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बिमल रॉय की खूबसूरत फिल्मों में से एक है ‘मधुमती’

बिमल रॉय की ‘मधुमती’, मधु और आनंद के पुनर्जन्म की कहानी है। कथाक्रम को पूरा करने के लिए दिलीप कुमार और वैजयंती माला के किरदारों को अलग-अलग समयकाल में गढ़ा गया। इस अवधारणा में आनंद और मधु की प्रेमकथा का सुखात्मक अंत देवेन्द्र और राधा में हुआ। मधु, माधवी और राधा के पात्रों से वैयजंती माला प्रमुखता से उभर कर आई। फिल्म में उम्दा अभिनय के लिए उन्हें 1959 में ‘फिल्मफेयर’ पुरस्कार मिला था। मधुमती को बिमल रॉय की बड़ी कमर्शियल ‘हिट’ फिल्म के तौर पर देखा जाता है।

आनंद एवं मधु की रूहानी प्रेमकथा जो कभी प्रकृति की गोद में सांसें ले रही थी, त्रासद रुप से इन्हीं फिज़ाओं में सिमट गई। हरित – नैसर्गिक प्रदेश में पल रहे प्रेम को विकास के ठेकेदार (पूंजीवादी खलनायक) की नज़र लगी। हिंदी सिनेमा में नैसर्गिक पर्यावरण की छटा ( कैमरे में कैद दिलकश नैसर्गिक नज़ारा) ‘मधुमती’ से निखर कर आई।

एक सर्द भीगी रात में देवेन्द्र (दिलीप कुमार) और उसके साथी को लेकर एक कार दुर्गम पर्वतीय रास्तों से गुज़र रही है। देवेन्द्र अपनी धर्म-पत्नी को रिसीव करने रेलवे स्टेशन जा रहा है, लेकिन भारी बारिश की वजह से देवेन्द्र की कार को बीच रास्ते में ही रुकना पड़ता है। मौसम सामान्य होने के इंतज़ार में दोनों साथी करीब की एक पुरानी हवेली में आश्रय लेते हैं, हवेली में आकर देवेन्द्र को कुछ ऐसी वस्तुओं और चिन्हों का सामना होता है जो पूर्वजन्म की याद दिलाते हैं। हम देखते हैं कि हवेली से देवेन्द्र की पिछले जन्म की यादें जुड़ी हैं, इस पुरानी जगह पर आकर उसे अपना गुज़रा ज़माना याद आता है।

कथा फ्लैशबैक में एक दास्तान बयान करती है। बात तब की है जब देवेन्द्र पूर्वजन्म में राजा साहब की शामगढ़ टिम्बर स्टेट (कंपनी) में आनंद (दिलीप कुमार) के रूप में मैनेजर था। प्रकृति प्रेमी आनंद को नैसर्गिक वातावरण से प्रेम है, शामगढ़ व उसके आसपास के हरित व विहंगम दृश्य के बीच वह जीवन के सबसे सुहाने दिन गुज़ार रहा है। फ्लैशबैक में चलती कथा पर्वतीय सुंदरी मधुमती (वैजयंतीमाला) को प्रस्तुत करती है। वह कहानी का आकर्षण बिंदु है।

मधु आकर्षक व्यक्तित्व की मल्लिका है और बहुत अच्छा गाती भी है। आनंद वादियों में गूंजती मधुमती की मदमस्त आवाज़ ‘आ जा रे परदेसी’ का सच जानना चाहता है, आखिर वह कौन है जो रह-रह कर यूं आवाज़ देती है? आवाज़ के पीछे ओझल व्यक्तित्व को जानने वह उस ओर जाता है। उसकी उत्कट जिज्ञासा उस व्यक्तित्व को तलाश कर लेती है, यह आकर्षक छवि मधुमती की है। मधु (जैसा कि आनंद उसे सम्बोधित करता है) के रहस्यमयी और सुंदर व्यक्तित्व का कायल होकर आनंद उसे चाहने लगता है। उधर मधु भी आनंद बाबू के स्वच्छ, निश्छल आचरण से प्रभावित होकर, प्रेम बंधन में बंध जाती है।

कथा में आगे पहाड़ियों के राजा व मधु के पिता ‘पान राजा’ (जयंत) का गुज़रा कल बताया जाता है। पहाड़ियों व शामगढ़ टिम्बर कम्पनी में संघर्ष का तथ्य सामने आता है। पहाड़ी, कंपनी वालों की पूंजीवादी नीतियों व अत्याचार से त्रस्त हैं, पान राजा व पहाड़ी लोगों की कम्पनी वालों से शत्रुता है।

पहाड़ी लोगों का संघर्ष प्राकृतिक संपदा के संरक्षण के लिए है, पूंजीवाद को मानवीय संवेदनाओं से कोई विशेष सरोकार नहीं। शामगढ़ टिम्बर कंपनी का पूंजीवादी खलनायक उग्रनारायण (प्राण) आनंद-मधुमती की मधुर प्रेमकथा में एक बड़ी बाधा है। वो पान राजा से पुरानी दुश्मनी का हिसाब चुकाने और इंजीनियर आनंद को मधु से दूर करने की योजना बनाता है। उसकी यह रणनीति (फिल्मों में पूंजीवादी ताकतवर खलनायक आला दर्जे का राजनीतिज्ञ रहा है) लगभग कामयाब होती है और आनंद व मधु में अपरिहार्य दूरियां जन्म लेती हैं।

