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प्राइवेट अस्पताल करते हैं मौत पर बिज़नेस ? Private Hospitals : Business Before Humanity

फाइव स्टार होटल की शक्ल में ये ब्रांडेड अस्पताल संवेदना से कोसों दूर हैं , फिर कैसे माने डॉक्टर को भगवान ? 

दिल्ली के शालीमार बाग़ स्थित मैक्स अस्पताल का मुद्दा ताज़ा जरूर है लेकिन दिल्ली के कई और बड़े अस्पतालों के द्वारा भी लापरवाही  के बड़े बड़े मामले सामने आये हैं . प्राइवेट अस्पतालों द्वारा लापरवाही , मनमानी रकम वसूली और मौत के बाद पैसे न दे पाने की स्थिति में लाश तक वापस न करने के आरोप बराबर लगते रहते हैं . 

जिंदा बच्चे को मृत घोषित कर लिफाफे में पैक कर देना लापरवाही की हद है और मैक्स जैसे बड़े अस्पताल के डॉक्टर्स से कम से कम इस तरह की लापरवाही की उम्मीद नहीं की जा सकती थी . लेकिन जाँच के शुरूआती रिपोर्ट में ये साबित हो चुका है की बच्चे का ईसीजी टेस्ट किये बिना ही मृत घोषित कर दिया गया था . चार दिन तक जीवन और मौत के बीच संघर्ष करने के बाद आखिकार एक अन्य प्राइवेट अस्पताल में बच्चे ने दम तोड़ दिया . पूरी घटना को लेकर परिजनों में आक्रोश है और वो अस्पताल प्रसाशन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं , ऐसे में देखने वाली बात होगी की क्या इस बार पूरे मामले पर कुछ ऐसी सख्त करवाई की जाती है जो हर अस्पताल और डॉक्टर के लिये एक उदाहरण साबित हो या एक बार फिर मामले को रफा दफा कर जाँच और करवाई के आश्वासन के साथ लम्बी प्रक्रिया में लगा दिया जाता है . 

ये पहली घटना नहीं है जब  बड़े प्राइवेट अस्पताल द्वारा बड़ी लापरवाही और संवेदनहीनता का उदाहरण सामने आया हो . बाद साल 2016 की है , साउथ दिल्ली के क़ुतुब इंस्टीट्युशनल एरिया में एक बड़े निजी अस्पताल में एक महिला मरीज को इलाज के लाया गया लेकिन तब तक उसकी मौत हो चुकी थी . चुकी यह ब्रौट डेड का मामला था इसलिये औपचारिक जाँच के लिये पुलिस को बुलाया गया . जाँच प्रक्रिया पूरी होने के बाद जब शव को शव गृह में ले जाने के लिये एम्बुलेंस मंगवाई गई तो अस्पताल कर्मियों और डॉक्टर ने लाश को बिना पैक किये या ढके ही एम्बुलेंस में डिस्पैच कर दिया गया . जब कारण पूछा गया तो अस्पताल कर्मियों का कहना था की लाश को ढकने के लिये कपडे का शुल्क लगता है जो अग्रिम भुगतान के बाद ही शव को ढक कर दिया जाता है . इस तरह के गैरजिम्मेदाराना और संवेदनहीन जवाब सुन कर मौके पर मौजूद पुलिस अधिकारी ने क़ानून का हवाला देते हुए जब करवाई की बात की तो पहले तो अस्पताल का स्टाफ बहस करने पर उतारू हो गया बाद में मामले को बढ़ता देख खुद अस्पताल के उच्च अधिकारी ने हस्तक्षेप किया और अंततः बिना किसी शुल्क के लड़की के शव को ढका गया . 

