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मैं तो ‘अच्छी लड़की’ से ‘आज़ाद लड़की’ बनने चली, और आप?

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खुश लड़की की तस्वीर

खुली हवा, बिखरते बाल, मचलता हृदय, डूबती सांझ में उभरती उमंगे, खिलती मुस्कान, तैरती हंसी, उछलती मछलियां , दौड़ती गाड़ी, उड़ती आसमां में मैं! कितना अच्छा लगता है ये सुनने में एक हसीन सी दुनिया लगती है। ज़िंदगी के ऐसे ही रंगों की कल्पना की थी। मगर जीने का मौका नहीं मिला। मौका मिला था तो घुटती सांसों को महसूस करने का, उन नसीहतों को मानने का कि मुझे अच्छी बेटी बनना चाहिए, संस्कारी बनना चाहिए, अच्छी बहन बनना चाहिए, अच्छी मां, अच्छी बीवी और समाज से अच्छा होने का एक प्रमाण पत्र हासिल करना चाहिए।

और अच्छे बनने की परिभाषा अगर आप लोग ना जानते हों तो सुनिए, अच्छे बनने के लिए आप लड़के दोस्तों से मैक्सिमम दूरी रखिए। अरे ! अभी तो बस कैजुअल फ्रेंड्स से डिस्टेंस मेन्टेन करने को कहा है बॉयफ्रेंड की तो बात ही नहीं हुई। जब कैजुअल फ्रेंड्स की ही परमीशन नहीं है तो बॉयफ्रेंड का तो ख्वाब देखना भी अच्छी लड़की के लिए पाप है। अगर गलती से भी आपने दोस्त बना लिए तो आप उनकी कोई भी बात घर पर नहीं कर सकती।

ओह! सॉरी…सॉरी ये बताना भूल ही गई मैं कि दोस्तों में भी पसंद अच्छी लड़की की नहीं चलेगी, वहां भी दोस्त भाई को पसंद आने चाहिए या उसकी नॉलेज में होने चाहिए नहीं तो आप अच्छी लड़की होने की परिभाषा से बाहर हो सकती हैं। पार्टी और नाईट आउट तो भूल ही जाइए।अच्छी लड़की हमेशा समाज के इच्छानुसार ही कपड़े चूज़ करती है।

सिंपल, सोबर, अपने भाई की, माँ की पसंद के हिसाब से ही चले और सूट पहने और दुपट्टे से अपने आप को ढक कर रखे तब ही वो संस्कारी कहलाने की पात्र है।

पुराने वक्त में लड़की को आज़ादी के तौर पर साहित्य पढ़ने तक की ही आज़ादी दी जाती थी, आज वो दायरा बढ़ कर फोन रखने तक आ गया है। उसमें भी ये नियम लागू की फोन में नंबर किसी भी लड़के का नहीं होना चाहिए, ये ठीक वैसा ही है जैसे पुराने समय में आप साहित्य पढ़ सकती थी मगर आप क्लियोपात्रा नहीं पढ़ सकती,या वैशाली की नगर वधु जैसी चीज़े नहीं पढ़ सकती थी। आपको बाज़ार माँ के संग जाना है, किसी दोस्त से मिलने या किताब लेने-देने जाना है तो या तो भाई के साथ या माँ के साथ।

कमाल तो यहां है कि लड़का देर रात तक पार्टी करके आ सकता है अगर वहीं लड़की जाने का प्लान तो छोड़ो, सोच भी ले तो कमेंट जो सुनने को मिलेंगे आप कल्पना भी नहीं कर सकते|। यकीन मानिए वो कमेंट माँ-बहन की गलियों से ज़्यादा चोट करते हैं। चोट खाता है तो अहम , दिल का क्या है चार आंसुओं के बाद नींद आ ही जाती है। मैं कोई फेमिनिस्ट नहीं हूं और ना किसी नारीवादी संस्था से हूं मगर तकलीफ मुझे भी है, क्योंकि अच्छी लड़की बनने की दौड़ में मैं भी शामिल रही हूं।

उपर लिखी सारी ख्वाहिशें ही रह गई। आज भी शर्तिया तौर पर तो नहीं कह सकती कि मैं अच्छी लड़की हूं, प्रमाण पत्र नहीं मिला है अभी तक। हां मगर मैं पूरा दिन घर के एक कमरे में रहती हूं ,किसी से मिलने के लिए 10-12 झूठों को सच बनाने के लिए तैयार रहती हूं।

दिल तो आज़ाद लड़की का मिला मगर पैरों में बेड़ियां संस्कारी और अच्छी बनने वाली लड़की की है।

कभी लिखने की आज़ादी नहीं थी आज आज़ाद हूं लिखने के लिए। कभी उम्मीद में आंखे भाइ पर टिकाई थी कि ये मेरी आज़ादी के लिए बोलेगा मगर आजकल तूफान अपने अंदर पाल रही हूं कि जिस दिन उस तूफान की लहरें उठे तो डूब जाए वो अच्छी लड़की और बाहर निकले, आज़ाद परिंदे सी हवा जो एक पल में बैग समेट के ट्रेकिंग कैम्प के लिए निकल जाए और दूसरे ही पल में जीम के ट्रेडमील पर  पसीना बहाए, तीसरे ही पल किसी पहाड़ी पर बैठ कर तारों को तक रही हो चौथे ही पहर वो अपने टॉप पर और जिन्दगी में  एक लेबल लगा रही हो “आज़ाद  लड़की” का।

उसे सुनाई दे तो अपनी सांसों की आवाज़ें ना की माँ के वो कमेंट जिनमें चार लोग क्या कहेंगे का ज़िक्र हो। राईट टू रिजेक्ट को वो जीना सीख चुकी हो। मेरे लिए अब कम से कम आज़ाद लड़की का टैग बनने के लिए गया हुआ है जो बहुत जल्दी आ जाएगा, आप कब आर्डर कर रहे हैं आज़ादी का टैग?

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