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ऋत्विक घटक के ज़िंदा रहते उनकी बेहतरीन फिल्मों को नहीं मिल सकी असली सफलता

कलकत्ता शहर को ऋत्विक घटक की असामयिक मौत ने झकझोर दिया था। एक दुखद खबर के साथ आंखे खुलीं। जिस किसी ने खबर सुनी वो विश्वास नहीं कर सका कि ऋत्विक बाबू अब नहीं रहे। अंतिम यात्रा में लोगों का सैलाब उमड़ पड़ा। कलकत्ता की सड़कों पर लोगों का एक हुजूम था। 50 वर्षीय घटक की अंतिम यात्रा  प्रेसीडेंसी अस्पताल से दोपहर में निकली। चाहने वाले उनके शव के आगे पीछे चलते रहें। उनकी फिल्मों के मशहूर गाने लोगों की जुबां पर यूं ही बरबस आ रहे थे। ऋत्विक घटक की अंतिम यात्रा एक मायने में अद्वितीय शख्सियत की अद्वितीय यात्रा थी। अंतिम संस्कार केउडताला घाट पर होना था।

उनकी पहली फिल्म ‘नागरिक’ (1952) के निर्माण के 65 बरस बीत जाने के बाद आज मुड़कर जब उस फिल्म को देखें तो यही समझ आएगा कि ऋत्विक घटक अपने युग के सबसे वंचित फिल्मकार थे। उनकी दक्षता को हमेशा कम करके आंकने का बड़ा जुर्म लोगों से हुआ। भारतीय सिनेमा में जीते जी ऋत्विक बाबू को अपना उचित सम्मान समय से नहीं मिला। वो आत्मघात के स्तर तक अविचल, सनकी एवं आवेगशील शख्स थे। सिनेमा के लिहाज़ से ऋत्विक अराजक थे। फिर भी भारतीय सिनेमा के इतिहास में उनके जैसा सच्चा साधक कोई दूसरा नहीं था। फिल्म निर्माण के आधिकारिक व्याकरण से परे होकर भी उन्होंने महानता को पाया।

घटक ने अपने जीवन काल में कुल आठ फीचर फिल्में एवम दस डॉक्युमेंटरी बनाईं। इनमें से तीन फिल्में उनके निधन के पश्चात रिलीज़ हो सकीं। इन फिल्मों को अपने दिन के उजाले की जुस्तजू में बरसों इंतजार करना पड़ा। इन बदनसीब फिल्मों में ‘नागरिक’ भी रही, यह फिल्म हालांकि ‘पाथेर पंचाली’ से तीन साल पहले बन चुकी थी। लेकिन रिलीज़ हुई बरसों बाद। ‘नागरिक’ में नौकरी के लिए संघर्ष करते युवक की कहानी थी। रोज़गार के लिए जूझते इस युवक का क्रमिक विघटन दिल पर अमिट प्रभाव छोड़ता है।

जहां एक ओर ‘नागरिक’ समय पर रिलीज़ नहीं हो सकी, वहीं सत्यजीत रे की फिल्म ‘पाथेर पंचाली’ ने समय से रिलीज़ के साथ ही काफी वाहवाही भी बटोरी। ‘पाथेर पंचाली’ ने भारतीय सिनेमा में क्रांतिकारी युग का आगाज़ किया।

अफसोस ‘नागरिक’ समय पर रिलीज़ नहीं हो सकी, नतीजतन घटक का सपना टूट -छूट गया। विडम्बना, देरी के कारण वो भारतीय सिनेमा में समानांतर धारा के पथप्रदर्शक होते- होते रह गए। लुप्त से हो चुके फिल्म प्रिंट को तलाश कर आखिरकार सत्तर दशक में रिलीज़ किया गया। लेकिन इस दिन को देखने के लिए घटक जिंदा नहीं थे। साठ के दशक में बनी ‘सुवर्णरेखा’ (1962) को भी दिन का उजाला देखने के लिए तीन साल का इंतज़ार करना पड़ा।

ऋत्विक को पूरी जिंदगी यह दुख सालता रहा कि अपना फन दुनिया को दिखा नहीं सके। शराब की लत ने उनकी ज़िंदगी को नर्क बना दिया था, वो पीड़ादायक अंत की ओर अग्रसर थे। बुर्जुआ समीक्षकों ने उन्हें हमेशा नज़रअंदाज़ किया। फिल्म उद्योग से उन्हें खास सहयोग नहीं मिला, उनकी काबिलियत को हमेशा कमतर देखकर आंका गया। उनके प्रयासों को मिटाने की पूरी कोशिश हुई।

