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“मंटो जो तुम आज होते तो तुम भी ‘एंटी नैशनल’ होते”

मंटो,

आप का खत पढ़ा। नहीं-नहीं! मेरा मतलब आप की ट्वीटें पढ़ीं। अब आप सोच रहे होंगे कि ये कौन है अंजान सी लड़की जो गले पड़ी जा रही है। तो खैर, पहले ही सफाई दे दूं कि ये उन ट्वीटों की बात कर रही हूं जो आप ने हमारे यानी कि हिंदुस्तान के वज़ीर-ए-आज़म नरेंद्र मोदी को लिखे। यहां मैं अपने संघ के दोस्तों को बता दूं कि वज़ीर-ए-आज़म कोई गाली नहीं बल्कि प्रधानमंत्री का उर्दू तर्ज़ुमा है। हां तो क्या कह रही थी मैं?

हां आप की ट्वीटें जो शायद आप ने अपनी लाहौरी कब्र से लिखी हैं। लिखा है उसमें कि आप ने वज़ीर-ए-आज़म की मन की बातें सुनी हैं। हां वही जो आती हैं संडे के संडे। आप ने बड़े “मंटोवानि” तरीके से उनसे कश्मीर के भी हालात बयान किए। उन बेवाओं का दर्द बताया, उस मां का भी और वादियों में सूं-सूं कर के गूंज रही उन दर्दनाक चीखों का भी एहसास दिलाने की बड़ी कोशिश की मोदी जी को।

यकीनन आप को लगा होगा कि वज़ीर साहब जब वो पढ़ेंगे तो उनके रोंगटे खड़े हो जाएंगे, ठीक वैसे ही जैसे तेरह साल की उम्र में मेरे रोंगटे खड़े हुए थे “खोल दो” पढ़के। जो खुद एक ज़्यादती का शिकार हुआ हो, उस पर उस कहानी का क्या असर हो ये समझाने के लिए शायद आप को एक और खत लिखना पड़े।

फिर आप की और भी कहानियां पढ़ीं। “ठंडा गोश्त” ने हाथ-पैर सुन्न कर दिए तो “टोबा टेक सिंह” ने पार्टिशन का मंज़र आंखों के सामने ला खड़ा किया। आप की कहानियां पढ़के बड़ी हुई और जैसे इस बात का यक़ीन था कि आप किस्सों को नहीं, किस्से आप को ढूँढ लेते हैं। वैसे ही इस बात का भी यकीन है कि कभी ना कभी, कोई ना कोई आप सा मुझे भी ढूँढ निकालेगा। माशूक ना सही तो किसी मंटो की चुगताई ही सही।

खैर, जो इतनी कड़वाहट से जवानी की दहलीज़ पर कदम रखती हुई लड़की का मन घबराता तो वो मन ही मन किसी गालिब की दुआ कर लेती। ज़रा बड़ी हुई तो गालिब थोड़े ओल्ड फैशंड लगने लगे, फिर एक नया शख्स पसंद आया। हां वो ही, वो आए हैं ना-नए नए सोशल मीडिया के पसंदीदा शायर, क्या नाम बताया? हां वो जॉन एलिया, कोई मंटो में ज़रा उनसे मिला दे और मुझे दे दे। बड़ी दुआएं मांगी थी बा खुदा!

पर ना तो मंटो ही नसीब हुए और ना ही एलिया। नसीब हुए तो वो दिल्ली के लड़के, जो फेसबुक पर बड़ी-बड़ी क्रांति करते और क्रांति के वक़्त जश्न-ए-रेख़्ता में झोला लेकर इश्क करने निकल पड़ते। रेख़्ता तो पता ही होगा आप को, आखिर आप वहां के हर झोले और पोस्टर में जो मौजूद हैं। रुकिए ज़रा, क्या कहा आप ने? क्रांति क्यूं? अरे हां, यही तो बता रही थी आप को और आप की बातों-किताबों में खो गई। आप को पढ़-पढ़ कर आप जैसी ही हो गयी हूं। सिलसिलेवार बात ही नहीं कर पाती।

हां तो बात करते हैं क्रांति की। आप ने वज़ीर-ए-आज़म की मन की बातें सुनी, कश्मीर के मन की बातें बताई, पर बाकी सबकी तरह आप ने भी कुछ लोगों की मन की बात को नज़रंदाज़ कर दिया ना। वही, उस पंद्रह साल के लड़के की मां की मन की बात, जो ईद के कपड़े सिलवाने गया था और वापस आई तो उसकी लाश। पता है कहते हैं कि उसने जिसको अपनी सीट दी उसने ही उसका कत्ल कर दिया। हां तो सही ही तो हुआ, बड़ा टोपी पहने मुसलमान बना फिरता था। पर वो जो गोरखपुर में मारे गए मासूम दम घोंट कर! उनका धर्म तो शायद इस्लाम नहीं था। पर गरीब थे ना, उनकी गलती। प्राइवेट अस्पताल में जाना चाहिए था।

