इक्कीसवीं सदी को कुछ दिनों के बाद जवानी चढ़ने वाली है यानि साल 2018 आने वाला है। लेकिन ना जाने हम किस आधुनिकता में जा रहे हैं? बीते 23 दिसम्बर को #किसान_दिवस था, और उसका कोई शोर नहीं! न गांव में, न मीडिया में और न इस युवा पीढ़ी के स्थायी निवास यानि कि ‘सोशल मीडिया’ में। क्रिसमस से दिनों पहले ही सांता क्लॉज के टास्क मिलना शुरू हो गए। अगर सांता साल भर पेट भर दे तो किसान को अपनी किसानी छोड़ देनी चाहिए। उसे तड़पती गर्मी में और 2 डिग्री की ठंडी रात में खेतो में पानी नहीं लगाना चाहिए, बल्कि बाहर पढ़ रहे अपने बच्चों को सरप्राइज़ देना चाहिए।
आज विद्वानों को और खासकर कॉलेज और यूनिवर्सिटीज़ के छात्रों को समय की ज़रूरत समझनी होगी। यूं तो हर एक विषय का अपना योगदान होता है लेकिन आज गांवों और किसानों की राजनीतिक अर्थव्यवस्था को समझना सबसे महत्वपूर्ण है। गांधी, चरण सिंह, इंदिरा, मनमोहन और मोदी तक ने निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है कि भारत गांव में बसता है। अभी भी देश की जनसंख्या का सबसे बड़ा हिस्सा किसान ही हैं।
NSSO की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक किसान की महीने की औसत आय 1632 रूपए है। अपने दिल दिमाग से पूछकर देखिये कि 1632 रूपए में आदमी क्या कर सकता है। जो आजकल शहर में बच्चे पढ़ाई करने जाते है वह अच्छी तरह समझ रहे होंगे। उत्तर प्रदेश सरकार के कृषि विभाग के आंकड़े कहते है कि यहां के किसान की औसत मासिक आय मात्र 4,923 रुपए है, वहीं किसान का मासिक खर्च 6230 रुपए है, जो उसकी मासिक आय से 1307 रुपए अधिक है। ऐसे में प्रदेश के किसान हर महीने कर्ज़दार हो रहे हैं है।
पिछले साल भरी लोकसभा में कॉर्पोरेट्स के साढ़े 14 हज़ार करोड़ का कर्ज़ा माफ़ कर दिया गया। वक्त की नजाकत तो तब भी नहीं समझी गई। किसी भी तरीके से मुद्दा बदलने की परम्परा भारत की सरकारों के लिए नयी बात नहीं है। प्रधानमंत्री ने 2022 तक किसानो की आय दुगुनी करने का वादा किया है। मान लो अगर INCOME डबल हो भी जाये तो 1632 से 3264 हो जाएगी। क्या 2022 में 3264 में गुज़ारा हो पाएगा?
