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‘3 साल की बच्ची का अंकल ने किया रेप’, ये कोई खबर थोड़े ही है, क्यों ?

भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने अपने लोकप्रिय कार्यक्रम “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ ” की शुरुआत हमारे शहर पानीपत से लगभग 3 वर्ष पूर्व की थी। उस अवसर पर प्रधानमंत्री ने पानीपत में ही जन्मे विश्व विख्यात शायर व समाज सुधारक ख़्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली की नज़्म की पंक्तियां “ए माओ बहनों, बेटियों दुनिया की ज़ीनत तुमसे है, मुल्कों की बस्ती हो तुम्हीं, कौमों को इज्ज़त तुमसे है” दोहरा कर पानीपत को सम्मानित किया था। आज तीन ऐतिहासिक लड़ाइयों का गवाह रहा अल्ताफ हुसैन हली का वही शहर शर्मसार हुआ है।

एक तीन साल की लड़की के साथ उसके ही पिता के एक दोस्त ने टॉफी का लालच देकर जघन्य अपराध बलात्कार किया है। बालिका रात भर पीड़ा से करहाती रही। शायद उसे नहीं पता होगा कि उसके साथ यह क्या हुआ है। उसकी उम्र मात्र तीन साल है और गुड्डे गुड़िया से खेलने की उम्र में उसे नहीं पता था कि उसके साथ क्या होने वाला है। पिता के दोस्त पर क्या वो ये शक कर सकती थी कि वह उसके साथ बलात्कार जैसे वीभत्स कृत्य कर उसे मौत के नज़दीक ले जाएगा। क्या हम तीन साल के बच्चे से ये उम्मीद करें कि वो खूंखार वहशी दरिंदों से अपनी सुरक्षा खुद करे। क्या तीन साल के बच्चे को ये आभास होगा।

अखबार में एक तीन साल की बच्ची के साथ बलात्कार की खबर पढ़कर मन खराब हो गया। हम किस तरह के समाज का निर्माण कर रहे हैं। जिन लोगों पर हम सबसे ज़्यादा भरोसा करते हैं वे इतने दरिंदे कैसे बन सकते हैं। लेकिन शायद लोगों के लिए अब ऐसी खबरें आम हो गई हैं। आज समाज में 3 साल की बच्ची से लेकर 100 साल की बुजुर्ग महिला तक सुरक्षित नहीं हैं। क्या वे भी इंसान नहीं हैं, क्या वे किसी की बेटी, बहन, माँ नहीं। क्यों हमने सभी रिश्तों, संवेदनाओं को तार-तार कर दिया है। ऐसी खबरें सुनकर अकसर सिहरन पैदा हो जाती है क्योंकि अपनी बच्चियों के लिए भी डर और बढ़ जाता है।

हरियाणा में बेटियां ना गर्भ में सुरक्षित हैं और ना बाहर हीं। ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का नारा देने वाली सरकार भी एक सुरक्षित और संवेदनशील समाज बना पाने में विफल साबित हो रही है। डॉक्टरों की संवेदनहीनता का आलम यह था कि उपचार शुरू करने से पहले सुबह अस्पताल में उसकी माँ को परेशान किया कि पहले पुलिस को बुलाओ। CJM के आने के बाद भी डॉक्टर्स और पुलिस की संवेदनहीनता बरकरार रही और CJM को भी परेशानी झेलनी पड़ी तो आम जनता को कितना परेशान होना पड़ता होगा, सोचा जा सकता है।

इससे पहले भी एक 100 साल की बुजुर्गा के साथ बलात्कार करके हैवानियत की सारी हदें पार कर दी गई थी। पिछले सप्ताह ही पानीपत के ही नज़दीक यूपी के कांधला में उन पुलिसवालों ने एक गर्भवती के पेट में लात मारकर उसका बच्चा गिरा दिया जिन पुलिसवालों पर जनता की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी होती है।

अभी उस बच्ची की हालत बेहद नाज़ुक है। हो सकता है वो बच्ची बच जाए और यह चोट भर जाए। एक मुजरिम को पकड़ लिया गया है और दूसरा मुजरिम भी जल्द ही पकड़ लिया जाएगा। और कानूनन उन्हें सख्त से सख्त सज़ा भी मिल ही जाएगी। लेकिन क्या कानूनी कार्रवाई और इस सज़ा से उस बच्ची के मानसिक और भावनात्मक ज़ख्मों को भरने में मदद मिलेगी। लेकिन पूरी उम्र वो बच्ची इस हादसे से उबर पाएगी। उसके मानसिक स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा। क्या वह भविष्य में कभी किसी पुरुष पर यकीन कर पायेगी। क्या पुरुषों से लड़कों से और इस संवेदनहीन समाज से उसका विश्वास नहीं उठ जाएगा।

कुछ लोग इनकी सज़ा के पैमाने पर जनमत कर रहे हैं कि इन्हें फांसी हो या सरेआम गोली। पर यह कानून व न्याय के साथ पितृसत्ता और सामाजिक पतन का भी विषय है। निर्भया सामूहिक जघन्य बलात्कार की घटना के बाद से बलात्कार और यौन उत्पीड़न के खिलाफ एक जबरदस्त जन उभार पैदा हुआ, लाखों लोग सड़कों पर उतर आए। हर उम्र और हर वर्ग के लोग इस तरह की घटनाओं के खिलाफ आये। कैंडल मार्च, रोष प्रदर्शन के ज़रिये लोगों ने सरकार पर दबाव बनाया। जिसके बाद जस्टिस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट आई और ऐसे मामलों को शीघ्रता से व संवेदनशीलता से हैंडल किया जाए। लेकिन 5 साल बीतने और लोगों के गुस्से को भावनात्मक रूप से भुनाकर आई सरकार के आने के बावजूद ऐसी घटनाओं में कोई कमी नहीं आई है बल्कि ऐसी घटनाएं बढ़ ही रही हैं।