उधर पान राजा भी किसी कंपनी वाले से मधु का मिलना-जुलना ठीक नहीं मानते, लेकिन कंपनी का नौकर होकर भी आनंद का आचरण कंपनी वालों जैसा अवसरवादी नहीं है। न ही वह भोली-भाली पहाड़ी लड़कियों को धोखा देने वाला कपटी ‘परदेसी’ ही है। उसके मन में मधु के लिए निश्छल प्रेम है। यह रुहानी प्यार देखकर पान राजा प्यारी बेटी का हाथ परदेशी को सौंप कर दोनों का ब्याह पक्का कर देते हैं।

ऐसा समझ में आता है कि अब सुखद समापन होगा, पर हमें यह भी मालूम है कि उग्रनारायण मधु को किसी भी कीमत पर पाने के लिए कोई नाटकीय चाल चलेगा। रणनीति के तहत वो मधु को अगवा कर लेता है। भोग-वासना के नापाक इरादे को अंजाम देने के लिए वह मधुमती की ओर बढ़ता है। अस्मिता के खुले दुश्मन की साजिश में स्वयं को घिरा पाकर आत्मरक्षा में मधु खुदखुशी कर लेती है। उधर आनंद जब शहर से लौटकर आता है तो उसे मधु कहीं भी नज़र नहीं आती। गुज़री घटना से अंजान आनंद, मधु को तालाश करता रहा। इस बीच उसे जॉनी वॉकर से पता चलता है कि कंपनी का मालिक उग्रनारायण मधुमती के अपहरण व हत्या का दोषी है।

आनंद मधु के हत्यारे को सज़ा दिलाने के लिए, दोषी को उसके ही जाल में फांसने की रणनीति बनाता है। मधु की हमशक्ल ‘माधवी’ इसमें सहयोग का वायदा करती है, लेकिन उसके तयशुदा जगह व समय आने से पहले मधुमती की आत्मा के सामने उग्रनारायण कत्ल का जुर्म कबूल कर लेता है। स्वीकारोक्ति बाद वहां मौजूद पुलिस अधिकारी उसे साथ ले जाते हैं। इस तरह मधुमती और आनंद के गुनहगार को सज़ा मिली। लेकिन प्यार का दुखद अंत आनंद के व्याकुल मन को शांत न कर सका, मधु का यूं खो जाना उसे सहन नहीं हुआ, उसकी रुहानी आवाज़ (आ जा रे परदेसी) की पुकार की ओर जाकर मधु की तरह वो भी जान दे देता है। इस तरह जीवित होकर न साथ मिल सके तो मर कर दोनों मिलते हैं।

देवेन्द्र की पूर्वजन्म की दास्तान वर्तमान में ‘रेल दुर्घटना’ की खबर से जाकर मिलती है, देवेन्द्र की पत्नी राधा (वैजयंती माला) इसी गाड़ी में सवार थी। सौभाग्य से दुर्घटना में राधा व उसका बच्चा सुरक्षित है।

सोचता हूं कि क्या नैसर्गिक प्रकृति से अलग मधुमती की संकल्पना संभव थी? शायद नहीं क्योंकि मधु का व्यक्तित्व इसी वातावरण की देन है। नैसर्गिक दृश्यों के बीच गूंजती पुकार ‘आ जा रे परदेशी’ कथावस्तु के खास सेट-अप को पूरा करती है। मधुमती प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी है और इस वातावरण से उसे विशेष लगाव है। फिल्म की संपूर्ण कथा इसी प्राकृतिक परिवेश में सांस ले रही है। इसी वजह से ‘वन संपदा संरक्षण’ का प्रसंग फिल्म में आया है। पहाड़ी लोग व पान राजा (मधु के पिता) टिम्बर कंपनी की गतिविधियों के विरुद्ध हैं।

बिमल रॉय के सिने सफ़र में ‘मधुमती’ का निर्माण एक रहस्य की तरह है। गौरतलब है कि उनका सिनेमा साहित्य व यथार्थ से सदैव ही प्रेरित रहा, किन्तु ‘मधुमती’ इस धारा से थोड़ी अलग है।

बिमल रॉय के सिनेमा पर नज़र डालें तो उनमें यथार्थवाद, नव-यथार्थवाद आंदोलन का स्पष्ट प्रभाव समझ में आता है। समाज व यथार्थ के तत्त्वों से प्रेरित सिनेमा रजत-पटल पर साकार भी हुआ।

बिमल रॉय की अधिकांश फिल्में तत्कालीन सामाजिक यथार्थ की प्रवक्ता रहीं, उनके सिनेमा में साहित्यिक कृतियों का संजीदा रुपांतरण मिलता है। साहित्य की महान व स्मरणीय कथाएं – ‘देवदास’, ‘परिणीता’, ‘सुजाता’, ‘काबुलीवाला’, ‘उसने कहा था’, ‘बिराज़ बहू’ जैसी फिल्मों की सामाजिक अपील बिमल रॉय के सिनेमा की विशेषता है। ऐसे में ‘मधुमती’ की कथा-वस्तु उनके सिने संसार में अलग ही झलकती है।

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