1885 में गठित भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस पार्टी में नए अध्यक्ष को लेकर न तो अटकलें हैं और न ही जिज्ञासाएं क्योंकि यह तय मानकर चला जा रहा है कि यह पद किसे दिया जाएगा बस अब इसकी विधिवत प्रक्रिया के तहत घोषणा होना शेष है। अन्य राजनीतिक दल (व्यक्ति प्रधान क्षेत्रीय दलों को छोड़कर) जब अपने राष्ट्रीय अध्यक्षों की घोषणा करते हैं तो उस दल से जुड़े अध्यक्ष पद के उम्मीदवार नेता और जनता में भी जिज्ञासा रहती है और पद भी समय-समय पर अनेक नेताओं की झोली में जाता है।
कॉंग्रेस के संदर्भ में ऐसा कहना बिल्कुल गलत होगा क्योंकि सोनिया गांधी के राजनीति में प्रवेश के साथ ही पूरी कॉंग्रेस उनके इर्द-गिर्द ही सीमित होकर रह गई है। विदेशी महिला के विषय पर दिग्गज कॉंग्रेसी नेताओं ने कॉंग्रेस को अलविदा कह कर अपनी पार्टी का निर्माण भी किया जैसे शरद पंवार की राकांपा। सोनिया गांधी के राजनीति में प्रवेश का लक्ष्य कॉंग्रेस संगठन की नीति निर्धारित करने वाले वरिष्ठ कॉंग्रेसी नेताओं द्वारा ‘गांधी’ नाम को भुनाना था, किन्तु इसका जवाब वो ही दे सकते है कि वे अपने इस निर्णय में कितना सफल हुए?
सोनिया गांधी 1998 में कॉंग्रेस की अध्यक्ष बनी तबसे लेकर आज तक कॉंग्रेस के अध्यक्ष पद पर विराजमान हैं। 90 के दशक में भारत की राजनीति में परिवर्तन आया और सरकार बनाने में क्षेत्रीय दलों की भूमिका बढ़ गई। अनेक दल मिलकर साझा सरकार का निर्माण करने लगे और राजनीतिक अस्थिरता की स्थति के चलते साझा सरकारों का कार्यकाल सीमित ही रहा और अनेक बार चुनावों की नौबत आई, लेकिन कॉंग्रेस ने अपनी रणनीति पहले की तरह यथावत रखी। परिणाम यह हुआ कि वह पूर्णतः फेल रही क्योंकि अन्य दल अपनी कमियों को दूर कर तथा समय की आवश्यकता को देखते हुए मैदान में उतरे थे और समय की मांग को न भांपना कॉंग्रेस को भारी पड़ा।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग या NDA) की सरकार का गठन हुआ तथा अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में यह देश की पहली साझा सरकार बनी जिसने पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा किया। अब तक चुनावों के बाद में गठबंधन होने का निर्णय होता था, किंतु इस चुनाव में पहले ही गठबंधन करके मैदान में उतरा गया। अब भी कॉंग्रेस अपनी सैद्धान्तिक विचारधारा पर अडिग थी कि पहले चुनाव में उतरेंगे फिर परिणामों के बाद गठबंधन तथा प्रधानमंत्री पद के योग्य व्यक्ति का निर्णय लेंगे। लेकिन यह कॉंग्रेस इस समय तक पहले वाली कॉंग्रेस नही रही थी कि अकेले दम पर सत्ता में काबिज हो जाती।
देश की राजनीति और जनता का मूड, दोनों बदल रहा था। विपक्ष पहले ही गठबंधन बनाकर मैदान में उतरा और सफलता प्राप्त की। NDA से प्रेरणा लेकर बाद में कॉंग्रेस ने चुनावपूर्व गठबंधन की नीति अपनाई, किन्तु समय निकलने के बाद सिवाय समीक्षा के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता।
इंदिरा को भी कॉंग्रेस के नेता ऐसी ही परिस्थितियों में ‘चेहरे’ के रूप में लाये थे और वो सफल भी रही, लेकिन सोनिया गांधी ‘चेहरे’ के मापदंडों को पूरा नही कर पाई। भाषण कला राजनीति का परम आवश्यक तत्व है और भारत के संदर्भ में तो हिंदी का प्रभावी वक्ता होना जो अपने भाव जनसमूह के सामने व्यक्त कर उसे प्रभावित करने की क्षमता रखता हो, बहुत ज़रूरी है। सोनिया गांधी इस विषय में भी खरी साबित नही हुई और यह फिर साबित हो गया कि राजनीति में केवल नाम नहीं वरन योग्यता से मुकाम हासिल किया जाता है।
