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“मुसलमान गंदे और अशिक्षित होते हैं, ऐसे पूर्वाग्रहों से ग्रसित लोग अपनी सोच बदलें”

साल 2017 में एक कार्यक्रम में गया हुआ था। वहां एक वेबसाइट का उद्घाटन होना था, लेकिन मुख्य मेहमान किसी कारण नामौजूद रहें। उनकी अनुपस्थिति में वहीं मौजूद एक सज्जन ने उद्घाटन के रस्मों रिवाज़ की भूमिका निभाई। उन्होंने अपने अंदाज़ में अनुपस्थिति मेहमान की तारीफ में दो शब्द कहे। उन्होंने बताया कि मुख्य मेहमान मुस्लिम वोहरा समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, इस समुदाय का अमूमन हर व्यक्ति पढ़ा लिखा-लिखा और साफ कपड़े पहनने वाला होता है। इनके घरों में भी सफाई का पूरा ध्यान रखा जाता है।

व्यक्तिगत रूप से मुझे यहां कुछ खल रहा था मसलन अगर कोई व्यक्ति जैन, ब्राहमण इत्यादि समुदाय से ताल्लुक रखता, क्या तब भी समुदाय के शिक्षित और साफ-सफाई के प्रति जागृत होने की बातें कहीं जाती। शायद नहीं, लेकिन ऐसा क्यों हुआ इसे समझने की ज़रूरत है।

वास्तव में यह सामाजिक मानसिकता है जो व्यक्तिगत मानसिकता में तबदील हो गयी है कि मुस्लिम समुदाय अशिक्षित है और साफ सफाई के प्रति ज़्यादा जागरूक नहीं है। इस मानसिकता को समझने के लिए हमारी फिल्मों से बेहतर माध्यम और क्या हो सकता है।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण 2013 में आई फिल्म डी डे है, जहां भारत के खुफिया तंत्र के कुछ लोग पाकिस्तान में दाखिल होते हैं और दाऊद इब्राहिम की छवि में दिख रहे एक दहशत गर्द को भारत लाने में कामयाब होते हैं। फिल्म को अगर फिल्म की कहानी की तरह देखा जाये, तो एक मध्य दर्जे की कहानी है। सवांद भी ठीक है, जो सबसे बढ़िया है वह है इस फिल्म का कैमरावर्क और निर्देशन।

पाकिस्तान की सरज़मी को दिखाने के लिये फिल्म का कुछ हिस्सा अहमदाबाद शहर में भी शूट किया गया है। मुझे व्यक्तिगत रूप से इस फिल्म में फिल्माया गया गीत बेहद पसंद है, जहां एक भारतीय मेजर पाकिस्तान में मौजूद है और एक पाकिस्तानी लड़की के कत्ल की कहानी बयां करता है। ये गीत इसके बोल और फिल्माकंन बहुत बढ़िया है।

लेकिन एक बात इस फिल्म में सबसे ज़्यादा खटक रही थी और वो फिल्म के एक किरदार ‘वाली खान’ को लेकर। वाली खान भारतीय मुसलमान है और इस मिशन के तहत पाकिस्तान में मौजूद है। एक वक्त ये मेजर को दाऊद पर गोली चलाने से रोकता है, वहीं फिल्म के आखिरी भाग में अपनी भारतीय टीम को धोखा देते हुए भी दिखाई देता है। यहां फिल्म के इस समय हम क्या कहेंगे ? हमारी मानसिकता, समाज की मानसिकता, वाली खान को ये ज़रूर कह रह होगी कि इसने मुल्क के साथ गद्दारी कर दी, वहीं धर्म के कारण ये दाऊद का साथ भी देने को तैयार हो गया। खैर, फिल्म एक कहानी ही तो होती है, जहां फिल्म एक मोड़ लेती है और वाली खान के रूप में एक सच्चे मुसलमान को दिखाया जाता है, जो अपने परिवार की भी परवाह नहीं करता और अपने वतन के लिये, दाऊद को भारत लाने के लिये अपना परिवार यहां तक कि खुद भी अपनी जान दुश्मन के हाथों दे देता है।

सवाल यही है कि फिल्म के माध्यम से जब एक दर्शक के रूप में हम वाली खान पर शक कर रहे थे, अगर इसी किरदार का नाम विशाल होता, तो भी क्या हमारा रुख यही रहता। फिल्म के अंत तक वाली खान एक नायक की भूमिका में हमारे सामने आता है,  इसके लिये वाली खान को अपने परिवार और खुद की जान देकर, अपनी देश भक्ति साबित करनी पड़ती है, लेकिन क्यों ?

फिल्म के कहानीकार की ऐसी क्या मजबूरी थी कि वाली खान को अपनी देशभक्ति साबित करने के लिये अपनी जान तक देनी पड़ती है। क्या शायद इसलिये क्योंकि वाली खान और हमारा पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान जिसके साथ हमारे संबंध कभी ठीक नहीं रहें इन दोनों का मज़हब इस्लाम है ? मैं इस सवाल तक ही सीमित रहना चाहता हूं कि क्या हम आज एक भारतीय मुसलमान को शक की नज़र से नहीं देखते हैं ?