ऋत्विक की फिल्में कभी समय पर रिलीज़ नहीं हो सकीं। घटक ने बहुत कष्ट उठाए। अपने काम को लोगों तक नहीं पहुंचा सकने का गम उन्हें हमेशा सालता रहा।

समय पर  फिल्में  रिलीज़ नहीं होने के अतिरिक्त उनके द्वारा शुरू किए गए बहुत से प्रोजेक्टस ज़िंदगी रहते पूरे नहीं हो सके, पर्याप्त धन नहीं होने कारण यह काफी समय के लिए अधूरी पड़ी रहीं। उन्होंने हमेशा अपनी शर्तो पर काम किया, इसलिए ज़्यादातर निर्माताओं से उनकी बनी नहीं। बाज़ार की मांग व चाहत के अनुरूप वो खुद को ढालने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं थे। ऋत्विक के अनूठे अभिमानी एवम अति स्पष्टवादी व्यक्तित्व ने उन्हें हाशिए पर डाल दिया था। उन्होंने लोगों से किनारा कर लिया था, क्योंकि उनके आदर्शों का कभी मिलान नहीं हो सका।

सत्यजीत रे एवम मृणाल सेन से ऋत्विक एक मायने में इसलिए अलग कहलाए क्योंकि उन्होंने मेलोड्रामा का बड़ा प्रभावपूर्ण इस्तेमाल किया। यह ट्रीटमेंट रंगमंच से प्रेरित था। याद करें ‘मेघे ढाका तारा’ का उपांत्य दृश्य-नीता अपने भाई से कह रही, “दादा मैं जीना चाहती हूं,” घटक की मेलोड्रमा निर्मित करने की महान क्षमता को दिखाता है। हालांकि उन्होंने अभिनेत्री को आंसू निकालने को मना कर केवल जोर से चीखने दिया। चीख नीता की अपार पीड़ा को सशक्त रूप से व्यक्त कर सकी। हालांकि पूरे सिने काल में उन्हें हमेशा प्रायोजकों एवं उपकरणों एवं अन्य सहयोग की कमी रही। मेघे ढाका तारा अन्तर्गत एक गाने की शूटिंग करने में खासी दिक्कत आई क्योंकि उनके पास पार्श्व तकनीक हेतु मशीन नहीं थी। गाने में पार्श्व एफेक्ट देने के लिए अभिनेता को थोड़ी दूरी गा रहे गायक के होठों से अपनी मुख मूवमेंट मिलाने को कहा गया। इस किस्म के समाधान निकालने में घटक को दक्षता हासिल रही।

आज ऋत्विक घटक विश्व सिनेमा के एक प्रतिष्ठित नाम हैं। दुनिया भर के फिल्म समारोहों में उनकी फिल्मों का प्रदर्शन होता रहा है। उनकी फिल्मों को उस युग का साक्षी मानकर पठन-पाठन भी चला। घटक दा की बेटी समहीता के शब्दों में, “काफी नुकसान सहन करने के बाद भी बाबा ज़्यादातर आशावादी रहें। निधन के कुछ दिन पहले ही उन्होंने मुझसे विश्वास जताया कि उनकी फिल्में एक दिन ज़रूर उजाले को देखेंगी।” पिता की अनूठी शख्सियत से समहीता बहुत प्रभावित रहीं। उन्होंने उन पर किताब भी लिखी।

फिल्मों में ज़िंदगी बनाने की ऋत्विक को कोई चाह नहीं थी। उन्होंने स्वयं इसे स्वीकारा भी कि बाबा उन्हें आयकर अधिकारी बनाने चाहते थे। उन्हें आयकर विभाग में नौकरी मिल भी गई। लेकिन ना जाने क्यों पद से इस्तीफा देकर उन्होंने राजनीति का रुख कर लिया और कम्यूनिस्ट पार्टी आॅफ इंडिया से जुड़ गए। पार्टी की सेवा में  सांस्कृतिक पाठ लिखने का महत्वपूर्ण काम किया। पार्टी के सांस्कृतिक फ्रंट का उद्देश्य कला एवं रंगमंच के ज़रिए लोगों को संगठित करना था। प्रतिवेदन को लिखकर उन्होंने सन 1954 में पार्टी समक्ष प्रस्तुत किया, लेकिन पार्टी इससे सहमत नहीं हुई। राजनीति से मोहभंग होने के बाद वो लेखन की तरफ अग्रसर हुए  कविताएं एवं कहानियां लिखीं, फिर भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा ) के सम्पर्क में आए। इप्टा में आने पर फिल्मों से सम्पर्क बढ़ा।

