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मेरे ससुर ने बाप होकर भी मां का फर्ज़ निभाया

बचपन कितना खूबसूरत और सरल होता है। आपको जो दिखता है, आप उसे ही वास्तविकता मान लेते हैं। जब छोटी थी तब लगता था हर घर तीन प्राणियों से बनता है-मां, बाप और बच्चे। मानो कुदरत का यही नियम है-साधारण और सुखद। पूरा परिवार, खुशहाल परिवार। पर कितने घरों में ये खुशहाली रहती है? दुनिया वही नहीं है जो हमारे दृष्टिकोण तक सीमित है और यकीन मानिये आपको उन घरों को ढूंढने ज़्यादा दूर नहीं जाना पड़ेगा।

एक ऐसा ही घर है मेरा ससुराल। दस साल की शादी और तीन बच्चों के बाद, मेरे सास-ससुर की शादी तिनकों में बिखर गयी। क्यों? किसलिए? किसकी गलती से? इन बातों का ना कभी कोई फायदा हुआ है और ना ही कभी कोई निष्कर्ष निकला है। शादी कभी एक आदमी से नहीं चलती, शादी कभी मजबूरी से नहीं चलती। एक पहिये की गाड़ी पहले डगमगाएगी और कुछ कदमों में रुक ही जाएगी। जब एक पहिया आगे भाग जाता है तो पीछे रह जाते हैं कुछ निशान और उस गाड़ी की सवारी।

इस घर में, एक इंसान ने उस एक पहिये की गाड़ी को अपने दोनों कंधो पर उठाकर चलाया वो है मेरे ससुर–असलम अब्बा! अब्बा पर जब घर की ज़िम्मेदारी आयी तो उनके तीन बच्चे- दस (शाहजील), आठ(अदील)  और पांच (शमील) वर्ष के थे। दुकान में काम और घर में नन्हीं जानों की देखभाल करना कितनी मशक्कत का काम है, ये हमारी सोच के परे है। कुछ वक़्त लगा उन्हें अपने आप को संभालने में। तलाक एक ऐसी चोट है, जिसका कोई मलहम नहीं। वो अपना समय लेती है, भरने में, आदमी के उभरने में।

कारोबार डूबने लगा, सब कुछ बिखरने लगा। ये स्थिति देख कर अब्बा के भाई बहनों ने समझाया, हिम्मत दी और भरोसा दिलाया की वो है उनके लिए। आदमी एक विचित्र प्राणी है। वो सुनता और समझता सबकी है, परन्तु करता तभी है जब उसके दिल को कोई बात छू जाए। अब्बा की कमज़ोरी ही उनकी ताकत बनी-औलाद। “अगर मैं नहीं उठा तो इन बच्चों का क्या होगा?” जिस दिन ये बात घर कर गयी, वो ऐसा उठे और भागे कि आज तक दौड़ जारी है। बहने आकर घर में खाना बनाने में मदद कर जाती, पर उन सबके भी अपने ससुराल थे, अपनी ज़िम्मेदारिया थी। तब भी छिप-छिपा कर, अपने भतीजों के भूख से मुरझाये चेहरे सोचकर, भागकर आ जाती और खाना बना देती।

शुरुआती दिन सबसे कष्टदायी रहें। पांच वर्षीय शमील अभी प्राइमरी स्कूल में ही था, जब घर बिना मां के हो गया। छोटा होने के कारण वो अपने दोनों बड़े भाइयों से जल्दी घर आ जाता। अब्बा दुकान किसी को संभालने को बोलकर घर भागते उसे लेने, पर अक्सर देर हो जाती। कभी ग्राहक से बात करने में, कभी बिक्री पूरी करने में, या कभी ट्रैफिक से। हाफ पैन्ट पहना शमील अपने घर के दरवाज़े की देहलीज़ पर अक्सर सोया मिलता। उसका मासूम चेहरा, गले में टंगी बोतल और पीछे टंगा बैग देख कर वो टूट जाते। धीमे से उसे उठाकर, सीने से लगाकर, दरवाज़े का ताला खोलकर उसे अंदर ले जाते। सोचते की अब कल क्या होगा, पर अगला दिन आता और फिर वही क्रिया दोहराई जाती। ये जानते हुए की कल फिर उतनी ही मेहनत है, उतना ही दर्द है, आप उठे और चल दे, ये आसान नहीं। ये दृढ़शक्ति की परिभाषा है। ये आपके सब्र की परीक्षा है।

ऐसा एक और वाकया जो मुझे इस घर में आने के बाद पता चला और मेरे दिल को छू गया। अब्बा बेहद जज़्बाती हैं। औलादे अकेले पालने की वजह से उनके जज़्बात एक अलग सीमा पर रहते हैं। इस बार उस जज़्बात का शिकार हुईं उनकी सबसे छोटी बहन गुड़िया आंटी (बच्चों की फूफी/बुआ)। बात उस समय की है जब शमील दस साल का था। फूफी के यहां दावत थी और पूरा खानदान इकट्ठा  हुआ था। नवाब शमील बड़े हो रहे थे और उनके साथ उनकी भूख भी। तीन रोटियों पर धावा बोलने के बाद जब उन्होंने चौथी की मांग की तो गुड़िया फूफी किचन में बुदबुदा कर बनाने लगी।