और उनके बीवी बच्चों का क्या, जो बेचारे गायों की वजह से मारे गए। कभी रात में घर से निकालकर तो कभी रास्ते में घेरकर। हां-हां वही अखलाक और पहलू और उन जैसे कई और। कहा किसने है आखिर इन मुसलमानों को गाय के आस-पास भी जाने के लिए, ढीठ कहीं के।

और उस मज़दूर को जिसे इश्क जिहाद के नाम पर जला डाला और तो और एक चौदह साल के लड़के ने बड़े चाव से विडियो भी बनाया उस कत्ल का और हम देखते रहे। हां तो और कर भी क्या सकते थे? किसने कहा था अफ़राज़ुल को मुसलमान बनने को? इश्क जिहाद? हां ये एक नए क़िस्म का जिहाद है, अभी-अभी हिंदुस्तान में आया है। सही कहा आप ने, अब इश्क के नाम पर भी लोगों को मारा जा रहा है।

ओ अच्छा… पढ़ा है आप ने उनके बारे में। तो उन्हें कैसे भूल गए? क्या कहा? डर गए थे आप भी गौरक्षकों और भक्तों से? हां डर तो मुझे भी लगता है, अब भी लग रहा है। हां शायद, वज़ीर-ए-आज़म मोदी जी को भी लगता होगा, तभी तो कुछ नहीं कहते इन मसलों पर। वैसे मैंने सुना था कि छप्पन इंच की छाती है वज़ीर-ए-आज़म साहब की, पर शायद सत्तर की होती तो सही रहता। फिर शायद मुसलमानों के लिए ना सही, बिहपुर में मारे गए उस दलित परिवार के लिए ही आवाज़ उठा लेते। पर वक्त कहां है? इस इलेक्शन ने जान जो ले रखी है सबकी।

ज़म्हुरियत नाम के बंदर का मदारी है ये इलेक्शन। दुनिया भर के कत्ल अपनी जगह, पर इलेक्शन का बुखार अपनी जगह। सही तो लिखा आप ने कि अब हिंदुस्तान में पाकिस्तान नज़र आने लगा है, पर ज़रा क़ब्र से थोड़ा सा गर्दन उठाकर देखकर बताएंगे कि क्या पाकिस्तान में भी स्टूडेंट्स और जर्नलिस्टों को पड़ोसी मुल्क में जाने की नसीहत दी जाती है? या ये सब सिर्फ हिंदुस्तान में ही होता है? मेरे हिसाब से तो ये ट्रेंड सिर्फ हिंदुस्तान में ही है अभी।

रेडक्लिफ के बनाए दोनों टोस्ट जल गए हैं। नहीं-नहीं, जले ही नहीं जल के सड़ भी चुके हैं। और ये बड़ा वाला टुकड़ा जो बचा हुआ था ज़रा बहुत अभी तक, वो भी पिछले तीन सालों में माशाअल्लाह जल के बिलकुल ही काला हो चुका है।

आप ने अपने ट्वीट के आखिर में कहा कि सआदत हसन मर भी जाए तो मंटो ज़िंदा रहेंगे हमेशा। बात तो सही है पर सुनिए जनाब, ये हिंदुस्तान है, यहां ना वज़ीर-ए-आज़म आवाज़ उठाते हैं, ना बोलने वालों को पसंद करते हैं। ‘एंटी-नैशनल’ सुना है आप ने? नया अल्फ़ाज़ इजाद किया गया है आवाज़ उठाने वालों के लिए।

भले ही फैज़ चीख-चीख कर बोलें, “बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, बोल कि ज़बान अब तक तेरी है”, हिंदुस्तानी सरहद के इस पार ना तो अब लब आज़ाद हैं और ना ज़बान हमारी है। आखिर किस मुल्क के लोग अपने-अपने फोन की स्क्रीन पर एक इंसान को ज़िंदा जलता देखते और अगले ही दिन रेखता में अफ़राजुल को भूल-भालकर सेल्फ़ी खिंचाते फिरते।

मंटो सच कहा आप ने, सआदत हसन मर गया। अगर वो ज़िंदा होता, तो आज ये सब देख कर कहता, “जिस हिंदुस्तान को मैंने मरते दम तक पाकिस्तान की सरज़मीं पर एक बिछड़े माशूक की तरह याद किया, उस हिंदुस्तान पर लानत।”

प्यार और परेशानी से भरी हुई,

एक हिंदुस्तानी मुसलमान।

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