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वैली ऑफ सेंट्स: कश्मीर के एक मासूम पहलू को परदे पर रखने वाली फिल्म

कश्मीर की सरज़मीं से आ रही सदा को युवा फिल्मकार मूसा सईद ने गहरे मायने में सुना और उनकी फिल्म  ‘वैली ऑफ सेंट्स’ में उसकी तस्वीर साफ देखने को मिलती है। फिल्मकार ने बड़े विश्वास के साथ कश्मीर के एक मासूम पहलू को परदे पर रखा है। कश्मीर के सौंदर्य एवं उसके समक्ष चुनौतियों को समानांतर बयान करने का ज़िम्मा इसमें नज़र आता है। कश्मीर की दिलकश खूबसूरती को जितनी मेहनत से इस फिल्म में दिखाया गया है पहले शायद ही ऐसा हुआ होगा। इसे अनुभव कर आप यही कहेंगे कि काश मैं भी कश्मीर में होता।
कथा में गम्भीरता के साथ किशोर खिलंदड़पन की जवां दुनिया का चित्रांकन हुआ है। युवा गुलज़ार (गुलज़ार अहमद बट ) एवं अफज़ल (अफज़ल ) की दोस्ती में किशोरों सा जोश-जज़्बा व खिलंदड़पन भरा गया है। गुलज़ार एवं अफज़ल के ज़रिए स्फूर्ति का नया अनुभव होता है। कश्मीर को स्वर्ग कहे जाने में डल झील का हिस्सा था। पूरी कहानी पानी के इसी दिलकश मंज़र पर तैरती सी नज़र आती है। कश्मीर पर्यटन में डल झील खास जगह रखता है। इस दिलकश खूबसूरत झील को देखने के लिए पर्यटकों में खासा जोश रहता है। मूसा सईद ने अपनी कहानी में डल को एक किरदार की तरह पेश किया है।
हाल के मौजूदा हालात में अलगाववाद एवं आतंकवाद ने हांलाकि  घाटी की तस्वीर को धूमिल करने का काम किया है, लेकिन फिल्म की रूह कश्मीर को लूटी हुई दौलत ना मानकर खोया हुआ खज़ाना मान रही है। गुलज़ार के दिल में सरज़मीं से पलायन करने की योजना चल रही थी। वो अपने सुख -दुख, हर पल के साथी अफज़ल के साथ घाटी से दूर निकलने की योजना बना चुका है, इस बीच उसकी मुलाकात कश्मीरयत पसंद वैज्ञानिक आसिफ़ा (नीलोफर हमीद) से होती है। एक नज़रिए से देखा जाए मूसा सईद प्रेम -त्रिकोण की रुमानी दुनिया को गढ़ते नज़र आएंगे। दूसरी तरफ फिल्म एक अनदेखा अनुभव गढ़ती जाती है।
फिल्मकार  एक अनदेखे कश्मीर को खोज निकालने में सफल हुए हैं। उन्होंने कश्मीर के नैसर्गिक सौंदर्य के समानांतर सहनशीलता को गले से लगाने का काम किया है, उन्होंने कश्मीरी लोगों की रूह को पहचाना है। यह एक लाजवाब फिल्म है।
युवा गुलज़ार अपने चचा के साथ रहकर शिकार के ज़रिए गुज़ारा कर रहा है। डल झील पर वो सैलानियों का गाइड बनकर रहता है। गुलज़ार अपनी इस ज़िंदगी से आगे की सोच रहा, वो दिल ही दिल में यह सब छोड़कर कहीं दूर चले जाने का ख्वाब रखे हुए है। गुलज़ार अपने साथ अफज़ल को ले जाएगा, दो दोस्त साथ वतन छोड़ चले जाने का मन बना चुके हैं। सुबह होते ही गुलज़ार अपने प्यारे अंकल को नींद से जगाकर, खिदमत में लग जाया करता था। उस ज़ईफ़ बुजुर्ग को उठाकर मुंह धुलाना, नाश्ता कराना, बदन में कभी-कभी मालिश करना, साथ में बाकी ज़रूरतों का ख़याल रखना उसका काम था। घर को चलाने के वास्ते वो झील पर शिकारा चलाया करता, पर्यटकों का गाइड बनकर  इधर-उधर सैर कराता।