अब्बा को भनक लग गयी और फौरन किचन पहुंचे, “क्या हुआ गुड़िया? क्यों परेशान हो?”।  “कुछ नहीं भाई”, अब बोलो भी”, भाई मुझे लगता है शमील को पेट में कीड़े हैं। मतलब इतना छोटा लड़का इतनी रोटियां कैसे खा..” बस इतना ही कहना हुआ था और अब्बा ने बाहर आकर शमील का हाथ पकड़ कर उठा लिया। उनका ये व्यहवार देख सब सदके में आ गए। “शाहजील, अदील, चलो”, अब्बा ये कहकर शमील का हाथ पकड़ कर चल पड़े। बाकि दो भाई भी अपने पिताजी के पीछे-पीछे चल पड़े। “भाई क्या कर रहे है?”, गुड़िया फूफी घबरा कर बोलीं। “एक बात समझ लो तुम, मेरे बच्चे किसी पर बोझ नहीं है। दो रोटी नहीं बनायीं जा रही है तुमसे इनके लिए।” अब्बा का पारा बढ़ गया था। “भाई” फूफी ने समझाने का प्रयत्न किया पर अब बहुत देर हो गयी थी। बात दिल को चुभ गयी थी। हाथ दिखा कर अब्बा बोले “रहने दो”। घरवालों ने बहुत समझाया पर अब्बा ने किसी की नहीं सुनी। रास्ते से सालन और बहुत सी रोटी ले ली और घर आकर बच्चों को हाथ से निवाला बना कर खिलाया। आखों से आंसू झलक रहे थे और बच्चे समझ नहीं पा रहे थे की अब्बा को हुआ क्या है?

अगर आप सोच रहे है की सच में ऐसा हुआ क्या था, ऐसा कहा ही क्या था गुड़िया फूफी ने? इसका जवाब सिर्फ वही आदमी दे सकता है जिसपर ये आप बीती थी। अब्बा को ये गुज़ारा न हुआ की किसी ने उनके बच्चों के खाने पर टोक दिया, भले वो खुद की सगी बहन क्यों न हो। जब दिल बहुत ज़ख़्म झेल लेता है, तो एक हलके से शब्दों के प्रहार से लहूलुहान हो जाता है। कुछ इससे बेबुनियाद कहेंगे, पर मेरे लिए वो एक जज़्बात है, एक एहसास।

इस दुनिया में कुछ भी नामुमकिन नहीं ये हम सब जानते हैं, पर कुछ ही है जिन्हें असीम मुश्किल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। और चुनिंदा लोगों को उन्हीं में जीना पड़ता है। अब्बा उन्हीं में से एक है। आसान नहीं था उनका सफर, पर अगर इंसान दृढ़ संकल्प कर ले तो रास्ते आसान हो जाते हैं। अगर आपको अपने खुदा पर यकीन है और खुद पर भरोसा तो दुनिया आपकी।

आप बाप होकर भी मां का किरदार कैसे निभा सकते हैं इसकी मिसाल हैं अब्बा। उन्होंने असल ज़िन्दगी में अपने बच्चों को खून और आंसुओ से सींचा है। उन्हें पढ़ा लिखा कर इस लायक बनाया है कि आज उन बच्चों का अपना एक मुकाम है, अपनी पहचान है। हम सबको पता है मां क्या है, पर मुझे ये पता है कि वो बाप क्या है जो वक़्त आने पर मां और बाप दोनों का फर्ज़ निभा गया। फक्र है मुझे की मैं ऐसे घर से ताल्लुक रखती हूं।

इन तीन भाईयों का प्यार और एकता एक दूसरे के प्रति और अपने अब्बा के प्रति अनोखी है। जब आपने बुरा वक़्त साथ में देखा हो और आप साथ में उस मंझदार से निकले हो तो एक अलग रिश्ता कायम होता है।  ऐसे घरों में रिश्तो में मज़बूती और खूबसूरती से पनपती है।

आज अब्बा की तीन बहुएं, पोता-पोती हैं। वो वक्त निकल गया, पर सफर याद है। घाव भर गए, पर निशान बाकी है। अक्सर टीवी पर अपने ज़िन्दगी से जुड़ी कोई कहानी देखते हैं तो उनके अश्क रुके ना रुकते हैं। फिर मुस्कुरा कर कहते हैं – “मेरा भी वक़्त आया था। कुर्बानी देनी पड़ती है।”

वक़्त सच में बहुत बलवान है। समुद्र की लहरों में खेलते हुए इंसान को पता नहीं चलता कब लहरें उसे अपनी गिरफ्त में ले ले और डूबा दे। उसी तरह डूबते हुए इंसान को पता नहीं चलता कब लहरें उसे गहराइयों से निकाल कर किनारे पहुंचा दे। आज अब्बा की कश्ती अपने तट पर आ पहुंची है और उस पर बैठे वो तीन सवारी अब उस नाव के लंगर में तब्दील हो गए हैं। ये एक बाप का संकल्प है और एक परिवार की जीत।

“ज़िन्दगी जिंदादिली का नाम हैं, मुर्दादिल क्या ख़ाक जिया करते हैं”

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