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ये गुस्सा हमें रानी पद्मावती के आत्मदाह के पहले भी आना चाहिए था

संजय लीला भंसाली की ‘पद्मावती’। यह फिल्म अभी रिलीज़ होनी बाकी है, मगर रिलीज़ से पहले का हंगामा, प्रोपेगंडा और एक विशेष जाति द्वारा इस पर बैन की सिफारिश करना बिलकुल भी न्याय संगत नहीं लगता है। इतिहास मैं भी उतना ही जानता हूं, जितना बताया गया। फिल्म के बारे में भी इतना ही जानता हूं जितना ट्रेलर में दिखाया गया। ट्रेलर देखकर मुझे कोई आपत्ति नहीं हुई। क्योंकि इस तरह की कोई आपत्तिजनक दृश्य नहीं दिखे ट्रेलर में।

बहरहाल, पूरा देश फिलहाल बवाल काट रहा है। इस पर बैन की मांग लगातार बढ़ रही है। पर मेरे कुछ सवाल है, जो मैं उस विशेष वर्ग से पूछना चाहता हूं जो इस पर बैन की मांग कर रहा है ।

मैं आपको इतिहास में थोड़ा पीछे ले जाना चाहूंगा। रानी पद्मावती के वक्त। खुद को एक बार महसूस कीजिए उस सीढ़ी पर खड़ा। अंतिम सीढ़ी पर रानी पद्मावती खड़ी है और करीब 16000 दासियों एवं रानियों के साथ आत्मदाह के लिए अंतिम कदम बढ़ाने वाली है। आपका खून नहीं खौला ? आपको गुस्सा नहीं आया ? बिल्कुल आया होगा । मुझे भी आया।

एक तानाशाह, एक साम्राज्यवादी राजा, जिसने दूसरे राज्य पर आक्रमण किया है। उससे अपनी आबरू, अपनी इज्ज़त बचाने के लिए एक रानी आत्मदाह कर रही है, साहसी परन्तु लाचार वीरांगना आत्मदाह कर रही है।

 जब रानी पद्मावती आत्मदाह कर रही थीं उसी वक्त हमें ये गुस्सा आना चाहिए था जो गुस्सा अब आ रहा है।

बैन की मांग करना आसान है। थोड़ा राजनीतिक दबाव बनाइए, एक आध दंगे फसाद कराइए। सेंसर बोर्ड और पुलिस जनभावना आहत ना हो इसलिए सर्टिफिकेट देने से मना कर देगी। थीएटर वाले तोड़फोड़ आगजनी के डर से फिल्म को अपनी स्क्रीन देने से मना कर देंगे और इस तरह फिल्म औंधे मुंह गिरेगी।

आखिर हम कर क्या रहे हैं?  कहां जा रहे हैं ? अभिव्यक्ति की आज़ादी कहां है ? कला एवं संस्कृति की आज़ादी का क्या हुआ? इतिहास तय करने वाले हम कौन हो गए हैं? फिल्म आने दीजिए, जिन्हें देखना है देखेंगे। जिन्हें नहीं देखना है, वो स्वतंत्र हैं बहिष्कार के लिए।

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