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संन्यासी हूं तो क्या हुआ, क्या फिल्म देखना कोई पाप है?

लोग पूछते हैं आप फिल्में देखते हैं मैं तपाक से कहता हूं, हां और पूछता हूं क्या फिल्म देखना पाप है? उत्तर आता है नहीं मतलब आप तो साधू हैं।

मैं पूछता हूं जब आप अपने माता-पिता, अपनी पत्नी, बेटा-बेटी के साथ देख सकते हैं तो हम क्यों नहीं देखें। मैंने संन्यास के बाद पहली बार वर्ष 2011 में काँगड़ा धर्मशाला योल कैन्ट स्थित आर्मी सिनेमा हॉल में फिल्म “ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा” देखी। उन दिनों यहां कोई सिनेमा हॉल नहीं था और आर्मी के सिनेमा हॉल में केवल आर्मी के लोग जा सकते थे. मेरे परिचित प्रेमी कर्नल साहू जी यहीं सेवारत थे, उनके योगदान से प्रवेश मिल गया। फिल्म के पूरा होने के बाद जब हम बाहर निकले तो अनेक लोगों की आंखे घूर-घूर के हमें देख रही थी, मानों हम से कोई निषिद्ध कार्य हो गया हो। खैर हमारी नियति ठीक है तो लोग क्या सोचते हैं इस बात पर बहुत ज़्यादा हम ध्यान नहीं देते हैं।

दूसरी बार सिनेमा हॉल में तब गया था जब गोरखपुर गए थे। उसी दौरान गोलघर जाना हुआ, मेरी नज़र सिटी मॉल के सिनेमा हॉल में लगे बाहुबली के पोस्टर पर पड़ी मैंने टिकट खिड़की पर पूछा फिल्म कब शुरू होगी उसने कहा 10 मिनट में, हमने एक टिकट लिया और अन्दर जा कर बैठ गए।

फिल्म आरम्भ हुआ पास बैठे दो लोग कानाफूसी करने लगे ई देख बाबा फिलम देखे आए हैं इ बात फुसफुसी आवाज़ में जब हमें सुनाई पड़ी तो हमने कहा आए तो हैं, आपको कोई परेशानी ?

वर्ष 2008 से 2017 के बीच स्वयं सिनेमाहॉल में जाकर केवल दो फिल्मे हमने देखी उद्देश्य था कि जब टीवी पर या लैपटॉप में फिल्मे देखते हैं तो हॉल में भी देखेंगे ,देखते है कौन क्या कहता है। कुछ वर्ष पूर्व लखनऊ के फन सिनेमा में जागरण फिल्म फेस्टिवल आयोजित किया गया था जिसके तहत हम जब फिल्म देखने पहुंचे तो गेट पर गार्ड ने कहा कि ड्रेस चेन्ज तो कर लिये होते, नाटक से सीधे फिल्म देखने चले आये कमाल के कलाकार हैं आप। फिर उससे हमने कहा कि हम संन्यासी है वो मुस्कुराते हुए संकोच से बोला हमें क्षमा करें हम समझे कि आप रंगकर्मी है।

इसके बाद छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आयोजित जागरण फिल्म फेस्टिवल में शामिल हुआ। वहां भी लोग देख कर आश्चर्यचकित थे खैर दोनों महोत्सव में अखबार के बड़े अधिकारी आमंत्रित किये थे, इस वजह से मान-सम्मान की कमी नहीं थी, वो खुद ख्याल रख रहे थे।

अब ये तुरन्त के धर्मशाला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल 2017 में शामिल होने के पीछे भी मेरी व्यक्तिगत रूचि एवं द स्कूल बैग शॉर्ट फिल्म का प्रदर्शन कारण था। इस फिल्म के निर्देशक मेरे मित्र धीरज जिन्दल के समारोह में आगमन से उनसे मिलना हो जायेगा कुछ विचार विमर्श आदान-प्रदान होगा यह सब सोच कर हम भी शामिल हो गएं। यहां आना और भी सुखद इसलिये हो गया क्योंकि फिल्म की अभिनेत्री रसिका दुग्गल भी आयी थी आपकी आवाज़, आपके बोलने का अंदाज़ हमें बहुत सुंदर लगता है, इस कार्यक्रम में आप से भी मिलना हो गया। इस उत्सव में करीब 5 शार्ट फिल्में हमने देखी, जो 10 मिनट, 15 मिनट के आस पास की रही होगी पर विषय वस्तु अत्यंत प्रभावी और प्रेरक दिखा।

फिल्मी दुनिया के विषय में हमें बहुत ज्ञान नहीं है।अभी तक फिल्म मतलब 3 घंटे में जो खत्म हो उसे ही फिल्म समझते थे पर इस कार्यक्रम में शामिल हो कर लगा, नहीं हमारी समझ गलत थी। 3 घंटे वाली फिल्म तो कमाई का एक एक धंधा है असली फिल्म तो ये छोटी-छोटी शॉर्ट फिल्में हैं जो व्यवसाय की भावना से परे रह कर बनाई जाती हैं। जो समाज के लिये दर्पण के सामान वास्तविक स्थिति का बोध करते व प्रेरक तत्व के रूप में हमें दिशा प्रदान करते हैं।

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