राजनीतिक उठापटक, अलगाववाद, राष्ट्रवाद एवं आतंकवाद से हालांकि रोज़गार को बड़ा नुकसान हुआ है। ऐसे हालात में गुलज़ार जैसे लोगों पर बड़ा इम्तिहान गुज़र रहा है। दिलबहलाव के रास्ते  गुलज़ार ने अफज़ल की जिगरी दोस्ती में तलाश लिए थे। अफज़ल आता और दोनों बातें करते, शाम को एक दूसरे की आंखो में गुज़रते देखते। हंसी -मज़ाक, गाना-बजाना सब होता था। गुलज़ार -अफज़ल में गहरी दोस्ती से बढ़कर इत्तेफ़ाक था। दोनों एक दूसरे को प्यार की हद तक चाहते थे। दोनों के दरम्यान एक मासूम सा स्कूली खिलंदड़पन भरा था। मॉडर्न होने के नाम पर हम दोस्त व दोस्ती में कंजूसी करने लगे हैं। लेकिन, अफजल -गुलज़ार की दोस्ती से रश्क़ करेंगे आप। आधुनिकता -राष्ट्रवाद की जंग में यतीम हुए दो युवाओं को दोस्ती ने साथ लाया। इन दोनों की दोस्ती को आसिफा (नीलोफर हमीद ) का साथ मिलता है।
आसिफा अमेरिका से पर्यावरण अध्ययन में प्रशिक्षण करके आई, एक आशावादी विचारों  की युवती थी। आसिफा डल झील एवं उसके आस -पास होने वाले प्रदूषण का अध्ययन कर रही है। हाल के एक दशक में प्रदूषण की समस्या ने डल झील की खूबसूरती को प्रभावित किया है। रिसर्च के दरम्यान ही आसिफा की मुलाकात अफज़ल व गुलज़ार से हुई। शुरू-शुरू में वो इन युवाओं से बहुत फॉर्मल तरीके से पेश आती थी। आसिफा के रूखे व्यवहार ने युवाओं का उसकी ओर आकर्षण बढ़ा दिया। गुलज़ार-अफज़ल की शख्सियत आसिफा के बिल्कुल विपरीत थी। यह दोनों युवा बल्कि कहिए ज़िंदगी के नज़रिए से किशोर एक नैसर्गिक इतिहास से ताल्लुक रखते थे। वो शायद ही अपनी फिज़ा छोड़ कभी बाहर निकले थे। दोनों में दरबदर होने की गहरी चाह इसी की ओर संकेत कर रही थी।
वहीं दूसरी तरफ आसिफा पढ़ें-लिखे लड़कों की तरह बाहर का जेवर थी। आधी से ज़्यादा ज़िंदगी परदेश में कटी। आसिफा एक प्रवासी भारतीय युवती थी, अरसे बाद अपने वतन आई आसिफा कश्मीर को जन्नत से जहन्नुम की राह में जाता देख बहुत दुखी है। इसका दूसरा चेहरा डरावना सा नज़र आया उसे।
ज़मीन पर स्वर्ग का दर्ज़ा किसी को दिया जाए, तो वो कश्मीर होगा। किंतु काले सायों के इम्तिहान से गुज़रना भी यहीं हो रहा। यह मुसीबतें धीर-धीरे विकराल बन रही हैं। कश्मीर का इसमें कोई दोष नहीं।
ख़राब राजनीति ने इस सरजमीं को जबरन के विरोधाभास का सरमाया कर दिया। दुनियाभर में  दिलकश नज़ारों के नाम से जाना जाने वाला यह वतन बदकिस्मती की राह का मुसाफिर नज़र आता है। क्या नहीं है यहां, फिर भी यह वो नहीं जो इसे होना चाहिए था।