दिल्ली के पीतमपुरा  स्थित NSP में एक बड़े निजी अस्पताल ने तो मरीज के दाहिने घुटने की जगह बाएँ घुटने का ऑपरेशन कर दिया . युवक के परिजनों ने मीडिया को कॉल कर इस बड़े लापरवाही की सूचना दी लेकिन जब तक मीडिया मौके पर पहुँची तब तक अस्पताल प्रसाशन ने पीड़ित और उसके परिवार को मना लिया था की वो बिना शुल्क सही ऑपरेशन भी करेंगे और इलाज का पूरा खर्च भी उठाएंगे . परिजनों और पीड़ित ने इस मामले को मीडिया में लाने से इनकार कर दिया और बात रफा दफा हो गई . 

रोहिणी के एक बड़े निजी अस्पताल में नोटबंदी के समय इलाज के दौरान एक मरीज की मौत हो गई . अस्पताल ने ये कहकर लाश देने से इनकार कर दिया की वो पुराने नोट नहीं ले सकते . बंगाल से आये परिवार के पास केवल पुराने नोट ही थे और बैंकों के बाहर लम्बी लाइन लगी थी . अंततः प्रसाशन और मीडिया के हस्तक्षेप के बाद अस्पताल प्रसाशन को झुकना पड़ा और पुराने नोट ले कर लाश परिजनों को सौंपा गया . 

इलाज के नाम  पर लाखों का बिल चंद दिनों में बनाने के तो दर्जनों मामले मीडिया की सूचना में आते रहते हैं . आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के इलाज करने के लिये जो दिशानिर्देश प्राइवेट अस्पतालों को सरकार या न्यायलय द्वारा दिये गए हैं उनकी लगातार अनदेखी की जाती रही है . ऐसे में अगर कोई भी गरीब आपात स्थितीमें  गलती से इन प्राइवेट अस्पतालों में चला जाये तो समझिये खुद को बेच कर भी इनकी फीस न चुका पाए . EWS के इलाज के मामले में कई बार परिवार तमाम डाक्यूमेंट्स और सर्टिफिकेट के साथ डीएम , एसडीएम और जनप्रतिनिधियों के कार्यालय के चक्कर लगाकर गुहार लगाते देखे जाते हैं . उनके मुताबिक़ EWS के तमाम कागजात मौजूद होने के बावजूद भी प्राइवेट अस्पताल इनसे इलाज के नाम पर मोटी रकम की मांग करते हैं और न दे पाने की स्थिति में इनपर दबाव बनाते हैं . कई बार तो स्वास्थ्य मंत्री तक भी इनकी कोई मदद नहीं कर पाते .

समाज में अगर डॉक्टरों को भगवान् का दर्जा दिया गया है तो अस्पतालों को भी शिवालय के समतुल्य ही माना जाता रहा है . लेकिन अब सवाल ये है की जिस तरह से ये बड़े प्राइवेट अस्पताल तमाम सामाजिकता और संवेदनाओं को परे रखते हुए मुनाफ़ा कमाने वाले व्यावसायिक प्रतिष्ठान बन चुके हैं ऐसे में आम लोग इनसे क्या उम्मीद रखें ? सरकारी अस्पतालों में या तो भीड़ ज्यादा है या सुविधाओं का आभाव , प्राइवेट अस्पतालों में घुसने से पहले एक आम आदमी डरता है . ताज़ा प्रकरण भी एक उदाहरण मात्र है , ऐसी घटनाएं प्राइवेट अस्पतालों को लिये रूटीन अफेयर हैं . हाल में  फोर्टिस अस्पताल में एक बच्चे की डेंगू से मौत के बावजूद लाखों का बिल और शालीमार बाग़ मैक्स अस्पताल द्वारा जीवित नवजात को मृत घोषित किये जाने की घटनाएँ मीडिया में खबर बनी हैं , लेकिन कई मामले बिना खबर बने ही दबा और भुला दिये जाते हैं .

आवश्यकता है की ऐसे तमाम निजी अस्पतालों पर नकेल कस कर ऐसे मामलों में इनकी जिम्मेदारी तय की जाए ताकि ऐसी दुखद घटनाएँ रूटीन अफेयर न बने . 

अभिजीत ठाकुर 

 

 

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