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सज़ायाफ्ता नेताओं के सहारे कैसे बनेगा स्वस्थ भारत

देश की सबसे बड़ी अदालत में चुनाव आयोग ने सज़ायाफ्ता सांसदों-विधायकों के मामले जल्द निपटाने की वकालत की है।उल्लेखनीय है कि मार्च 2017 में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका के संदर्भ में चुनाव आयोग ने कहा था कि वैसे सांसदों और विधायकों के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगाये जाने की मांग की थी, जो दो या दो से  अधिक साल की सजा काट चुके हैं। इस संबंध में चुनाव आयोग ने चुनावों में अपराधियों को रोकने के लिए कानून मंत्रालय को प्रस्ताव भी भेजा था।

इसी मसले पर अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने याचिका दायर कर मांग की थी कि एक साल के अंदर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका से जुड़े लोगों के खिलाफ आपराधिक मामलों का निपटारा हो और एक बार दोषी होने पर उन पर आजीवन प्रतिबंध लगाया जाए। साथ ही ऐसे लोगों को चुनाव लड़ने, राजनीतिक दल का गठन करने और पदाधिकारी बनने पर रोक लगाई जाए। याचिका में यह भी मांग की गयी है कि चुनाव आयोग, विधि आयोग और नैशनल कमीशन टू रिव्यू द वर्किंग ऑफ द कॉनस्टिट्यूशन द्वारा सुझाए गये महत्वपूर्ण चुनाव सुधारों को लागू करवाने का निर्देश केंद्र सरकार और चुनाव आयोग को दिया जाये और विधायिका की सदस्यता के लिए न्यूनतम योग्यता और अधिकतम आयु सीमा तय की जाए।

हालांकि सजायाफ्ता जनप्रतिनिधियों के 6 साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाने के प्रावधान की समीक्षा के लिए दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने ये कहते हुए सुनवाई से इनकार कर दिया था कि हमने कानून नहीं बनाया है तो हम इसमें दखल क्यों दें? पर अब इस मामले पर केंद्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि वह जनप्रतिनिधियों के खिलाफ आपराधिक मामलों की फास्टट्रैक सुनवाई के लिए स्पेशल कोर्ट बनाने के समर्थन में है। हालांकि फिलहाल सज़ायाफ्ता जनप्रतिनिधियों के आजीवन चुनाव लड़ने पर रोक पर अभी विचार जारी है और कोई फैसला नहीं लिया गया है।

भारत में पिछले एक दशक से साल-दर-साल जिस तरह से लगभग हर पार्टी में सजायाफ्ता मुजरिमों की भीड़ बढ़ती जा रही है, वह लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक स्थिति है। हालत यह है कि जो पार्टी अब तक खुद को निष्पक्ष और ईमानदार बताती रही थी, वह भी चुनावों के समय यह दलील देते हुए किसी मुज़रिम या दबंग को पार्टी टिकट दे देती है कि फलां पार्टी ने भी तो ऐसा किया, फिर वे क्यों नहीं कर सकते। दरअसल पार्टी चाहे कोई भी हो और कैसी भी, चुनावी मैदान में उतरते ही उनके द्वारा नैतिकता के किये जानेवाले सारे दावे धरे-के-धरे रह जाते हैं। सभी पार्टियों का लक्ष्य बस एक बन कर रह जाता है और वह है-चुनाव में अधिक-से-अधिक सीटें हासिल करना, ताकि सत्ता पर काबिज हुआ जा सके।

वर्ष 2013 में लोकसभा की कुल 543 सीटों में से करीब 30% या कुल 162 सदस्यों के खिलाफ देश के विभिन्न थानों में आपराधिक मामले दायर थे, वहीं 14% सदस्य ऐसे थे, जिनके खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दायर थे। वहीं बात अगर राज्य विधानसभा की करें, तो यहां भी देश भर की विधानसभाओं के कुल 4032 सदस्यों में से 30% या 1258 सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे, जबकि 14% सदस्यों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दायर थे।

वर्ष 2014 के चुनाव के दौरान 1581 उम्मीदवारों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किये गये.इन लोगों पर हत्या, किडनैपिंग, जबरन वसूली, रेप आदि जैसे न जाने कितने और कैसे-कैसे चार्जेज लगे हैं। ऐसे में इन्हें ‘जनप्रतिनिधि’ कहना या जनप्रतिनिधि की उपाधि से नवाजना अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मारने जैसा है। जो लोग अपने फायदे या मज़े के लिए किसी का भी हक छीनने या उसकी जान लेने से भी नहीं हिचकते, उनसे लोकतंत्र के रक्षा की उम्मीद भी कैसे की जा सकती है।

लोकतंत्र का मूलमंत्र है- सबका, सबके द्वारा और सबके लिए। अर्थात वैसा शासनतंत्र जो लोगों का है और उसे लोगों के हित में लोगों द्वारा ही बनाया जाये, जबकि इन जनप्रतिनिधियों का मूलमंत्र होता है- मेरे द्वारा, मेरे लिए और मेरे ही हित में। अत: ऐसे लोगों से यह उम्मीद भी कैसे की जा सकती है कि वे जब लोकसभा या राज्य विधानसभा में निर्वाचित होकर जायेंगे, तो आम जनता के हित में फैसले लेंगे। अब समय आ गया है कि ऐसे आपराधिक जनप्रतिनिधियों के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगाया जाये। इसी में देश का, लोकतंत्रीय शासन व्यवस्था का और इस देश का नागरिकों का हित है।

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