कश्मीरी लोग अपने खास नयन -नक्श व रंग -मिजाज़ के साथ एक अलग पहचान रखते हैं। इन लोगों में सब्र व इंतज़ार का अजीम माद्दा देखा गया है। बार-बार बिखरे हुए टुकडों को इकट्ठा कर फिर से घोंसला बनाना अजीम हौसला नहीं, तो फ़िर क्या है।
भारत -पाक के दरम्यान दशकों से रंजिश का केन्द्र रहा यह जन्नत अस्तित्व के लिए जूझ रहा है। अलगाववादियों व पुलिस के बीच होने वाली झड़पों को मूसा सईद ने यहां रखा है। वहीं दूसरे स्तर पर प्रदूषण से पहुंच रहे नुकसान को भी उन्होंने दिखाया है। कश्मीर की जीवनरेखा डल झील खुद को बचाने के लिए आज संघर्ष कर रही है। कूड़ा कर्कट एवम बाकी अनचाही चीज़ें झील के पानी को ज़हर बना रही हैं।
मूसा सईद की valley of saints एक सामान्य कथन ना होकर, जटिल दस्तावेज़ का प्रारूप अख्तियार करती है। कथा ने अभिव्यक्ति को अनेक परतों में तलाश किया है। इस फिल्म में कोई भी चेहरा स्थापित नाम नहीं, सभी कलाकार एकदम नए तराशे गए हैं। फिर भी अभिनय व निर्देशन की तारीफ करनी होगी जिसमें सरल एवं ज़मीनी किरदारों का खास ख्याल रखा गया है। स्वभाव से सादे एवं नरम लोग अपनी बोली से तुरंत सबके प्यारे हो जाया करते हैं, कश्मीरियों का किरदार वाकई कमाल होता है। फिल्म में इस्तेमाल हुए सेट्स असलियत के बेहद करीब हैं।
मूसा सईद ज़िंदगी के अमन भरे लम्हों को समेटने में सबसे अधिक सफल हुए हैं। यह सबकुछ दिल को इतना सुकून देगा कि आप इसे दूसरों के साथ बांटना पसंद करते हैं। किसी भी किस्म का शोर -शराबा अमन को तोड़ दिया करता है, फिल्मकार अमन को ज़िंदगी का आदर्श स्थिति मानकर चले हैं, जोकि जन्नत से प्यारे कश्मीर की बात कहता है। एक सामान्य दिन डल झील इस कदर शांत रहती है कि शिकारे की चापों से शोर हो जाता है। गुलज़ार-अफज़ल की दोस्ती में आई दरार का फिल्मांकन भी शांत झील को अशांत करके किया गया। बंदूकधारी सिपाहियों द्वारा अभी-अभी फायर हुआ, वो आवाज़ तुरंत ही शोर बनकर फिज़ा में गूंज जाती है। खुदा ने घाटी को अमन का सरमाया बनाया, कश्मीर के फितरत में शोर -शराबा नहीं, यह सब ख़राबियां उस पर थोपी गई हैं। सईद कश्मीर की मासूमियत का दर्द लेकर चले हैं।
गुलज़ार-अफजल वतन छोड़कर भाग जाने की कोशिश करते हैं, लेकिन उन्हें इसकी एक ठोस वजह तय करनी होगी। क्या उनकी जिगरी दोस्ती एक वजह बनेगी ? या फिर प्यारे सरजमीं की मुहब्बत उन्हें रोक लेगी ? वो सरजमीं जिसकी हिफाज़त कभी पाक रूहों के ज़िम्मे थी, क्या वो पाक रूहें अपने हमवतनों को रोक सकेगी ? हम अभी असमंजस में ही थे कि शहर में कर्फ्यू लग गया, कश्मीर की एक ज़रूरी दास्तां।
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