ये सब होने से पहले केंद्र सरकार के कृषि मंत्रालय ने RTI के जवाब में कहा है कि तक सरकार के पास कोई योजना नहीं है जो किसानो की आय डबल कर दे। फिर यह कहा गया कि Soil Heath Card से उत्पादन बढ़ेगा ,पर जहा श्रीगंगानगर में यह स्कीम लांच की गयी वहां के वार्षिक उत्पादन में रत्ती भर ही बदलाव आया है, जिसका कारण लोकल किसान मौसम और पानी को मान रहे हैं।
एक डिबेट में महारष्ट्र की मंत्री पंकजा मुंडे कहती है कि हमने अब किसान की समस्याओ का तोड़ निकाल लिया है। अभी न्यूज़ीलैंड से आ रही हूं ,वहां से अपने अनुभव के अनुसार महाराष्ट्र को सिंचित किया जायेगा और उत्पादन के साथ साथ किसानो की आय में भी वृदि हो जाएगी। साथ में ही बैठे कृषि और खाद्य विशेषज्ञ डॉ. Devinder Sharma ने पंजाब का हवाला देते हुए कहा की वहा 98 पर्सेंट ज़मीन सिंचित है फिर भी कोई दिन ऐसा नहीं होता जिस दिन के अख़बार में किसान की आत्महत्या की खबरे न आती हो। रेमैन मेग्सेसे पुरस्कार विजेता पी साईनाथ का ब्लॉग भी विशेष तौर पर इन्ही हादसों की व्याख्या करता है।
ये वही सरकार है जिसने 2014 से पहले देश की 250 से ज्यादा रैलियों में वादा किया था कि सरकार बनते ही स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू कर दी जाएगी, पर इसी सरकार ने पिछले महीनो सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट दिया है कि हमारी सरकार ये रिपोर्ट लागू नहीं करेगी और इसकी ज़रूरत भी नहीं है। हालांकि किसान को कई बार MSP का लॉलीपॉप देने का प्रयास भी किया गया परन्तु देश में सिर्फ 6 परसेंट किसानों को ही MSP मिलता है।
हर फैक्टर ज़रूरी है परन्तु सबसे ज़रूरी किसान की आय तय करना है। “किसान आय आयोग” एक संभावित इलाज़ हो सकता है जो किसान को उसकी ज़मीन के मुताबिक प्रति माह 18 हज़ार रूपए सुनिश्चित करता है, हालांकि कुछ अर्थशाश्त्री इसे वित्तीय घाटे का कारण बता सकते हैं, लेकिन ये वही विद्वान् हैं जो कॉर्पोरेट्स के करोड़ों के कर्ज़ा माफ़ी पर दुबक कर अपने डाइनिंग रूम में उन्ही किसानो के द्वारा उगाई फसल से बने चावल और रोटी खाते हैं।
इसी साल की राजस्थान पत्रिका की एक Editorial रिपोर्ट के मुताबिक 1993 से अब तक करीब 13 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं, अकेले महाराष्ट्र में यह आंकड़ा 60 हज़ार पहुंच चुका है। शर्मनाक बात यह है कि अब किसानो के परिवार वाले भी हिम्मत छोड़ रहे है। पंजाब के फ़िरोज़पुर में कुछ दिन पहले ही एक किसान के बेटे ने कॉलेज में फीस न दे पाने के कारण आत्महत्या कर ली। दिल्ली की किसान संसद में तेलंगाना की महिलाओं ने भी इसी तरह की समस्या रखी।
देविंदर शर्मा के मुताबिक 1996 में वर्ल्ड बैंक ने भारत को सलाह दी थी कि वह 2005 तक अपने में से 40 करोड़ लेबर को शहर में शिफ्ट करे ताकि उद्योगों के लिए सस्ते मज़दूर पैदा किये जा सके, अब क्यूंकि यह एक लोकतान्त्रिक देश है इसलिए डंडे और बन्दूक से इतने ज़्यादा लोगों के साथ यह करना नामुनकिन था तो सबसे पहले किसानी को बर्बाद किया जाने लगा। आजकल गांव के बाहर रोड बना देने को विकास कहा जाता है लेकिन वही रोड “मजबूरन ग्रामीण से शहरी प्रवास” को बढ़ावा दे रही है।
भगत सिंह ने 1928 में ‘कीर्ति’ पत्रिका में एक लेख लिखा था जिसकी शुरुआत इसी वाक्य से होती है “विश्व में जो अंधेरगर्दी इन खुदगर्ज़ और बेईमान पूंजीपति शासकों ने मचा रखी है, वह लिखकर लोगो को समझायी नहीं जा सकती।” उनकी यह पंक्ति आज भी सच है। केवल क्रिसमस ही नहीं, क्रिकेट, फिल्में, नशा, धर्म और सवाल न करने की आदत ने भी आम आदमी को अंधा बना रखा है। केवल शिक्षा और ज़िंदादिली ही इस तरह के शोषण के खिलाफ आवाज़ बुलंद कर सकती है, वरना ये सांता-सांता खेलना कोई महान होने के लक्षण नहीं है।