आज क्रिकेटर हरभजन सिंह, युवराज सिंह और शोएब अख्तर के मित्रता के सबंध हम सभी जानते हैं, वहीं पाकिस्तानी बॉलर आमिर की गेंदों पर हमारे बल्लेबाज़ रोहित शर्मा, शिखर धवन यहां तक कि विराट कोहली भी लड़खड़ाते हुए दिखते हैं, लेकिन यहां कहीं भी देशभक्ति पर सवाल नहीं है।

लेकिन 80 और 90 के दशक में भारतीय बल्लेबाज मोहम्मद अज़हरुदीन क्रिकेट के मैदान पर जब पाकिस्तानी खिलाड़ियों के साथ बात करते हुए नज़र आते थे या पाकिस्तान के सामने बहुत कम रन पर आउट हो जाते थे, तो हमारी निगाहों में शक क्यों उभर आता था ? हम ये भी भूल जाते थे कि 1992, 1996 ओर 1999 के विश्व कप में  पाकिस्तानी टीम को हराने वाली भारतीय टीम के कप्तान अज़हरुदीन ही थे।

इन तथ्यों के मद्देनज़र एक बात और समझने की ज़रूरत है कि चुनाव में किस तरह राजनीति की जा सकती है। जहां चुनाव आयोग सख्त होता है मीडिया के कैमरे, हर नेता को ताड़ रहे होते हैं, वहां कहीं भी लोकतंत्र की मर्यादा को पार नहीं किया जा सकता। लेकिन, चिन्हों के माध्यम से तो सवांद किये जा सकते हैं। मतलब अगर गुजरात चुनाव का ही उदाहरण देना हो, तो यहां धर्म ओर मज़हब, ज़मीनी मुद्दे हैं। इनके आधार पर लोग अपना मत राजनीतिक पार्टियों को भी देते हैं।

अब यहां इन चुनाव के दिनों में एक दौड़ करवाई जा रही है जिसका टैग है #Run4OurSoldiers , ये दौड़ 26 नवंबर 2017 को हो रही है। मतलब चुनाव से कुछ दिन पहले, लेकिन इस टैग से #Run4OurSoldiers, हमारी सोच में जो चेहरा उभर कर आता है वह एक फौजी सिपाही का ही है और इसके आगे हमें देश की सीमा, मतलब बॉर्डर दिखाई देता है। जहां सुरक्षा के मद्देनज़र, हमारे सारे पड़ोसी देशों को छोड़कर, सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान ही नज़र आता है। अब यहां सोचने की ज़रूरत है कि हमारा मीडिया, समाज, मानसिकता, पाकिस्तान के साथ किस समुदाय की हमदर्दी को जोड़ देती है और किस समुदाय को पाकिस्तान से नफरत के लिये प्रेरित करती है।

क्या पाकिस्तान के नाम पर हम चुनावी मतों का ध्रुवीकरण नहीं कर रहे हैं? लेकिन ये भी एक वास्तविकता है कि इस मैराथनों के पोस्टर सिर्फ विकसित अहमदाबाद शहर में ही लगे हैं, जहां व्यायाम तंदरुस्ती का माध्यम है लेकिन पुराने अहमदाबाद में जहां आज भी विकास नहीं पहुंचा लोग बसों में, साईकल पर सवारी करते हैं वहां ये सारे पोस्टर नदारद हैं।

01 दिसंबर 2017 को फिल्म ‘पद्मावती’ रिलीज़ हो रही है और इसी कहानी पर राजस्थान की धरती पर, रानी पद्मावती और बादशाह खिलजी को लेकर ऐतराज जताया जा रहा है। जिसका उग्र विरोध टीवी के माध्यम से गुजरात में भी पहुंच रहा है। यहां एक हिंदू रानी की इज्ज़त पर बुरी नज़र रखने वाले मुस्लिम बादशाह खिलजी के रूप में क्या धर्म और मज़हब की राजनीति को बल नहीं दिया जाएगा ? क्या इससे चुनावी मतों का ध्रुवीकरण नहीं होगा ?

व्यक्तिगत रूप से, #Run4OurSoldiers, टैग से मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन क्या इसके साथ #Run4OurPoverty #Run4OurEducation #Run4OurEquality #Run4OurSecularism जैसे टैग नामौजूद हैं। क्या इसलिए क्योंकि यह सारे टैग, हमारी सरकारी व्यवस्था पर प्रहार करते हैं। खैर, अगर ऊपर वाले चाचा जी की बात करें जो वोहरा समाज की जमकर तारीफ कर रहे थे, लेकिन क्या वह धर्मनिरपेक्ष होकर, अपनी ज़रूरतों के आधार पर अपना मत इस्तेमाल करेंगे ?

शायद इस तथ्य का जवाब वहीं दे सकते हैं, लेकिन ये सवाल हम खुद से भी पूछ सकते हैं कि क्या हम धर्मनिरपेक्ष हैं। वास्तव में संविधान तो हमें हमारे देश की रचना एक खूबसूरत लोकतंत्र के आधार पर करने की आज़ादी देता है, लेकिन चुनावी माहौल में जिस तरह, धर्म और मज़हब के नाम पर वोट का ध्रुवीकरण कर दिया जाता है, जिसे मतदाता समझ भी नहीं पाता कि किस तरह उसका वोट चुरा लिया गया है। ये चुनावी प्रक्रिया वास्तव में हमारे देश की व्यवस्था को एक चुनावी जुगाड़ तंत्र बना देती है, जो वास्तव में हमारे संवैधानिक लोकतंत्र के लिये बहुत बड़ा खतरा है।

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