने समय की विश्व की सबसे बडी ब्रितानी हुकूमत को हिला दिया जिसके बारे में लेखको का कहना था कि इनके साम्राज्य का सूरज कभी डूबता ना था मगर अंग्रेजीराज की चूले हिला दी थी मेरठ से शुरू हुई इस जनक्रान्ति ने जो भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम माना जाता है ।

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