ऐसी घटनाएं सामने आने से लोगों में सक्रियता बढ़ती है, लोग गुस्सा होते हैं, सड़कों पर उतरते हैं। कैंडल मार्च निकालते हैं, दोषियों को कठोर से कठोर सज़ा देने की बातें होती हैं। उन्हें फांसी की सज़ा दिए जाने, नपुंसक बनाये जाने की मांग की जाती हैं। सरकार भी फौरन हरकत में आती है, कुछ मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट में केस को डाला जाता है।

निर्भया गैंग रेप केस में एक नाबालिग को छोड़कर बाकी दोषियों की फांसी की सज़ा पर सुप्रीम कोर्ट भी मोहर लगा चुका है, लेकिन सख्त से सख्त सज़ा का डर भी बलात्कारियों को रोक पाने में नाकामयाब रहा है। क्या सीसीटीवी कैमरे लगा देने, पुलिसबलों की संख्या बढ़ा देने या कानून को सख्त कर देने से इस तरह के अपराधों में कमी आ पाएगी। क्या कानून का खौफ लोगों को जुर्म करने से रोक पाने में सफल हुआ है। कानून का सही से पालन करना और इस तरह के सुरक्षात्मक कदम उठाना बेहद ज़रूरी है लेकिन यह अपने आप में काफी नहीं है।

जब तक पुरुषप्रधान समाज महिलाओं को दोयम दर्जे का और केवल सेक्सपूर्ति का साधन मानता रहेगा तब तक इस तरह के अपराधों में कमी आना मुश्किल है।

असल में हमारा सामाजिक, राजनीतिक व कानूनी सिस्टम भी इस तरह के अपराधियों का हौसला बढ़ाता है, क्योंकि बलात्कार के बेहद कम मामले ही देश में रिपोर्ट हो पाते हैं क्योंकि समाज में बलात्कार या यूं उत्पीड़न की शिकार लड़कियों को ही गलत और दोषी की नज़रों से देखा जाता है।

दर्ज मामलों में भी सालों मुकद्दमा चलने के बावजूद केवल कुछ फीसदी मामलों में ही दोषियों को सज़ा हो पाती है। ज़्यादातर मुजरिम अपने आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक रसूख व दोषपूर्ण कानूनी प्रक्रिया के चलते छूट जाते हैं। लेकिन हमारे देश में हमने इसे सामान्य मान लिया है, जहां पर लिंग अनुपात में असंतुलन के कारण हिंसा होती हो, जहां पर महिलाओं का कोई सांस्कृतिक सम्मान ना हो, प्रतिवर्ष 37000 से अधिक बलात्कार के मामले वास्तव में हैरान कर देते हैं।

राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के अनुसार गत 10 वर्षों में बलात्कार के मामले दोगुने से अधिक हुए हैं। देश में प्रत्येक 4 मिनट में एक बलात्कार होता है। प्रत्येक एक घंटे में एक अपराध होता है या 2 मिनट में एक शिकायत दर्ज होती है। 2015 के दौरान छेडख़ानी के 470556 मामले, अपहरण के 315074 मामले दर्ज हुए जिनमें से 243051 के साथ बलात्कार किया गया, 104151 महिलाओं के साथ बदतमीजी की गई, 80833 दहेज मौतें हुईं तथा 66 प्रतिशत महिलाओं को 2 से 5 बार यौन उत्पीडन का सामना करना पड़ा।

स्थिति कितनी भयावह है इसका अंदाज़ा राजधानी दिल्ली से लगाया जा सकता है, जहां पर देश के बलात्कार के कुल मामलों में से 17 प्रतिशत मामले हुए। 2012 में दिल्ली में बलात्कार के मामलों की संख्या 706 थी और जो 2016 में बढ़कर 2199 हो गई। फिर भी अपराधियों को सज़ा देने की दर कम हुई है। 2012 में पुलिस ने 49.25 प्रतिशत दोषियों को सज़ा दिलाई जिनकी संख्या घटकर 2013 में 35.69 प्रतिशत, 2014 में में 34.5 प्रतिशत और पिछले वर्ष मात्र 29.37 प्रतिशत रह गई और यह स्थिति तब है जब निर्भया मामले के बाद अनेक सुधार किए गए हैं और बलात्कार के मामलों के लिए फास्ट ट्रैक न्यायालय बनाए गए। इसका एक कारण लिंग अनुपात में असंतुलन बताया जाता है।

आज छोटी बालिकाओं के अभिभावक चिंतित हैं कि किसके ऐतबार पर इन बच्चियों को छोड़े। कपड़ों के साइज़ पर लड़कियों को नसीहत देने वालों को सोचना होगा कि परदे , बुर्के तथा छोटी बालिकाएं भी अपराधिक मनोवृत्तियों से सुरक्षित नहीं हैं। बालिकाओं को पूरी सुरक्षा मुहैया, अपराधियों को कानून का भय हो तथा न्याय त्वरित हो, ऐसा भरोसा उन्हें देना होगा। सब मिलकर यह यकीन उन्हें दे सकें तभी बेटी बचेगी और शिक्षित होगी ।

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