2004 के चुनावों में भाजपा ‘इंडिया शाईनिंग’ के नारे से मैदान में थी लेकिन परिणाम अपेक्षित नही रहा। इन चुनावों में संप्रग (UPA) विजयी हुई और मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया। इस काल में कॉंग्रेस अध्यक्ष का पद देश के प्रधानमंत्री के पद से भी बड़ा बन गया। लगातार दो चुनावों में कॉंग्रेस को अपेक्षित परिणाम मिले जिसे वो अपनी अध्यक्ष के नेतृत्व की सफलता मानती रही, किन्तु इस पूरे समय में सत्ता पर पार्टी संगठन हावी रहा।
नेहरू के समय कॉंग्रेस पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र विद्यमान था और स्वयं उनकी शैली लोकतांत्रिक थी। इंदिरा जब प्रधानमंत्री बनी तो उन्होंने संगठन के कामों में हस्तक्षेप किया और कॉंग्रेस की व्यवस्था को केंद्रीयकृत बना दिया जिसका खामियाजा उन्हें तो नहीं भुगतना पड़ा क्योंकि वो अपनी ईच्छाशक्ति के अनुरूप परिणाम लाने के लायक थी। लेकिन उनकी विरासत को आगे ले जाने का जिम्मा जिन लोगों के हाथों में आया वो उस ज़िम्मेदारी को परिपक्व रूप से नहीं निभा सके।
प.नेहरू, इंदिरा और राजीव तीनों अपने कार्यकाल में जनता में लोकप्रिय होते हुए प्रसिद्धि को प्राप्त हुए, किन्तु उनके बाद उनके वंशज अपनी कमियों में उलझकर रह गए। कॉंग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि संगठन का शीर्ष नेतृत्व पद एक व्यक्ति के अधीन लगभग 20 वर्षों तक रहा है इसलिए कॉंग्रेस एक व्यक्तिप्रधान पार्टी बन गई है।
आज कॉंग्रेस की चुनौती अपनी कमियों के साथ-साथ भाजपा जैसे सशक्त संगठन से है जो अपने पैरो को दिल्ली से लेकर पंचायत तक जमा चुकी है। उसके विरुद्ध कॉंग्रेस के पास अध्यक्ष के रूप में केवल एक ही विकल्प उपलब्ध है, वह भी राहुल गांधी? राहुल गांधी की पहचान मात्र इंदिरा जी के पोते और राजीव गांधी के बेटे के रूप में ही होती है, क्योंकि उनकी तरह नेतृत्व का करिश्माई गुण उनके पास अब तक तो देखने को नही मिला है।
2013 में कॉंग्रेस उपाध्यक्ष बनाए जाने के बाद से ही राहुल के नेतृत्व की भूमिका पर सवाल उठते रहे हैं, क्योंकि सभी बड़े राज्यो के विधानसभा चुनावों में कॉंग्रेस को पराजय मिली। लोकसभा चुनाव में तो अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन रहा और मात्र 44 सीटो पर कॉंग्रेस पार्टी सिमट कर रह गई। अन्य दल जहां हार पर अपने नेतृत्व में परिवर्तन करते हैं, वहीं कॉंग्रेस हार का परिणाम पार्टी अध्यक्ष के रूप में बतौर पुरस्कार दे रही है।
महात्मा गांधी के शब्दों में, “एक अच्छा नेता वह है जो अपनी सफलता जनता को समर्पित करे और असफलता का श्रेय स्वयं ले” लेकिन आज की कॉंग्रेस के संदर्भ में यह बात ठीक उल्टी है।
1885 में बनी पार्टी आज इतने संकटों से जूझ रही है कि उसे राज्य चुनाव भी क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करके लड़ने पड़ रहे हैं। ऐसे में राहुल को अध्यक्ष बनाने का निर्णय पारिवारिक मोह के अतिरिक्त कुछ नहीं है, क्योंकि योग्यता के पैमाने को देखा जाता तो कॉंग्रेस के पास और विकल्प भी हो सकते थे।
और पढ़ें
जब मुकाबला मोदी जी से हो तो उनके सामने राहुल को उतारना तो हास्यास्पद ही होगा। प.नेहरू और इंदिरा ने जहां अपने वैश्विक आयाम स्थापित किए वहीं आज की कॉंग्रेस के नेता अपने राष्ट्रीय आयाम भी स्थापित नही कर सके हैं। राहुल गांधी का अध्यक्ष बनना भाजपा के लिए जरूर सुखद है, किन्तु यह निर्णय कॉंग्रेस के ताबूत में कहीं आखरी कील साबित न हो।