दक्षिणी एशिया एक विशाल सांस्कृतिक क्षेत्र है जिसकी अनेक समान विशेषताओं में से एक है – धर्म। करीब-करीब सभी समाजों में धर्म को जीवन की आधारभूत इकाई माना गया है। धर्म आपकी दिनचर्या से लेकर जीवनसाथी चुनने और विवाह तक की प्रक्रिया को भी अधिनियमित करते हैं।
क्वीयर होना अपने आप में एक खूबसूरती है, क्योंकि आप समाज मे स्थापित सिसजेंडर पितृसत्तात्मक विषमलैंगिकता (हेट्रोपेट्रिआर्की) को ठेंगा दिखाकर अपनी मूल जैविकता व लैंगिकता (सेक्शुएलिटी) के साथ जीना शुरू कर देते हैं। मगर क्या एक क्वीयर के तौर पर किसी भी धार्मिक समाज में खुलकर आना आसान है? जवाब है – नहीं।
इस्लाम मत भी इनमें अपवाद नहीं। जैसा कि सभी जानते ही हैं कि ईसाई एवं इस्लाम दोनों ही धर्मों में समलैंगिकता प्रतिबंधित है। तो चूंकि मैं एक ऐसे धर्म का हिस्सा हूं जहां समलैंगिकता प्रतिबंधित है लेकिन इस पर मेरा मत अलग है। मैं जन्मजात मुसलमान हूं मगर खुद को नास्तिक कहता हूं। गौरतलब है कि कोई भी पूर्णतया नास्तिक या आस्तिक नहीं हो सकता। मैं बस दिनचर्या से जुड़ी प्रक्रियाओं का पालन नहीं करता।
मैं अपने अलावा भी यदि अन्य क्वीयर लोगों की बात करूं तो उनके मत अलग हो सकते हैं। जैसे वे शायद खुद को अल्लाह के डर के कारण क्वीयर मानने से ही इंकार कर दें, और यह एक समान्य व्यवहार है।
यदि मैं अपने एक मित्र तंज़ील (जो स्वयं को आस्तिक मानता है) का जिक्र करूं तो वह यह कहता है कि अल्लाह को भी प्यार की ज़रूरत है, नमाज़ अदा करने का आपकी सेक्शएलिटी से क्या संबंध? वह यह भी मानता हैं कि एक बहुसंख्यक आबादी में यदि अपनी बात कहनी है तो मज़हब का ज़रूरी विमर्श है जिसको नकारा नहीं जा सकता।
मैं किसी भी धर्म की आधुनिक रूपरेखा के लिए उसके समाज, काल-परिवेश और समाजिक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को भी ज़िम्मेदार मानता हूं। जैसे कि जिन देशों मे 90 के दशक में समलैंगिकता को मान्यता मिल गई वहां जनता अब इन संबंधों के लिए सहज है। पर समलैंगिकों के प्रति द्वेष (होमोफोबिया) उन देश कम नहीं हैं। हिंदुस्तान कम-से-कम दक्षिण एशियाई देशो में इस्लामिक क्वीयर के लिए बेहतर है।
बहरहाल यह मेरे लिए मुश्किल है कि मैं अपनी अम्मी और परिवार को बता सकूं कि मैं कौन हूं , मेरी सेक्शुएलिटी क्या है, क्योंकि उन्हें भी समाज और कुफ़्र दोनों का डर है। एक दलित मुस्लमान और आर्थिक रूप से कमज़ोर मुसलमान के लिए ये और भी मुश्किल हो जाता है। और यह असुरक्षा तब और बढ़ जाती है जब आप मुस्लिम औरत हों। एक सामान्य महिला का जीवन तमाम अपवादों और धार्मिक कुरितियों का शिकार होता है, ऐसे मे समलैंगिकता उसकी मुश्किल और बढ़ा देती है।
पितृसत्ता के कारण ही एक सामान्य समाज में पुरुषों में कोमलता के गुण होना एक बुराई मानी जाती है। जैसे समलैंगिक लड़कों और ‘फेमीनाइन’ लड़कों को ‘मेहरा’ बोला जाता है (जो कि मेहरारू यानि जिनको मेहर दी जाए) का पुरुष रूपांतरण है।
यह सब ये दर्शाता है कि धर्म से अधिक आपकी मानसिकता ज़िम्मेदार होती है। मेरे कई दोस्त हैं जो खुद को खुलेआम और गर्व से समलैंगिक मुसलमान कहते हैं। उनके मुसलमान दोस्तों ने और परिवार ने उन्हें अपनाया है। वे अपने कार्यक्षेत्र में सफल भी हैं और अभी तक अल्लाह ने उनपर कोई कुफ़्र नहीं अदा किया है। क्योंकि यदि अल्लाह ने, ईश्वर ने, भगवान ने ये दुनिया बनाई है तो क्वीयर लोगों को किसी और ने नहीं भेजा होगा। जो लोग हम में शैतान खोजते हैं उनसे मैं मंटो के शब्दों मे कहना चाहूंगा,
गर हम गुनहगार अल्लाह के हैं, तो अल्लाह के बंदे हमारा इंसाफ क्यों करे? अल्लाह की बनाई जेलों मे हमारा इंसाफ हो पर ये क्या अल्लाह ने नहीं जेल तो उसके बंदो ने बनाई है।
इस्लाम में यदि हम सूफी मत की ओर देखें तो हमको वहां पर भी होमोसेक्शुएिटी के और होमोरोमैंटिसम के खूबसूरत उदाहरण मिलते हैं। बेहद खूबसूरती से बुल्लेशाह अपना इश्क कहते हैं, कि दरअसल हम इंसान शापित हैं शायद प्रेम को ना समझ पाने के लिए। जिन बातों को हम आधार बनाकर एक छोटे ही सही समाज के हकों का विरोध करते हैं अल्लाह उनका भी न्याय करेगा क्योंकि उसने किसी को चोट पहुंचाने को गुनाह-ए-अज़ीम माना है। आप हमें शैतान मानिए मगर हमें पता है कि हमारा ईश्वर हमसे प्रेम करता है और हम भी उसके ही बंदे हैं।
तो आओ हम क्वीयर भी अल्लाह की बनाई दुनिया में खौफ और शर्मिंदगी से दूर, इज़्जत और गर्व से जिएं, और अपने हक के लिए लड़ें!
नोट- इस लेख का एक रूप Feminism in India वेबसाइट पर भी प्रकाशित हो चुका है