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“और भी कोर्स हैं ज़माने में इंजीनियरिंग के सिवा”

मैं रोज़ की तरह अखबार पढ़ रहा था कि अचानक मेरी नज़र बीटेक छात्रों और उनकी रोज़गार की परिस्थितयों से सम्बंधित एक लेख पर पड़ी। मैंने पढ़ना शुरू किया तो पढ़ते-पढ़ते कपार में बहुत सारी बातें गूंजने लगी। उस लेख में सरकार और व्यवस्था को बहुत कोसा गया था, महज़ कुछ पंक्तियों में ही इंजीनियरिंग ग्रेजुएट की बदहाली का ठीकरा सरकार पर फोड़ दिया गया। सारी ज़िम्मेदारी सरकार पर लाद दी गई।

देखिए, बेरोज़गारी और बिगड़ते आर्थिक हालात से केवल इंजीनियरिंग के छात्र ही नहीं बल्कि देश के ज़्यादातर युवा प्रभावित हैं।

रोज़गार और आर्थिक मसले सरकारी योजनाओं से प्रभावित होते हैं, तो हम क्या ही बोल सकते हैं। लेकिन, ये बिलकुल सही है कि इंजीनियरिंग के छात्रों की स्थिति ज़्यादा खराब है क्योंकि वास्तविक पिक्चर और परिस्थितयां इनकी उम्मीदों से उलट होती हैं। इन सबके पीछे हमारी खामियों और मानसिकता को समझना ज़रुरी है।

अमूमन लोगों को शुरूआत में इन सब परिस्थितियों का पता नहीं होता है, इसीलिए लोग-बाग JEE में अधिक रैंक आने के बावजूद टियर थ्रीे महाविद्यालयों में इंजीनियरिंग करने चले जाते हैं।

हमारे देश में जैसे इंजीनियरिंग को अनिवार्य सा बना दिया गया है। छात्र पहले इंजीनियरिंग करते हैं और फिर तय करते हैं कि आगे क्या करना है। देश में तीन साल के यूजी कोर्सेज़ के क्या हालात हैं, ये भी हम सभी जानते ही हैं। देखिए, विषय या संकाय बुरा नहीं होता है, छात्र ही कोर्सेज़ के हिसाब से उपयुक्त या अनुपयुक्त होते हैं।

सवाल नए कॉलेजों के खुलने या न खुलने का नहीं है, बल्कि सवाल यह है कि हम अपने करियर अॉप्शन चुनने में कितने सचेत रह गए हैं। होता यूं है कि आप अपने कौशल को ताक पे रखकर इंजीनियरिंग करने चले जाते हैं। इस क्रम में आप अपने अवचेतन (Subconscious) दिमाग में धंसे शौक और जुनून को इंजीनियरिंग से जुड़े बाहरी आडम्बरों और मिथ्यों की आड़ में नज़रअंदाज़ करते रहते हैं।

एक संस्मरण याद आ रहा है। पिछले वर्ष मैं एक विद्यालय में रिजल्ट डे के दिन उपस्थित था। नज़र नवीं के एक छात्र पर पड़ी, उसके पापा बड़े खुश थे। लड़के के गणित और विज्ञान में नब्बे फीसद के लगभग मार्क्स थे। मैंने उसकी कॉपी भी देखी और उसमें कुछ खास नहीं था, हिंदुस्तान में हज़ारों-लाखों अव्वल छात्रों की कॉपी वैसी ही होगी। फिर अचानक मेरी नज़र उसकी हिंदी की परीक्षा कॉपी पर पड़ी और मैं भौचक्का रह गया। कमाल का लेखन कौशल था, मार्क्स जरूर कम थे पर इतनी कम उम्र में उसकी साहित्यिक समझ चकित कर रही थी। इससे भी ज़्यादा आश्चर्य इस बात का था कि श्रीमान अपने बेटे को आईआईटी में दाखिल करवाना चाहते थे।

ज़ाहिर सी बात है कि इन श्रीमान का बेटा भी मिथकों, दिखावों और इंजीनियरों के फेसबुक प्रोफाइल के व्यूह में फंस चुका होगा और स्कूल के बाद आईआईटी कोचिंग के चक्कर काटता होगा। इस घटना के बाद मैं काफी कुछ समझ गया। साफगोई से कहूं तो करियर विकल्प चुनने का एकमात्र और सही तरीका यह है कि आप किसी करियर को उससे जुड़े धनलाभ से जोड़कर न देखें। अपने दिल की सुनें। जिसमें अच्छे हैं और जो मन लगता है, वही करें।

मैं बिहार के बहुत ही छोटे से शहर से हूं। यहां जितना भौकाल आईआईटी और इंजीनियरिंग का है उतना किसी और करियर ऑप्शन का नहीं है। नतीजतन कोचिंग संस्थान यहां के शहरों में अपने व्यापक प्रचार के साथ पहुंच चुके हैं।

अखबारों के पन्ने टॉपरों के पासपोर्ट साइज़ फोटो से लदे रहते हैं। अकेले हमारे शहर से दो सौ के लगभग छात्र कोटा जाते हैं। हिंदुस्तान में जितनी तरज़ीह आईआईटी को दी गई उतना अगर इंजीनियरिंग को दे दी जाती तो शायद लोग समझ पाते। यह समझ पाते कि हम इंजीनियरिंग इसीलिए नहीं करते कि हमें करनी है बल्कि इसलिए करते हैं कि हमें दूसरे अॉप्शन का पता ही नहीं है।

मैं अर्थशात्र का छात्र हूं और हिंदी साहित्य में गहन रुचि रखता हूं। मैंने भी इंटर में इंजीनियरिंग की तैयार की लेकिन मैं विफल होकर भी सफल रहा, क्योंकि मुझे इस दौरान पता चला कि मुझे क्या करना है। कौन सा फील्ड मुझे आकर्षित करती है। सबसे अहम यह पता चला कि किस किताब को पढ़ते वक्त समय बीतने का पता नही चलता। मानविकी और साहित्य में मेरी रूचि को मैं दो साल से ज़्यादा नज़रअंदाज़ नहीं कर पाया। अपने छोटे से अनुभव से इतना कह सकता हूं कि यह मामला समाज और मानव के व्यवहार से सम्बंधित है और हम इसका दोष केवल सरकार पर नहीं डाल सकते।

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