ऋत्विक के लिए सिनेमा व्यक्तित्व का विस्तार था। ढाका में जन्मे घटक को युवास्था में ही कलकत्ता जाना पड़ा। अपने घर से बेघर किए जाने का गम उन्हें सालता रहा। मुहाजिर होने का गम उनको सालता रहा, हर बांग्ला बंधु जिसे बंगाल के अकाल (1942) में अपना वतन छोड़ना पड़ा, वो हर कोई जिसने बंगाल विभाजन का दंश झेला फिर आज़ादी (1971) के लिए संघर्ष किया उनके दिल के बहुत करीब था। ऋत्विक घटक ने अपनी फिल्मों में इन लोगों की व्यथा को प्रमुखता से स्थान दिया। शरणार्थियों अथवा मुहाजिरो की जीवन अनुभवों पर उन्होंने तीन फिल्मों की कड़ी (त्रयी) बनाई, इनमें मेघे ढाका तारा एवम सुवर्णरेखा के अतिरिक्त ‘कोमल गांधार’ तीसरी फिल्म थी। बरसों बाद बांग्लादेश वापसी पर उन्होंने ‘टिटास एक्टी नदीर नाम’ का निर्माण किया।

जीते जी ऋत्विक को अपनी काबिलियत का प्रमाण भारतीय फिल्म एवम टेलीविजन संस्था (पुणे) के विद्यार्थियों से मिला। उन्होंने पांच सालों तक वहां निर्देशन पढ़ाया। निर्देशन के अन्तर्गत छात्रों को क्या पढ़ना चाहिए? यह भी उन्होंने ही तय किया। वो इस संस्था से बहुत गहरे भाव से जुड़े रहें। छात्र उन्हें काफी पसंद करते थे, हालांकि उनके जीने का तरीका बहुत ठीक नहीं रहा। ज्ञान के मामले में फिर भी उन जैसा शिक्षक मिलना मुश्किल था। उनके पढ़ाने का अंदाज़ लीक से हटकर हुआ करता था। लाइटिंग पर लेक्चर को वो क्लासरूम से आगे वास्तविक अनुभवों तक ले गए। कुमार शाहनी, जॉन अब्राहम एवम मणि कॉल सरीखी हस्तियां उनके विद्यार्थी थे। पुणे फिल्म संस्थान में ज़्यादातर समय छात्र उन्हें घेरे ही रहते थे। ऋत्विक क्लासरूम में पढ़ाने के बजाए एक पेड़ की छाया में पढ़ाया करते थे। फिल्म दिखाए जाने के बाद विद्यार्थियों के साथ वो खुला विचार -विमर्श करते थे। फिल्मकार कुमार शाहनी के अनुसार युवा शक्ति को प्रोत्साहन मिलने से देश को उनकी वास्तविक दक्षता का एहसास हुआ।

घटक हालांकि आजीवन यथार्थवादी फिल्में बनाते रहें, फिर भी ‘मधुमती’ के रूप में बदलाव आया। फिल्म की पटकथा को विमल राय के सहयोग से लिखा था। मधुमती पुनर्जन्म के लोकप्रिय सब्जेक्ट पर बनाई गई थी। ऋत्विक मधुमती की सफलता को लेकर थोड़े कम आश्वस्त रहें, इसके विपरीत फिल्म ने काफी नाम कमाया। हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘मुसाफ़िर’ की कथा भी घटक ने ही लिखी थी। कुछ  समय के लिए उन्होंने फिल्मिस्तान स्टूडियो में भी सेवाएं दीं। लेकिन बम्बई का जादू ऋत्विक को बांध नहीं सका। कलकता उन्हें अधिक भाया, यहां रहकर उन्होंने सिनेमा को एक से बढ़कर एक महान फिल्में दीं।

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